श्रीशिव का अष्टमूर्ति स्वरूप भाग -2
श्रीशिव का अष्टमूर्ति स्वरूप का आगे भाग इस प्रकार है
11. रुद्राभिषेक से धन-धान्य सन्तान दीर्घायु प्राप्त होती है अर्थात् पृथ्वी पर निरन्तर समय-समय पर सिंचाई होती रहे तो प्रभूत धान्य फल पुष्पादि उपलब्ध होंगे—खाने वालों का शरीर तो पुष्ट होगा ही, मन भी प्रसन्न रहेगा। । गवय श्रृंग से शिव अभिषेक महान फलदायी है। ऐसी स्थिति में रुद्राभिषेक से होने वाला लाभ स्पष्ट है। श्रावण मास उदाहरण है
12. चिता-भस्म शरीर पर लगाने का अभिप्राय पृथ्वी पर खाद डाला जावे । स्पष्ट है। क्योंकि चिताभस्म अनुपयोगी है वैसे ही कूड़ा खाद समझें |
13. वृषवाहन-वृष धर्म को कहते हैं तथा बैल को कहते हैं। वैसे मनु जी ने धर्म के दश, उपनिषदों में तीन, भागवत में चार, रामचरितमानस में सात तथा पञ्चतन्त्र में— इज्याध्ययन-दानानि तपः सत्यं क्षमा दमः । अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः’ कह कर आठ रूप बताये हैं। धर्म के मूल शङ्कर हैं । शङ्कर का अर्थ कल्याण है धर्म का मूल कल्याण है अत: अपना कल्याण हो तथा समाज का कल्याण हो अर्थात् सत्कर्म-धर्म-यज्ञ हवन इष्टापूर्त कार्यों से पृथ्वी पर कार्य सुचारु और शान्त-भाव से चलते रहे अर्थात् धर्म ही पृथ्वी को वहन करता है । दूसरे, जिसके पास प्रचुर मात्रा में वृष (बैल) होंगे जमीन को वहन (बाह जोत) कर सकता है और जमीन का / अधिकारी/सवार होता है, अत: पृथ्वी ही वृष-वाहन है । जो नन्दी के न शिव ईश्वर या पृथ्वी को आनन्द देकर एक पैर उठाये अर्थात् सतत कार्य तत्पर होकर नन्दीश्वर हैं और धर्म तथा बैल का प्रतिनिधित्व करते हैं । नन्दी (धर्म) ही शिव (ईश्वर) को समीप ला सकता है। ईश्वर (शिव) भी नन्दी (धर्म) के साथ प्रसन्न रहता है। नन्दी ही शिव को सहने में सक्षम है।
14. भाल पर चन्द्र का होना— पृथ्वी के निकट यही उपग्रह है जो धरती अमृतता = शान्ति देता है । माथे पर धान्य तथा औषधियों को पुष्टता शीतल वस्तु या पदार्थ का लेप मस्तिष्क को उग्रता/ताप से बचाकर रखता है कहावत भी है कि ‘जरा ठंडे माथे से विचार कर बात करना’ स्पष्ट है चन्दन का लेप माथे पर शान्त्यर्थ लगाया जाता है । चन्दन, चन्द्र, कर्पूर सभी मानव जगत् को प्रिय हैं, अतः पृथ्वी /शिव ने चन्द्र को अपने पास रखा है— शीतलता देने में चन्द्र ही प्रधान है।
15. शिव का जटाजूट ही पृथ्वी पर वनस्पति-जगत्, तृण आदि है जिसे निरन्तर जल चाहिये इसीलिए गङ्गाजी शिव की जटा पर डटी हुई हैं और ये जटाएँ आज के पर्यावरण को वरण किये हुये हैं अर्थात्-पेड़-पौधों से पर्यावरण शुद्ध होता है । वृक्षारोपण के विषय में अग्निपुराण में कहा है-
दश-कूप- समावापी, दशवापी समोहदः ।
दश-ह्रद-समा कन्या, दशकन्या- समो द्रुमः ।।
16. पृथ्वी ही समस्त चराचर का उत्पत्ति स्थल है अर्थात् जलहरि में शिवलिङ्ग मैथुनी सृष्टि तथा अर्धनारीश्वर रूप का पृथ्वी के साथ वैसे ही तादात्म्य सम्बन्ध बना हुआ है जैसे जल और दूध का अभिन्न रूप । दाम्पत्य मङ्गलमय बनाने हेतु समाज से मान्यता एवं रीति-रिवाजों के साथ वैदिक मन्त्रों से विवाह-संस्कार का वर्णन ( शिव-पार्वती-विवाह रामचरित मानस बालकाण्ड में) मिथुन-भाव को प्राप्त पृथ्वीरूप शिव के लिए अत्यन्त सटीक है। नारी के बिना नर अधूरा है । जीवन-चक्र के दो पहिये बिना पंचर हुए चलें तथा नारी का इस पृथ्वी पर क्या महत्त्व है ? निदर्शन मिलता है। समाज शास्त्र के आचार्य मनु महाराज ने ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते, जब कि महाभारतकार ने तो इस बात पर एक सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः । कहा लक्ष्मण-रेखा ही खींच दी है और पत्नी-प्रशंसा में अनुशंसा की शृङ्खला खड़ी कर दी है-
न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमुच्यते ।
गृहं तु गृहिणी हीनमरण्य-सदृशं मतम् ।
सा भार्या या गृहे दक्षा, सा भार्या या प्रजावती ।
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता ।
अर्धभार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतमः सखा ।
भार्या मूलं त्रिवर्गस्य भार्या मूलं तरिष्यतः ॥
भार्यावन्तः क्रियावन्तः, सभार्या गृहमेधिनः ॥
भार्यावन्तः प्रमोदन्ते, भार्यावन्तः श्रियान्विताः ॥
सखायः प्रविविक्तेषु भवन्त्येताः प्रियंवदाः ।
पितरो धर्मकार्येषु भवन्त्यार्तस्य मातरः ।।
कान्तारेष्वपि विश्रामो, जनस्याध्वनिकस्य वै ।
यः सदारः स विश्वास्यस्तस्माद् दारा परागतिः ।
नास्ति भार्या समो बन्धुर्नास्ति भार्या समा गतिः ।
नास्ति भार्या समो लोके, सहायो धर्मसंग्रहे ।
ऐसी भार्या का बल बताते हुए लिखा है—
राज्ञां हि बलमैश्वर्यं, ब्रह्म ब्रह्मविदां बलम् ।
रूप-यौवन-सौभाग्यं, स्त्रीणां बलमुत्तमम् ॥
श्रीवशिष्ठ जी के मत में-
स्वर्गाय धर्मपात्रं च, कार्य पात्रमिह स्मृतम् ।
काम-पात्रं निजा कान्ता, लोकद्वय-प्रदायकम् ॥
आचार्य वल्लभदेव कहते हैं—नीतिवाक्यामृत से
प्रभूतमपि चेद् वित्तं, पुरुषस्य स्त्रियं विना ।
मृतस्य मण्डनं यद्वत् तत्तस्य व्यर्थमेव हि ॥
अर्थात् स्त्री के न होने पर सम्पूर्ण धन ही व्यर्थ है। इसी परम्परा को प्रश्रय देते हुए गर्ग मार्ग-दर्शन देते हैं कि इस संसार में मनुष्य जो कुछ करता है स्त्रियों के सुखार्थ करता है ।
कृषि सेवां विदेशं च युद्धं वाणिज्यमेव च ।
सर्वं स्त्रीणां सुखार्थाय स सर्वो कुरुते जन: ।। (नीतिवाक्यामृत से)
अन्य मत से—यस्य भार्या शुचिर्दक्षा भर्तारमनुगामिनी । नित्यं मधुरवक्त्री च सारमा न रमा रमा । अन्य आचार्य के मत से – वंशविशुद्ध्यर्थमनर्थ- परिहारार्थं स्त्रियो रक्ष्यन्ते न भोगार्थम् ।” इस प्रकार शिव-शिवा का अभिन्नरूप इस पृथ्वी पर ‘लिङ्गाङ्काश्च भगाङ्काश्च तस्मान्माहेश्वरी प्रजाः’ के रूप में प्रत्यक्ष है । आज के भगवान् रजनीश आदि भोग से समाधि की ओर बात कहकर आधि-व्याधि बढ़ाते हुए बरबादी का राग अलाप रहे है।
17. इस धरती पर एक सर्वविदित तथ्य है ‘प्रायेण भूमिपतयो प्रमदा लताश्च, यत्पार्श्वतो भवति तत्परिवेष्टयन्ति’ अथवा जो हर तरह से हर परिस्थिति में सहायता या सेवा करता है प्राय: वह उस व्यक्ति को ठीक अपने-समान ही लगता है और वह अपने अधिकार भी प्रायः उसे दे देता है। यही बात कुछ इनके हरिहर-रूप की (जो क्षितिज धरती आकाश जहाँ मिले हुए दिखाई देते हैं अथवा सोमो वै विष्णुः (जल) समुद्र से परिवेष्टित पृथ्वी है) बाल की खाल निकालता है। धरती पर क्षितिज एवं समुद्र भी शिव-रूप है।
18. भारतीय परिवार में घर के बड़े ही समस्त उत्तरदायित्व निभाते हैं। यही कारण था कि समुद्र-मन्थन से प्राप्त कालकूट महाविष को कण्ठ में रख कर शिव ने नीलकण्ठ नामकरण कराया क्योंकि उन्हें भाँग, धतूरा, आक, तमाखू, साँप (सभी विषैले नशीले) घोट कर खाने और लपेटने का गहरा ही चाव या फैशन अपनाने सरा-सेवन करने का। अस्तु। यह इस बात का प्रतीक है कि शौकीनी रही जैसे आज के युवक-युवतियों को गुटके खाने और नई-नई विकृत विषवत् विकृति फैलाने वाली समाज में पृथ्वी पर काम क्रोध लोभ आदि बुराई विभिन्न रूपों में (तमाखू, आक, धतूरा, भाँग सर्प कालकूट आदि) व्याप्त है जो नीलकण्ठ के विष की तरह प्रत्यक्ष है जिसे आत्मसात् करना या पचाना ही अत्यन्त कठिन है जैसे एक बार लगी बुराई कभी पीछा नहीं छोड़ती और की तरह लिपटी सिमटी अटपटी होती हुई परिपाटी को हटा नहीं सकती।
श्री शिव ने कण्ठ में विष धारण कर मानों यह बहुत पहले ही सिद्ध कर दिया जिसे हम ‘गुरुत्त्वाकर्षण सिद्धान्त’ कहते हैं वह यजुर्वेद पुरुषसूक्त मन्त्र ‘नाभ्यासीदन्तिरक्ष’ के अनुसार परमपुरुष के शिर से आकाश, पैरों से पृथ्वी एवं नाभि आदि धड़भाग से अन्तरिक्ष का निर्माण हुआ— ध्यान दें गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी और आकाश के बीच अन्तरिक्ष में स्थित वस्तु वहीं की वहीं स्थिर रहती है और शायद यही कारण रहा कि विष पृथ्वी (पेट तथा पैरों की ओर न जाकर) कण्ठ में ही स्थिर हो गया। वाह रे भोले बाबा ! तेरी भी क्या लीला है ? श्रीशिव ने हलाहल विष को धारण कर अपने दैवी गुण एवं ईश्वरीय गुण की त्रिवेणी बहाकर उन मानवों के लिए यह मिसाल पेश कर दी है—
जो मरद हैं रिश्वत नहीं लेते, नहीं देते।
इन साफ कीमत नहीं लेते, नहीं देते ॥
हर सूरत खुश देख के, भरते नहीं आहें ।
कब्जे में जिगर रखते, काबू में निगाहें ॥
19. पञ्च महाभूत (जो स्थूल हैं) दश इन्द्रियाँ एक मन कुल 16 मिलकर शरीर होता है— ‘शरीरं श्रयणाद् भवति मूर्तिमत् षोडशात्मकम्। तमाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मणा’ (महाभारत) और यही शरीर रामचरित मानस मत से ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंचरचित यह अधमशरीरा इस प्रकार यही शरीर पृथ्वी पर अष्टमूर्ति रूप का भाग ही विराजता है ।
20. शिव का काम दहन करना पृथ्वी-वासियों के लिए आवश्यक था क्योंकि कहा है—‘कामासक्तस्य नास्ति चिकित्सितम्’ या ‘कामातुराणां न भयं न लज्जा’ ।
“काम एष क्रोध एष रजोगुण-समुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥ ( श्रीमद्-भगवद्गीता)
21. कुबेर मित्र (धनाधिकारी) — इस बात से मित्र कैसा हो ? तथा पृथ्वी पर धन क्यों आवश्यक है ? जाना जा सकता है । यद्यपि धन के विषय हर तरह से कष्ट ही कष्ट बताया है—‘अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थाः कष्ट-संश्रयाः ।’ सर्वप्रथम मित्र को in need is a friend indeed’ | अब धन महत्ता पर विचार करें-‘सर्वे पहचानें— ‘तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यद्।’ (नीतिशतक) या ‘A friend गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति’ अथवा ‘दादा बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया’ अथवा टका कर्म टका धर्म:, टकाहि परमं तपः । यस्य पार्श्वे टका नास्ति, हाटके टक्टकायते।’ पञ्चतन्त्र भी इसकी पञ्चायती करता है—’यस्यार्थास्तस्य मित्राणि’ यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः । यस्यार्थाः स पुमाँल्लोके, यस्यार्थाः स च पण्डितः ।’ महाभारत शान्ति पर्व भी शान्ति से ऐसा ही कहता है-“धर्मः कामश्च स्वर्गश्च हर्षः, क्रोधः, श्रुतं दमः । अर्थादितानि सर्वाणि प्रवर्तन्ते नराधिप। धनात्कुलं प्रभवति, धनाधर्मः प्रवर्धते । नाधनस्यास्त्ययं लोको, न परः पुरुषोत्तम।” अर्थात् धनवालों का ही सर्वतोमुखी बोलबाला है और गरीबों का मुँह काल बों के लिए पर) है—इसीलिए किसी ने कहा- ‘अपुत्रस्य गृहं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता ।’ अथवा ‘उन्नम्योन्नम्य तत्रैव, निर्धनानां मनोरथाः । हृदयेष्वेव लीयन्ते विधवा स्त्री स्तनाविव । वास्तव में इस गरीबी के सामने सभी शास्त्रीय न्याय (मात्स्य, बटेर, घुणाक्षर, काकतालीय एवं अजाकृपाणीय) भी अपनी रीतिनीति से विपरीत होकर मुँह ताकते रह जाते हैं और कोई न्याय नहीं कर पाते। गरीबी से घबरा कर कवि काकवत् चिल्ला उठा-‘दग्धं खाण्डवमर्जुनेन बलिना रम्यं द्रुमैर्भूषितम् । दग्धा वायुसुतेन हेम, नगरी लङ्का पुनः स्वर्णभूः । दग्घो लोक-सुखो हरेण मदन: कि तेन युक्तं कृतम्, दारिद्र्यं जन-ताप-कारकमिदं केनापि दग्धं नहि ।’ अस्तु, लेकिन यह भी प्रसिद्ध है कि गरीब और निर्बल के बल राम (ईश्वर) होते हैं। श्रीशिव एवं कुबेर इन सब तथ्यों से पूरे परिचित होकर ही ऐसी मित्रता निभा रहे हैं। जबकि हरिहर रूप में इसके विपरीत गरीब सुदामा मित्र है ।
22. शिव परिवार के सदस्यों तथा वाहनों में परस्पर रूठने और के लिए कलहबाजी की कलाबाजी ने ही यहाँ (पृथ्वी) पर कालाबाजारी चला रखी है। कामातुर वर्णन मिलता है कि पार्वती कृष्णवर्णा थी इस पर शिव ने उन्हें काली कलूटी की गाली दे डाली और रुष्टा भवगती तप कर गौरवर्ण को प्राप्त हुई । उस समय एक मृगेन्द्र (शेर) ने इनकी देखभाल तथा रक्षा की जिससे प्रसन्न हो देवी ने सिंह को वाहन बना लिया। (देवी भागवत)। दूसरे शिव ने बाणासुर के पक्ष में श्रीकृष्ण के साथ युद्ध किया (अर्थात् पहले भी आज की तरह | पक्ष-विपक्ष की लड़ाई थी) तीसरे कीर्तिकेय और गणेश में कलह हुआ जिस रूठकर कार्तिकेय श्रीशैल पर्वत पर चले गये और उन्हें मनाने गये अर्जुन नाम भील (शिव) तथा मल्लिका (भीलनी पार्वती जी) श्री शैल पर ही मल्लिकार्जुन नाम से रह गये । चौथे इन सब के वाहनों के बारे में किसी कवि ने लिखा है—
“अत्तुं वाञ्छति शाम्भवो गणपेतराखुं क्षुधार्तः फणी:,
तं च क्रौञ्चरिपोर्गिरिसुता सिंहोऽपि नागाशनम् ।
इत्थं यत्र परिग्रहस्य घटना शम्भोरपि स्याद् गृहे,
तत्रान्यस्य कथं न भावि जगतो यस्मात् स्वरूपं हितत् ।।
अर्थात् गणेश जी के चूहे को शिव जी का सर्प और सर्प को कार्तिकेय का मोर तथा मोर को माता श्रीपार्वती जी का सिंह गटकनारायण करना चाहता है अर्थात् ये परस्पर शत्रुभाव रखते हैं फिर इस पृथ्वी पर क्यों नहीं परिवार के सदस्यों में कलह रहे ? यही पृथ्वी और शिवरूप की साम्यता है।
23. शिव का रुद्ररूप या ताण्डव नृत्य ही पृथ्वी पर भूकम्प रूप में है।
24. शिव का त्रिशूल पृथ्वी पर आध्यात्मिक आधिदैविक आधिभौतिक तापत्रय तथा दण्ड का प्रतीक है—यह न्यायपालिका को अनुप्राणित करता है ‘बिनु भय होइ न प्रीति’ अथवा धर्मस्थापक है ।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति, दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥
दण्डः संरक्षते धर्म, तथैवार्थं जनाधिप ।
कामं संरक्षते दण्डस्त्रिवर्गों दण्ड उच्यते ॥
यस्माददान्तान् दमयत्यशिष्टान्दण्डयत्यपि । (महाभारत स्त्रीपर्व)
विश्व या भूमंडल में खाल, तार और फूक के तीन तरह के वाद्य यन्त्र है । यह उन सबका प्रतिनिधित्व करता है—वाद्य-ध्वनि या लय से सर्प मृग हस्ती आदि भी झूमने लगते है तो फिर मानव तो अति संवेदनशील होने से इस ध्वनि से मुग्ध सा होकर स्थूल-जगत् को भूल कर आत्म-तत्त्व में रम जाता है । वाद्य-ध्वनि से काटे सर्प का इलाज होता है। शङ्खखध्वनि से गौ आदि दूध ज्यादा देती हैं और वर्षा के समय गिरने वाले ओले भी बन्द हो जाते हैं । नृत्य को चरम रूप पर पहुँचाने वाला वाद्य यन्त्र ही है। मेघध्वनि से हर्षित मयूर नृत्य करता है और शेर दहाड़ मारता है अर्थात् डमरु बजने पर समस्त जीव जगत् में एक विशेष स्थिति और आनन्द का बोलबाला रहता है। शिव नटराज है, नृत्य में इनका कोई जोड़-तोड़ नहीं है, आज के युग के कैबरे, डिस्को, भाँगडा, घूमर आदि नाना प्रकार के देश-प्रदेशों के नृत्यों का समावेश इस डमरु ध्वनि और नृत्य में होता हैं।