श्रीशिव का पञ्चवक्त्र – रूप

पञ्चवक्त्र रूप से प्रसिद्ध श्रीशङ्कर जी का यह रूप इनके ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात नामक पाँच अवतारों को भी अपने में समाविष्ट करता है । अभिनवगुप्त आचार्य ने चित्, स्पन्द, ज्ञान, इच्छा और क्रिया (प्रयत्न) इन पाँच कलाओं का संबन्ध पञ्चवक्त्र रूप से जोड़ा है। कुछ विश्लेषक इस पञ्चमुखी रूप को पञ्च महाभूतों का सूचक कहते हुए सूचित करते हैं, तो कुछ पाँच दिशाओं में इन रूपों की व्याप्ति की अवाप्ति करते हैं ।

कुछ-तत्त्व चिन्तक सृष्टि, स्थिति, लय, अनुग्रह और निग्रह नामक पाँच कार्यों की निर्मात्री शक्तियों के संकेत इन पाँच मुखों को मानते हुए पूर्व-दिशा के मुख को सृष्टि का, दक्षिण दिशा के मुख को स्थिति का पश्चिम-दिशा के मुख को प्रलय का, उत्तरदिशा के मुख को अनुग्रह का तथा ऊर्ध्वमुख को निग्रह (ज्ञान) का अमली जामा पहनाते हैं ।

योगवाशिष्ठकार के अनुसार इस पञ्चमुखी रूप का सम्बन्ध मन्त्रयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग और शरणागति योग से होता है । तान्त्रिक लोगों का तानपूरा इस रूप के बारे में अपनी तुनतुनी स्वर लहरी से ललकार रहा है कि ये पूर्वाम्नाम, दक्षिणाम्नाय, पश्चिमाम्नाय उत्तराम्नाय एवं ऊर्ध्वम्नाय तो हैं ही साथ ही, इन्हें ‘षण्मुख’ भी स्वीकृत कर षडाम्नाय की खाट पर बैठा दिया है।

किसी विचारक ने अहङ्कार-रूपी रुद्र- शरीर से सम्बन्धित पञ्च ज्ञानेन्द्रियों को ही पञ्चमुख रूप से माना है ।

किसी आलोचक ने इन पाँच मुखों को क्रमशः चतुष्कल, अष्टकल, त्रयोदशकल, अष्टकल एवं पञ्चकल के नाम से प्रचारित किया है।
पञ्चवक्त्र के रूप में शिव का ध्यान वास्तव में इनके शान, मान व आन को आनन-फानन में सातवें आसमान को छूने वाला सिद्ध करता है, जो ईश्वर के अलावा अन्य किसी का हो ही नहीं सकता है । यथा—

“मुक्तापीत- पयोद-मौक्तिक-जवा-वर्णैर्मुखैः पञ्चभि-
स्त्र्यक्षैरञ्चितमीशमिन्दु- मुकुटं पूर्णेन्दु-कोटिप्रभम् ।
शूलं टङ्क-कृपाण-वज्र दहनान्नागेन्द्र-घण्टाङ्कशान्
पाशं भीतिहरं दधानममिता- कल्पोज्जवलाङ्ग भजे ॥”

इस अनुशीलन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैसे छाया और धूप तथा कर्म और कर्ता आपस में एक दूसरे से सुसम्बद्ध तथा संश्लिष्ट है, उसी प्रकार श्रीशिव का यह पञ्चवक्त्र – रूप श्रीनारायणोपनिषद् के अनुसार पुरानी बोतल में ताजा नशे की बात बरबस याद दिलाकर अपनी वस्तु-स्थिति स्पष्ट करता है—

अन्नात् प्राणाः भवन्ति भूतानाम् प्राणैर्मनो मनसश्च विज्ञानम्, विज्ञानादानन्दो ब्रह्मयोनिः स वा एष पुरुषः पञ्चधा, पञ्चात्मा, येन सर्वमिदं प्रोतम् अर्थात् श्रीशिव, अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द नामक पाँच कलाओं के अधिष्ठाता है। लेकिन कुछ निन्दक / आलोचक इन सबको बकवास मानते । परञ्च यह उनका दोष नहीं, प्रायः देखने में आता है कि नीच कुल वाले कुलीनों की, कुरूप सुन्दर लोगों की, कंजूस दानशीलों की, कुटिल सज्जनों की, पापी धर्मात्माओं की, मूर्ख विद्वानों की निन्दा करते ही हैं जैसा कि पञ्चतन्त्र (मित्रभेद) में कहा है-

प्रायेणात्र कुलान्वितं कुकुलजाः श्रीवल्लभं दुर्भगाः, दातारं कृपणा ऋजूननृजवो वित्ते स्थितं निर्धनाः । वैरूप्योपहताश्च कान्तवपुषं धर्माश्रयं पापिनो, नाना-शास्त्र-विचक्षणं च पुरुषं निन्दन्ति मूर्खाः सदा ॥

इस पर नीतिवाक्यामृतकार कहता है—

मृगाः सन्तीति किं कृषिर्न क्रियते ? अथवा अजीर्णभयात् किं भोजनं परित्यज्यते ?

श्री शिव का मृत्युञ्जय रूप (महाकाल – रूप)

‘कालाधीनं जगत्सर्वम्’ के अनुसार समस्त जीव जगत् तो काल (मृत्यु/समय) के वश में है ही, अपि तु समस्त ब्रह्माण्ड काल से पराजित है, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्रादि सभी की समय सीमा (आयु) का वर्णन मिलता है लेकिन श्रीशिव ईश्वर होने से मृत्युञ्जय हैं जब कि अन्य कोई भी तथाकथित देवता मृत्यु (काल) को जीतने का जश्न नहीं मना सकता। किसी ने पूछा कि क्या मृत्यु मर गई है ? बुढ़ापा बूढ़ा हो गया है ? या विपत्तियाँ खुद विपत्ति में पड़ गई हैं ? या शरीर के संपूर्ण रोग नष्ट हो चुके हैं ? ऐसी क्या बात हो गई है कि ये संसार के लोग बड़े खुश नजर आ रहे हैं— ‘मृतो मृत्युर्जरा जीर्ण, विपन्नाः किं विपत्तयः । व्याधयो बाधिताः किं वा हृष्यन्ति यदमी जना: ?’ (कवि धनराज) इसका उत्तर शिव का यह मृत्युञ्जय रूप, रुद्रशक्ति (जिसका वर्णन आगे है) का विपर्यय (उल्टा) आनन्दरूप है । मृत्यु को जीतने पर आनन्द की प्राप्ति होती है और रसो वै सः (साहित्यदर्पण) कह कर जो ईश्वर की उपासना की जाती है, वह मृत्युञ्जय शिवरूप की ही उपासना है— क्योंकि रस स्वयं आनन्दकोष है। कहा है- ‘रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति’ (श्रुति) ।

दुःखी जीव को आनन्द प्रदान करना ही जगदीश्वर शिव का स्वभाव है, इसी बात को सर्वतोभावेन भली-भाँति समझकर अकाल मृत्यु, रोग, अरिष्ट- निवारणार्थ एवं मनोवाञ्छित धन-समृद्धि – आयु-पुत्रादि-लाभार्थ लोग रुद्राभिषेक, नमक – चमकाध्याय से संपुटित 11 पाठ लघुरुद्र जिसे ग्यारह पण्डित एक दिन में ही करते हैं। 121 आवृत्तियों वाला महारुद्र (जिसे 11 पण्डित 11 दिन में पूर्ण करते हैं) तथा विशेष-प्रयोग अतिरुद्र जो 1331 आवृत्तियों का होता है, कराते हैं, इतना ही नहीं लिङ्गार्चन पद्धति के अनुसार सवालाख शिवलिङ्ग-पूजन, सवालाख बिल्वपत्र से पूजन, पञ्चाक्षर ॐ सहित षडक्षर ‘ॐ नमः शिवाय भी मन्त्र’ के सवालाख जप तथा पार्थिव-शिव-पूजन आदि विधियों से शङ्कर शिव पूजा की फल श्रुति में लिखा है- उपासना से मारकेश टलता है, आयु-वृद्धि होती है, धन मिलता है ।

“आयुष्मान् धनवान् श्रीमान् पुत्रवान् धान्यवान् सुखी
वरमिष्टं लभेल्लिङ्गं पार्थिवं यः समर्चयेत् ।
तस्मात्तु पार्थिवं लिङ्गं ज्ञेयं सर्वार्थ-साधकम् ॥

दानव-दैत्य-गुरु शुक्राचार्य ने घोर तप करके मृत्युञ्जय शिव से मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की थी, यह बात जन-साधारण भी जानता है और इसका निकलता है कि ‘स्वयमसिद्धः परान् कथं साधयेत्’ अर्थात् कोई स्वयं ही अयोग्य (लक्षणा-व्यञ्जना-शब्द-शक्ति से रहित) सीधा सादा (अभिधा शक्ति) अर्थ होगा तो दूसरों को कैसे योग्य बनाएगा ? इस कथानक से शिवजी के मृत्युञ्जय-रूप की पुष्टि होती है । महामृत्युञ्जय मन्त्र इस प्रकार हैं- (दीक्षा
प्रकाश से उद्धृत)

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धि पुष्टिवर्द्धनम्। ऊर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ ॥

इसके महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए वेद भगवान् कहते हैं—-

” तमेव विदित्वा मृत्युमत्येति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।”

इस मृत्युञ्जय-रूप को ऊर्जस्वल रूप देने में महती भूमिका निभाने वाले मृकण्ड ऋषि के पुत्र, मार्कण्डेय पुराण के रचयिता मार्कण्डेय ऋषि को कैसे भूला जा सकता है ? जो भगवान् शिव की अहैतुकी कृपा से अल्पायु होते हुए भी केवल मृत्युञ्जय शिव की उपासना से महाकाल को बेहाल कर चिरजीवी पद पाकर चिरस्मरणीय बन गये। किसी विचारक ने लिखा है – “न मन्त्रो न तपो दानं, न वैद्यं न च भेषजम् । शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् ।” किन्तु श्री शिव के इस मृत्युञ्जय रूप ने ठीक इससे उल्टा कर दिखाया है ।

मृत्यु (नाश) जो अन्तिम सत्य है, शिव के अधीन है । इसीलिए शिव श्मसान वासी हैं क्योंकि जीव-जगत् का अन्तिम निवास स्थान श्मशान ही है । प्रत्यक्ष में सृष्टि और पालन का कार्य तो प्रत्येक प्राणी कर रहा है किन्तु आज तक मृत्यु को कोई भी रोक नहीं पाया श्रीशिव के अलावा और यही इनके ईश्वरत्व का बोधक है । चलते-चलते कुछ मृत्यु-सूचक चिह्नों का वर्णन करना भी ठीक रहेगा-

  1. 1. स्नान करते ही जिसकी छाती का जल और हाथ पैर तुरन्त सूख श्री जाये तो वह तीन महीने जीवित रहेगा ।
  2. नाक टेढी हो गई हो, कान नीचे की ओर ढल पड़े हों और नेत्रों से जल बहता हो (एक या दोनों से) ऐसा मनुष्य शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होगा।
  3. स्थिर जल में जो व्यक्ति मस्तकहीन अपनी छाया देखे तो छह मा में मृत्यु ।
  4. अकस्मात् मोटा दुबला हो जावे और दुबला मोटा हो जावे अथ दोनों कानों को हाथों से बन्द कर लेने पर बाहर का शब्द सुनाई। के पड़े तो 9 माह में मृत्यु ।
  5. जिस मनुष्य के मल-मूत्र और अधो-वायु साथ चलें दस दिन में मृत्यु ।
  6. जिसको भरपेट खा लेने के बाद भी भूख मालूम पड़े और दन्त- उत्पन्न हो तो आयु प्रायः समाप्त जानें। अरुन्धती, ध्रुव, विष्णु के पद और चौथा मातृमण्डल दिखाई न दे तो भी आयु समाप्त जाने।
  7. उपर्युक्त अरुन्धती आदि शब्दों के अन्य अर्थ – जीभ = अरुन नासिका अग्रभाग = ध्रुव, दोनों भौहों के बीच विष्णु पद, आंख तारा = मातृमण्डल ।
  8. दाँत और अण्डकोश को जोर से दबाने पर वेदना न हो तो भी जाने । अर्थात् 3 माह ।
  9. जिसके हाथ की बीच की तीन अँगुलियाँ तर्जनी मध्यमा अनामि बिना किसी कारण टेढ़ी हो जावें और बिना किसी रोग के सूखे तो छह माह में मृत्यु ।
  10. रात्रि में अग्नि से डरे लगे और दीपक बुझने पर गन्ध न आवे छः माह में मृत्यु ।

इसी प्रकार मृत्यु-सूचक स्वप्नों को भी थोड़ा समझ लें-

  1. अपने शरीर को गन्ध – पुष्पादि से भूषित देखे तो 8 माह के बाद मृत्यु ।
  2. अपने मस्तक या शरीर पर सूखी लकड़ी या तृण रखा दीखे माह बाद मृत्यु ।
  3. अपने मुख से सभी दाँत गिर पड़े तो शीघ्र मृत्यु हो ।
  4. गीदड़, कुत्ता, सूअर, राक्षस, असुर, पिशाच, भूत प्रेत, बाज आ दर्शन हों या ये कुछ खाते हुए दिखाई दे तो एक वर्ष में मृत्यु जाएगी ।
  5. काले रङ्ग की स्त्री दोनों बाहुओं से पकड़े तो छः माह बाद ।

अब हम असाध्य रोगग्रस्त प्राणियों के लिए रामबाण की भाँति अमोघ, सिद्धिप्रद, रोग-शोक-भय-नाशक सुख-समृद्धि कारक क एक अनुभवसिद्ध के 11 पाठ नित्य 11 दिन तक शिवालय अथवा निजी पूजा गृह में किसी ‘श्रीमृत्युञ्जय-स्तोत्र’ पद्म पुराण, उत्तर 237 को उद्धत कर रहे हैं। इस स्तोत्र प्रियजन या पुरोहित से करावें अथवा रोगी स्वयं एक पाठ शुद्धोच्चारण पूर्वक करे तो निश्चित रोग-निवृत्ति हो ।

श्रीमृत्युञ्जय-स्तोत्रम्

रत्न ‘सानु’ शरासनं रजताद्रिशृङ्ग-निकेतनम् ।
शिञ्जिनीकृत पन्नगेश्वरमच्युतानल-सायकम् ।
क्षिप्रदग्घ-पुरत्रयं त्रिदशालयैरभिवन्दितम् ।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ।। 1 ।।

पञ्च- पादप-पुष्पगन्धि-पदाम्बुज-द्वय-शोभितम् ।
भाल-लोचन जात-पावक दग्ध-मन्मथ-विग्रहम् ।
भस्मदिग्ध-कलेवरं भवनाशिनं भवमव्ययम् ।
चन्द्रशेखरमाश्रये० ॥ 2 ॥

मत्तवारण-मुख्यचर्म-कृतोत्तरीय-मनोहरम् ।
पङ्कजासन-पद्मलोचन-पूजिताङ्घ्र- सरोरुहम् ॥
देवसिद्ध-तरङ्गिणी-कर-सिक्तशीत-जटाधरम् ।
चन्द्रशेखर० ॥ 3 ॥

कुण्डलीकृत-कुण्डलीश्वर-कुण्डलं वृष-वाहनम् ।
नारदादिमुनीश्वरस्तुत वैभवं भुवनेश्वरम् ॥
अन्धकान्तकमाश्रितामर-पादपं शमनान्तकम् ।
चन्द्रशेखर० ॥ 4 ॥

यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजङ्ग-विभूषणम् ।
शैलराज- सुता-परिष्कृत – चारुवाम-कलेवरम् ॥
क्ष्वेडनील-गलं परश्वधधारिणं मृगधारिणम्।
चन्द्रशेखर० ॥ 5 ॥

भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणम् ।
दक्ष-यज्ञ-विनाशनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम् ॥
भुक्ति-मुक्तिफलप्रदं निखिलाघ-सङ्घनिबर्हणम् ।
चन्द्रशेखर० ॥ 6 ॥

भक्तवत्सलमर्चतां निधिमक्षयं हरिदम्बरम् ।
सर्वभूत-पतिं परात्परमप्रमेयमनूपमम् ।।
भूमिवारिनभोहुताशन-सोमपालित-स्वाकृतिम् ।
चन्द्रशेखर० ॥ 7 ॥

विश्व-सृष्टि-विधायिनं पुनरेव पालन-तत्परम् ।
संहरन्तमथ प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम् ॥
क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथ-यूथ-समावृतम् ।
चन्द्रशेखर० ॥ 8 ॥

रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकण्ठमुमापतिम् ।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ।
कालकण्ठं कलामूर्ति कालाग्नि कालनाशनम् ॥
नमामि शिरसादेवं किं नो मृत्युः करिष्यति ।
नीलकण्ठं विरूपाक्षं निर्मलं निरुपद्रवम् ।
नमामि शिरसा देवं, किं नो मृत्युः करिष्यति ।
नमामि शिरसा देवं, किं नो मृत्युः करिष्यति ।
देवदेवं जगन्नाथं देवेशं बृषभध्वजम् ।
नमामि शिरसा देवं, किं नो मृत्युः करिष्यति ।
अनन्तमव्ययं शान्तमक्षमालाधर हरम् ।
नमामि शिरसा देवं, किं नो मृत्युः करिष्यति ।
आनन्दं परमं नित्यं कैवल्य पदकारणम् ।
नमामि शिरसा देवं, किं नो मृत्युः करिष्यति ।
स्वर्गापवर्ग दातारं सृष्टिस्थित्यन्तकारणम् ।
नमामि शिरसा देवं, कि नो मृत्युः करिष्यति ।

ankush

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