श्रीशिव का अष्टमूर्ति स्वरूप भाग-3
श्रीशिव का अष्टमूर्ति स्वरूप का आगे का भाग इस प्रकार है
25. शिव डमरु — विश्व या भूमंडल में खाल, तार और फूक के तीन उत्पन्न होते हैं और पापी दमनाद् दण्डनाच्चैव तस्माद् दण्डं विदुर्बुधाः ।।
तरह के वाद्य यन्त्र है । यह उन सबका प्रतिनिधित्व करता है—वाद्य-ध्वनि या लय से सर्प मृग हस्ती आदि भी झूमने लगते है तो फिर मानव तो अति संवेदनशील होने से इस ध्वनि से मुग्ध सा होकर स्थूल-जगत् को भूल कर आत्म-तत्त्व में रम जाता है । वाद्य-ध्वनि से काटे सर्प का इलाज होता है। शङ्खखध्वनि से गौ आदि दूध ज्यादा देती हैं और वर्षा के समय गिरने वाले ओले भी बन्द हो जाते हैं । नृत्य को चरम रूप पर पहुँचाने वाला वाद्य यन्त्र ही है। मेघध्वनि से हर्षित मयूर नृत्य करता है और शेर दहाड़ मारता है अर्थात् डमरु बजने पर समस्त जीव जगत् में एक विशेष स्थिति और आनन्द का बोलबाला रहता है। शिव नटराज है, नृत्य में इनका कोई जोड़-तोड़ नहीं है, आज के युग के कैबरे, डिस्को, भाँगडा, घूमर आदि नाना प्रकार के देश-प्रदेशों के नृत्यों का समावेश इस डमरु ध्वनि और नृत्य में होता हैं।
26. धरती पर जो ‘घर जँवाई’ का प्रचलन चला या ‘श्वशुर-गृह- निवासो स्वर्ग तुल्यो नराणाम्’ कह कर ससुराल का महत्त्व बताया, यह सब शिव के अर्थात् शिव और विष्णु दोनों ही अपने अपने ससुराल में निवास करते हैं। यही कारण है कि ज्यादातर लोग ससुराल से कुछ ज्यादा ही प्यार करते हैं तो कुछ शत्रुता भी रखते हैं जैसे शिव और दक्ष प्रजापति (श्वशुर) की शत्रुता रही श्वशुर दक्ष को जामाता शिव फुटी आँख नहीं सुहाता था तो शिव ने भी न केवल दक्ष को अपितु उसके सहयोगियों तक को दण्ड दिया, स्पष्ट है। इस प्रकार शिव का यह रूप भी पृथ्वी पर देखने को मिलता है।
27. शिव जी ने दो विवाह किये, यहाँ धरती पर भी यह बात सामान्य 28. शिव ने दो ही पुत्र पैदा किये ज्यादा सन्तान पैदा नहीं की (रामादि भी दो पुत्र ही पैदा किये— कृष्ण इसके अपवाद रहे— पाण्डवों ने तो एक-एक ही पुत्र पैदा किया— द्रौपदी के पाँच पुत्र थे) शायद धरती पर यही कारण रहा कि पुत्र सन्तान ठीक है तथा एक दो सन्तान ही ठीक है— लड़की न हो तो ठीक है यह भावना मूर्तरूप से लोगों के मन में बैठ गई। इसका एक अर्थ यह भी (अपवाद छोड़कर क्योंकि अपवाद सभी जगह होते हैं) निकलता है कि धनी और ऐश्वर्यवान् लोगों के सन्तान कम होती हैं या बहुत उपाय या प्रयास से होती हैं (जैसे दशरथ के राम) जब कि दरिद्रों के यहाँ अनचाही और बहुसंख्य सन्तानें जन्म लेती हैं अर्थात् पुण्यशील लोग ही दूसरे जन्म में धनियों के यहाँ उत्पन्न होते हैं और पापी लोग दरिद्रों के ।
चूँकि धर्मशास्त्रों में ‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति‘ अथवा ‘पुं नामकात् नरकात् त्रायते इति पुत्रः’ लिखा होने से पुत्रैषणा और पुत्र के प्रति मोह होना स्वाभाविक है, साथ ही पुत्र होने से पितृ ऋण से भी छुटकारा मिलता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का यह भौतिक शरीर उसके अपने पिता तथा पूर्वज पितृ गणों के अंश से बनता है और यह स्थिति सातवीं पीढ़ी तक सूत्रात्मक सम्बन्ध रखती है. इसका दूसरा पहलू भी विचारणीय है क्योंकि लिखा है- ‘पुत्रास्ते यत्र पितरो भवन्ति’ अर्थात् पुत्र ही अपने पिता का पिता बन जाता है बचपन में जिस प्रकार पिता अपने पुत्र का पोषण, रख-रखाव, देखरेख और सेवा-शुश्रुषा करता लगभग जन्म से या दस वर्ष तक। वैसे ही पुत्र का कर्तव्य है कि वृद्धावस्था अशक्त एवं अस्वस्थ पिता की हर प्रकार की सेवा-शुश्रूषा करे उदाहरणार्थ- श्रवण, श्वेतकुतु, परशुराम आदि । अर्थात् पुत्र की सेवा के कारण पिता- नारकीय स्थिति से बच सकता है शायद यहां पुम् नामक नरक की बात रही हो । वर्तमान में माता-पिता तो फिर भी उत्तरदायित्व निभा रहे हैं किन्तु पुत्र अपनी परीक्षा में तथा आत्मिक सम्बन्ध रखने में कितना सफल रहेगा यह समय की गोद में है ।
29. शिव की दोनों पत्नियाँ सती तथा पार्वती दोनों ही अत्यन्त पतिव्रता थीं—एक ने तो केवल पति के अपमान को सहन न कर (क्योंकि अपमान को मृत्यु ही कहा है) अपना शरीर भस्म कर दिया (शायद तभी से सती-प्रथा चली हो) जब कि दूसरी ने कितना कठोर तप किया एवं अन्य प्रलोभनों को परित्याग कर केवल एक पुरुष शिव का ही वरण किया देखें (रामचरित मानस एवं कुमार संभव महाकाव्य)। इस प्रकार भूमण्डल की नारियों में व्याप्त स्वेच्छाचार पर रोक लगाने और पातिव्रत्य धर्म की स्थापना में इन दोनों (सती तथा पार्वती) ने महती भूमिका निभाई है क्योंकि दोनों ही समझती थीं कि
नास्ति भर्तृसमो नाथो नास्ति भर्तृ-समं सुखम् ।
विसृज्य धन- सर्वस्वं भर्ता वै शरणं स्त्रियाः ॥ (महाभारत)
‘अपत्य-पोषणे’ गृह कर्मणि, शरीर-संस्कारे
शयनावसरे स्त्रीणां स्वातन्त्र्यं नान्यत्र (भागुरि) ।
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।
पुत्रो रक्षति वृद्धत्वे, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति । (मनुस्मृति)
अमित दान भर्ता वैदेही । अधम सो नारि जो सेव न तेहि ।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिख अहिं चारि ॥
एकई धर्म एक व्रत नेमा । काय वचन मन पति पद प्रेमा ।।
पति वंचक परपति रति करई । रौरव नरक कल्प सत परई ।
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई। विधवा होई पाई तरुणाई । (रामचरित मानस अरण्यकाण्ड)
पहले जमाने में स्त्रियाँ भी यज्ञोपवीत पहनती थीं। यम-स्मृति में लिखा है— ‘पुरा कल्पे तु नारीणां, मौञ्जी बन्धनमिष्यते’ इसके अतिरिक्त वेद के अनेक सूक्तों की दृष्ट्री ऋषिका स्त्रियाँ हैं । पाणिनि ने वेद पढ़ाने वाली स्त्री केा आचार्या तथा आचार्य की पत्नी के लिए ‘आचार्यानी’ शब्द का प्रयोग किया है । उक्त बातें नारी महिमा पर पर्याप्त प्रकाश डालती हैं।
इससे ठीक विपरीत अधम नारियाँ भी होती है, जो ‘ढोल गँवार शूद्र पशु नारी । ये सब ताड़न के अधिकारी’ की श्रेणी में आती हैं अथवा
सासू के देखे सिंहनी सी जमुहाई लेत
ससुर के देखे बाघिनी-सी मुँह बावती ।
ननद के देखे नागिनी सी फुफकारै बैठि ।
देवर के देखे डाकिनी सी डर पावती ॥
भाषत प्रधान मूँछ जारति परोसन की ।
खसम के देखे खाऊँ खाऊँ करि धावती ॥
कर्कशा कसाइनि कुबुद्धिनी कुलच्छिनी ।
ए करम के फूटे घर ऐसी नारि आवती ।
30. मुण्डमाल – अभिन्न शक्ति भवानी के पूर्व जन्म के सिरों को प्रेमवश गले में धारण-पृथ्वी पर पत्नी-प्रेमाधिक्य अर्थात् शिव अजन्मा, अजर अमर हैं। जब कि पार्वती को पहले और भी जन्म लेने पड़े, अतः पार्वती ने अमर कथा सुनी-इसके बाद इन्हें जन्म नहीं लेना पड़ा। (किंवदन्ती के अनुसार) ।
31. मैंने शिव-पृथ्वी की एकरूपता की वकालत प्रारम्भ करते हुए प्रतीकता की बात की थी— इसी बात का थोड़ा खुलासा यों है—
1. गजग्राह-कथा में गज मानव-मन है और ग्राह विषय-वासना है और इस ग्राह से छूटते ही भगवत्तत्त्व या आत्मतत्त्व की प्राप्ति सुलभ है
2. ध्रुवकथा में उत्तानपाद जीवात्मा, सुनीति, सुरुचि, मानव-मनोवृत्तियाँ, उत्तम अंधकार, ध्रुव-प्रकाशक निश्चिन्ता ।
3. समुद्र-मंथन में समुद्र हृदय है, मथानी मन्दराचल बुद्धि है, वासुकि नाग इन्द्रियाँ विषय वासना है जो बुद्धि से लिपट कर हृदय को मथ देती हैं और जब विषय वासना का काल कूट बाहर निकल जाता है तो क्रमशः लाभ होने लगता है और अन्त में अमृत की प्राप्ति हो जाती है लेकिन यह सब भगत्कृपा और सहयोग से ही संभव है, स्पष्ट है इसमें श्रीविष्णु, श्रीशिव, ब्रह्मा आदि का पूर्ण सहयोग रहा अर्थात् विश्वास, भक्ति के प्रबल संकल्प से हृदयरूपी समुद्र का आलोडन करने से जीव परमात्मा सम्मुख आ जाता है और हजारों पाप नष्ट हो जाते हैं एवं जीव का उद्धार हो म-स्मृति में लिखा जाता है। इसी परम्परा के अनुशीलन मे विचार करें तो श्रीशिव (पृथ्वी) ने अतिरिक्त वेद के अपने बड़े पुत्र कार्तिकेय को देवताओं का सेनापति बना दिया और गणेश छोटे को प्रथम पूज्य गणनायक (पार्टी का मुखिया) बना दिया। कहावत आँधा बाँटे सीरनी, घर घर में ही देय।” अथवा इसे हम यों भी देख सकते हैं-जैसे आज कल नेता लोगों में वंशवाद, जातिवाद, पुत्रवाद भाई-भतीजावाद का बोल बाला चल रहा है। शायद इस बात को शिवजी ने। इस पृथ्वी पर पहले ही पनपा दिया था । अस्तु, हम यहाँ थोड़ा गणेश के प्रतीक । अर्थ पर प्रकाश डालें तो किसी को भी डगमगाना न पड़ेगा- भगवान् ईश्वर प्रशासन एवं अनुशासन बनाए रखने के लिए अपने दोनों पुत्रों (आत्मैव जायते पुत्रः – इनसे बढ़कर अनुकरणीय विश्वसनीय आसीन किया अर्थात् सेनापति तथा दल का नेता कैसा हो? तो स्वरूप ध्यातव्य एवं आज्ञाकारी कौन हो सकता है ?) को क्रमशः सेनानी और गणपति पद पर है-
1. सेनापति तेजस्वी तथा शक्ति सम्पन्न हो (कार्तिकेय का आयुध मात्र शक्ति है)। केवल सात दिन की अवस्था में ही तारक जैसे दुर्दान्त दानव के मारक बन गये अर्थात् शीघ्र से शीघ्र शत्रु को समाप्त करना आवश्यक है क्योंकि ‘जातमात्रं च शत्रुञ्च व्याधिञ्च प्रशमं नयेत्’ फिर समान ताकत वाले के लिए लिख है— ‘तुल्य-बले तु बलवान्परिकोपमेति’
कौशेयं कृमिजं सुवर्णमुपलाद्दूर्वापि गोरोमत:,
पङ्कात्तामरसं शशांक उदधेरिन्दीवरं गोमयात् ।
काष्ठादग्निरहे: फणादपि मणिर्गोपित्ततो रोचना ।
प्राकाश्यं स्वगुणोदयेन गुणिनो गच्छन्ति किं जन्मना ॥ पञ्चतन्त्र ( मित्रभेद)
अथवा — हस्ति स्थूलतरः स चाकुशवशः किं हस्तिमात्राङ्कुशो, दीपे प्रज्वलिते प्रणश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः कारक वज्रेणापि हताः पतन्ति गिरयः किं वज्रमात्रो गिरिः । तेजो यस्य विराजते स बलवान् स्थूलेषु कः प्रत्ययः ।
2. सेनानी षण्मुख और नीचे तथा ऊपर पृथ्वी और आकाश सभी छ: दिशाओं में जो मुख रख सके, (चौकन्ना सावधान रहने वाला) वही सच्चा सेनापति है ।
3. परिवार प्रतिष्ठित हो अर्थात् सेनानी का Back ground उत्तम हो ।
4. मयूर वाहन जो थल नभ में गतिमान् रह सके, दुष्टों रूपी सर्पों को निगल सके, जीतने पर जश्न व नृत्य कर सके।
1. गणपति दलपति (पार्टी का नेता) का स्वरूप (प्रतीकार्थ) द्रष्टव्य है— कहा गया है— पहला सुख निरोगी काया, दूजे धन, तीजे माया अर्थात- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्’
(i) पुष्ट मजबूत एवं लालिमा वाला कान्तिमान् स्थूल (भारी शरीर वाला नेता होना चाहिये जिसके शरीर को देखने मात्र से सामने वाला भयभीत एवं प्रभावित हो जावे अर्थात् स्वस्थ शरीर वाला हो ।
(ii)हाथ में लड्डु-अर्थात् गरिष्ठ भोजन को पचाने वाला — लड्डु तभी बन सकते है जब घर में गो महिषी हो खेती-बाड़ी हो— अतः जमीन जायदाद तथा पशुधन रखने वाला हो ।
(iii) बड़ा (हाथी का ) सिर—कहावत है— सिर बड़ा सरदार का, पैर बड़ा पलदार का । अर्थात् विशाल प्रशस्त भव्य ललाट वाला एवं बुद्धिमान् हो।
(iv) बड़े कान शूर्पाकार (छाज जैसे) = अर्थात् कानों का कच्चा न अच्छी बुरी सभी बातों को धैर्य एवं शान्ति से सुनने वाला हो।
(v) गजाक्ष (महीन आँखे) = छोटी आँखों वाले दूर तक देख सकते है- उदाहरण-गोरखा नेपाली लोग) अर्थात् दूरदर्शी एवं परिणाम-दर्शी हो ।
(vi) एकदन्त—मिलनसार हो कहावत है, वह तो सभी से ‘एक दाँत कटी रोटी खाने वाला है’- योग्यतानुसार लोगों से व्यवहार करने वाला हो त्र (मित्रभेद) त्या ‘समानी वः प्रपा’ तथा ‘सह नौ भुनक्तु’ अर्थात् वैदिक व्यवस्था का पालन को समयानुसार न अपनाने वाला हो ।
vii) लम्बी नाक—समाज में इज्जतदार प्रतिष्ठित तथा बात का धनी हो ।
(viii) हाथ में पुस्तक— अध्ययनशील, आद्योपान्त जानकारी रखने वाला अर्थात् पढ़ा लिखा विद्वान्-सूचना और जानकारी इकट्ठी करने में माहिर हो । पुस्तकालयों एवं वाचनालयों से जुड़ा हो।
(ix) हाथ में अङ्कुश — अस्त्र-शस्त्र विद्याओं का ज्ञाता, हथियारों से युक्त हो। सैनिकों तथा अस्त्र-शस्त्रों के भण्डार से सम्पन्न हो ।
(x) हाथ में कमलपुष्प — कमल जैसे कीचड़ में पैदा होकर भी अलग है वैसे ही कीचड़ रूपी बुराइयों (सुरा-सुन्दरी) से परे, पक्षपात-रहित, जनक की तरह संसार में रहकर भी ईश्वर-चिन्तन में लगा हुआ, उपवन-कला-सौन्दर्य का प्रेमी हो तथा पर्यावरण- रक्षक हो ।
(xi) अभय-मुद्राधारी— दीन दुःखियों शरणागतों का अभय देने वाला, न्यायप्रिय ।
(xii) पारिवारिक पृष्ठभूमि सुदृढ़ हो— स्पष्ट है।
(xiii) मूषक वाहन – चूहे की आदत कुतरने की, अच्छी वस्तुओं को नष्ट करने की होती है, उसी प्रकार समाज कण्टक आतङ्ककवादी उग्रवादी जो समाज में चूहे की तरह हैं, ऐसे लोगों पर बैठने वाला सवारी करने वाला, दबाने वाला नेता होना चाहिये।
(xiv) विघ्न विनाशक—किसी भी प्रकार की कोई भी बाधा/रुकावट हो । उसे हाथी की तरह रौंदता चला जावे फलस्वरूप ऋद्धि-सिद्धि वाला हो।
(xv) लम्बोदर—बड़े पेटवाला अर्थात् छोटी मोटी सभी बातों घटनाओं को तूल न देकर सामान्य-भाव से ग्रहण करने वाला, पचाने वाला हो ।
(xvi) प्रथम पूज्य—जहाँ भी जावे सबसे पहले सम्मान पाने वाला हो। (xvii) चार हाथ— जिसका दबदबा प्रभाव चारों तरफ हो, जिसकी निगाह से कोई बच न सके ।
(xviii) कल्पभेद से ‘राम’ लिख कर परिक्रमा करने से तथा ‘शिवपार्वती की प्रदक्षिणा करने से सर्वप्रथम पृथ्वी परिक्रमा श्रीगणेश ने की और ये प्रथम पूज्य हुए ऐसी दो तरह की कथाएँ मिलती हैं। दोनों से ही स्पष्ट है कि नेता माता-पिता का भक्त और ईश्वर – विश्वासी (विष्णु-शिव-भक्त) होना चाहिये