श्रीशिव का अष्टमूर्ति स्वरूप भाग -1

गुणैः सर्वैः समेतोऽपि वेत्ति कालोचितं न च ।
वृथा तस्य गुणाः सर्वे यथा षण्ढस्य योषितः ॥ (नारद)

अर्थात् जो समय के अनुरूप स्थिति को नहीं पहचानता वह सर्वगुण जङ्गा । सम्पन्न होने पर भी अपने समस्त अच्छे गुणों से निष्फल है जैसे नपुंसक के लिए स्त्रियाँ व्यर्थ हैं। इससे बात साफ होती है कि अभी तक शिव ईश्वर हैं इसकी जमीनी (यथार्थ भौतिक धरातल पर) और लोक प्रत्यक्ष बात अपरोक्ष सी-ही है— यद्यपि हमने अभी तक इस कथन को ही हृदय का हार बनाया हुआ है कि—

“गावो गन्धेन पश्यन्ति वेदैः पश्यन्ति वै द्विजाः ।
चारैः पश्यन्ति राजानः चक्षुर्भ्यामितरे जनाः ।।

अर्थात् जो भी शिव स्वरूप को देखा व समझा सभी स्थितियों में वेदादि सम्। शास्त्रों के आधार पर देखा-अब लोकमत का प्रत्यक्ष रूप और वेदादि शास्त्र वचन दोनों का प्रभुत्व रखते हुए परम सदाशिव के जगत् उपादान/अनुग्रहादि शंभो कृत्य को सामने रखकर वर्गीकरण के तृतीय चरण में अष्टमूर्ति-रूप का अनावरण प्रसी (खुलारूप) प्रस्तुत है—
कविता कामिनी कण्ठहार कवि कालिदास ने अपने नाटकों में सर्वोत्तम कृति अभिज्ञान शाकुन्तलम् के प्रारम्भ में इस विषय को स्पष्ट किया है कि-

(1) जल (2) अग्नि (3) यजमान
या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री ।

(4-5) सूर्य चन्द्र (6) आकाश
ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषय-गुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम् ॥

(7) पृथ्वी (8) वायु
यामाहुः सर्वबीज-प्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः । प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः ॥

ये आठ मूर्तियाँ संसार में प्रत्यक्ष हैं। इन सबसे प्रत्येक चराचर (स्थावर जङ्गम उद्भिज स्वेदज चार प्रकार के सृष्टि जीव) उपकृत एवं रक्षित है। को स्पष्ट करते हुए कि शिव की इन अष्टमूर्तियों के अलावा भी कुछ और है क्या ? ऐसी जिज्ञासा और समाधान के द्वन्द्व का निराकरण आचार्य के शब्दों में-

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह—
स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरम् ।
न विद्मस्तत् तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि ॥

अभिनव गुप्त ने ‘तन्त्रालोक’ में अपने अभिनव प्रयोग प्रस्तुतिकरण के साथ ध्रुव निस्तरङ्ग ज्ञान में तरङ्ग परस्परा को मूर्ति माना है— ‘तस्मिन्धुवे निस्तरङ्गे समापत्तिमुपागतः संविदः सृष्टि धर्मत्वादाद्यामेति तरङ्गिताम् । सैव मूर्तिरिति ख्याता अर्थात् रुद्र जो अव्यक्त तत्त्व है वह व्यक्त होकर अर्थात् सूक्ष्म से स्थूल होकर आठ रूपों में जगत् का संचालन कर रहा है। फलस्वरूप आठ नाग, आठ दिग्गज, आठ ग्रह, आठ भैरव और आठ ही गणपति इनके मत से ‘ शिव की अष्टमूर्तियाँ हैं । लिङ्ग-पुराणानुसार अव्यक्त (पुरुष) प्रधान (प्रकृति/महत्तत्त्व) अहङ्कार और पञ्च तन्मात्रायें ही शिव की अष्ट मूर्तियाँ अथर्ववेद के 15वें काण्ड के प्रथम अनुवाक् के पाँचवें सूक्त में महेश्वर आठ नाम लिखे हैं—–शर्व, भीम, महादेव, रुद्र, पशुपति, भव, उग्र और ईशान ।
गीता की 7वीं अध्याय के चौथे श्लोक में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपनी आठ प्रकृतियों के बारे में बताया हैं जो शिव के अष्टमूर्ति स्वरूप से प्राय मिलती जुलती सी हैं साथ ही शिव विष्णु (कृष्ण) के एकत्व का नारा बुलन्द करती हैं । यथा—


“भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्ककार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥

ब्रह्माण्ड-पुराणानुसार शिव की अष्टमूर्तियों के नाम स्थान एवं कार्य इस प्रकार हैं

1. रुद्र = सूर्य, उदयास्त समय सूर्य नहीं देखना चाहिये क्योंकि तत्कालीन सूर्य का लाल रंग नेत्र दृष्टिनाशक है।
2. भव = जल, इससे प्राणिमात्र की उत्पत्ति तथा स्थिति कही गई है, अत: जल में अमेध्य (अपवित्र पदार्थ) नहीं डालना चाहिये । शरीर में कफ, पित्त, स्वेद, वसा और शोणित जल तत्त्व से बने हैं। जल के गुण छ: कहे हैं।
3. शर्व = भूमि, मार्ग में, वृक्ष छाया के स्थान में खेती की जमीन में-
मल मूत्र करना सर्वथा त्याज्य कहा गया है। पृथ्वी में नौ गुण है त्वचा, मांस, अस्थि, मज्जा और स्नायु शरीर के अङ्ग पृथ्वी तत्त्व है ।
4. ईशान = वायु-प्राण, व्यान अपान समान उदान रूप से शरीर में व्याप्त है ।

वायु के 12 गुण हैं।

“प्राणात्प्रणीयते प्राणी व्यानाद् व्यायच्छते तथा ।
गच्छत्यपानो ऽधश्चैव समानो हृद्यवस्थितः ॥
उदानादुच्छ्वसिति च प्रतिभेदाच्च भाषते ।
इत्येते वायवः पञ्च चेष्टयन्तीह देहिनम् ॥ (महाभारत)

इसके अतिरिक्त नाग, कूर्म, कृकलास, धनञ्जयादि पाँच अन्य भी है ।

5. पशुपति = अग्नि यह पशुरक्षक है, अतः पशुपति है इसके दश गुण हैं। यह पवित्र माना गया है। तेज, अग्नि, उष्मा, क्रोध व नेत्र इस तत्त्व से निर्मित है ।
अग्नेर्दुधर्षता ज्योतिस्तापः पाकः प्रकाशनम् ।
शोको रोगो लघुस्तैक्ष्ण्यं सततं चोर्ध्व-भासिता ।

6. भीम = आकाश-शरीरस्थ छिद्रों से सम्बन्ध है । असंवृतांग मल मूत्रादि कार्य तथा बिना ढके पदार्थों का सेवन न करे । आकाश में भी दश गुण कहे हैं और शरीर में श्रोत्र, नासिका, मुख, हृदय और कोष्ठ पाँच चीजें आकाश तत्त्व से निर्मित है।

7. उग्र = दीक्षित ब्राह्मण/यजमान = इन दोनों की निन्दा करना मना है ।

8. महादेव = चन्द्रमा, संकल्प रूप में निवास, औषधियों की पुष्टि । अमावस्या, पूर्णिमा, ग्रहण आदि पर्व दिन तथा पुण्यकाल
है ।

शतपथ ब्राह्मण काण्ड 6 अध्याय 3 के अनुसार संवत्सराग्नि रूपी वर्ष उषारूपी पत्नी में गर्भाधान करता है तो ‘कुमाराग्नि’ की उत्पत्ति होती है जैसा कि ‘कुमारो नील-लोहित:’ कहा है ।

यही कुमाराग्नि चित्राग्नि भेद से आठ प्रकार की है-रुद्र, सर्व (शर्व) पर्वाग्रह-प पशुपति, उग्र, अशनि (भीम), भव, महादेव और ईशान ‘महिम्न:स्तोत्र’ में कुछ ऐसा ही संकेत चेत कर रहा है-

“भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सह महाँस्
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ॥

स्थान निम्नलिखित हैं-

1. अग्नि (भौतिक तेज), 2. अप् (जल), 3. औषधि (पृथ्वी), 4. वायु ( स्पष्ट है), 5. विद्युत् (वैश्वानरानि/यजमान का आत्मा), 6. पर्जन्य (आकाश, 7. सूर्य, 8. चन्द्र (दोनों स्पष्ट हैं) ।

शिवपुराण में अष्ट मूर्तियों का वर्णन इनकी सार्वभौमिकता महत्ता तथा उपादेयता आदि का प्रतिपादन इतना सुन्दर है कि देखते व सुनते ही बनता
है-

“शिवस्यादि-देवस्य मूर्त्यष्टकमयं जगत् ।
तस्मिन् व्याप्य स्थितं विश्वं सूत्रे मणिगणा इव ॥
शर्वो भवस्तथा रुद्र उग्रो भीमः पशुपतिः ॥
ईशानश्च महादेवः मूर्तयश्चाष्ट विश्रुताः ॥
भूम्यम्भोऽग्नि-मरुद्-व्योम क्षेत्रज्ञार्क-निशाकराः ।
अधिष्ठिता महेशस्य सर्वादेरष्टमूर्तिभिः ॥
वृक्षमूलस्य सेकेन शाखाः पुष्यन्ति वै यथा ॥
शिवस्य पूजया तद्वत् पुष्पेत्तस्य वपुर्जगत् ॥
सर्वाभय-प्रदानञ्च सर्वानुग्रहणन्तथा ।
सर्वोपकार करणं शिवस्याराधनं विदुः ॥
देहिनो यस्य कस्यापि क्रियते यदि निग्रहः ।
अनिष्टमष्टमूर्तेस्तत् कृतमेव न संशयः ॥

इस प्रकार आलोचन-समालोचन से यह अष्टमूर्ति रूप “सर्वं शिवमय चैतत् ” (शिवमद्वैतम् ) सिद्ध करता है ।

हम सब इस शस्य-श्यामला पृथु नृप समीकृता (पहले धरती ऊबड़-खाबड़ थी पृथु ने इसे समान की थी) पृथ्वी के निवासी हैं और शिव पृथ्वी-रूप हैं, इस यथार्थ का यथार्थ विश्लेषण संश्लेषण थोड़ा अधिक गम्भीरता से करें तो सत्यता के निकट पहुँच सकेंगे। यह बात बहुत ही स्पष्ट और प्रत्यक्ष है कि जल, अग्नि, वायु, यजमान, सूर्य, चन्द्र और आकाश का पृथ्वी से गहरा सम्बन्ध है अर्थात् पृथ्वी लोक या पृथ्वी के कारण ही इनका महत्त्व और उपादेयता है। – भारतीय संस्कृति में प्रतीकों का बहुत बोलबाला है। इसी क्रम में- पर्वाग्रह-परित्याग के साथ पृथ्वी और शिव का अपार्थक्य रूप ध्यातव्य व द्रष्टव्य है

1. नालन्दा हिन्दी शब्दकोष में शिव शब्द का ‘बालू मिट्टी’ अर्थ बताया और विद्वज्जन तथा सुधीजन के लिए यह अत्यन्त स्पष्ट है कि शिवलिङ्ग-पूजन-आराधन का कितना महत्त्व है । अर्थात् शिव पृथ्वी एक हैं ।

2. पूर्वकाल में देवताओं में सर्वप्रथम किसे पूजा जावे ? इस बात पर विवाद आबाद हो गया — वाद- निराकरण हेतु श्रीशिव के समीप सभी देवगण गये और जो सर्वप्रथम पृथ्वी की परिक्रमा कर लेगा वही प्रथम पूज्य होगा । ऐसा शिव का निर्णय सुनकर सभी अपने-अपने वाहनों पर बैठकर पृथ्वी परिक्रमा व सुनते ही स हेतु चले गये किन्तु स्थूल शरीर और क्षुद्र चूहा वाहन होने से श्री गणेश नहीं गये तथा बुद्धि के धनी गणेश ने वहीं जगदम्बा पार्वती परमेश्वर शिव दोनों को एक जगह बैठा कर परिक्रमा सम्पन्न की— देवगणों के पृथ्वी परिक्रमा से लौटने पर श्रीशिव ने बताया कि गणेश ने यह कार्य सर्वप्रथम सम्पन्न किया है । अतः सर्वप्रथम हर कार्य में श्रीगणेश की ही पूजा होगी। पाठक समझ गये होंगे कि शिव पृथ्वी का यह अपार्थक्य कितना सटीक है। कल्पभेद से अन्य कथा में ‘राम’ लिखकर परिक्रमा बतायी है।

3. ‘भूधर’ का अर्थ है जो पृथ्वी को धारण करे अर्थात् पृथ्वी जिस पर रहे या निवास करे, स्पष्ट है कि श्रीशिव कैलाश पर्वत या हिमालय पर्वत पर रहते हैं । पर्वतों के अचल होने से पृथ्वी भी अचला है और स्वयं शिव भी अचल हैं।

4. पृथ्वी पर प्रकृति की बिखरी हुई अनुपम छवि की छटा जो अतुलनीय अनिन्द्य सौन्दर्य की मेजबान है स्वयं में पराम्बा पार्वती का रूप है जो पृथ्वी की शोभा में चार चाँद लगाने तथा सेवा-आराधना में निरन्तर संलग्न है ।

5. सूर्यचन्द्र अग्नि त्रिनेत्र है जो पृथ्वी पर प्रकाश, ताप, पाक (भोजनादि)(औषधि धान्य आदि चन्द्र से पुष्ट होते हैं) का कार्य करते हैं, तीसरा नेत्र कभी विशेष परिस्थिति में खुलता है, जो नाशक है और पृथ्वी पर इसे हम ‘ज्वालामुखी’ फटने के रूप में देख सकते हैं जो प्रलय का सा ताण्डव करता है।

6. कर्पूरगौर से अभिप्राय है कि पृथ्वी प्रकाशमान है जो सूर्यचन्द्र अग्नि से प्रकाशित है, स्पष्ट है। दूसरे लाल पीली काली पृथ्वी की अपेक्षा श्वेतरूप परिमाण में व्यापकता लिए है और पृथ्वी का ऐसा स्थान ही सुहावना तथा अच्छा लगता है। जैसे कपूर की सुगन्ध पवित्रता की भावना के साथ मन को प्रसन्न करती है। मन शान्ति होने पर ही समाधि लगती है । “स जावे। स्प शान्तिमधिगच्छति” और यही योग है क्योंकि चित्वृत्ति निरोधः समाधिः तथा ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ कहा है।

7. करुणावरुणालय (दयालु) — भोलाबाबा या आशुतोष-रूप ‘क्षमया धरित्री-समः’ को अनुप्राणित करता है। श्रीमद्भागवत में वृकासुरप्रसङ्ग में नारद वचनानुसार — “ योऽल्पाभ्यां गुणदोषाभ्यामाशु तुष्यति कुप्यति” केवल स्तुति या मात्र जलाभिषेक से ही शिव प्रसन्न हो जाते हैं और समस्त पृथ्वी पर जीव-जगत् के विकृत रूप के कार्यों को अपने में समेटे सभी के कल्याण में में लगे हुए है। श्रीशिव क्षमाशील हैं और दयालु हैं। वशीकृतिर्लोक क्षमया किन्न साध्यते’ अथवा ‘विभाति कायः परोपकारेण न तु चन्दनेन ।’

8. व्यक्ताव्यक्तरूप — जो धरती हमें प्रत्यक्ष दिखती है, यही व्यक्त रूप है और जो भू-भाग नदी तालाब समुद्र सघन वन- प्रदेश के नीचे हैं तथा दिखाई |
नहीं देता वही शिव का अव्यक्त रूप है। यही साकार निराकार रूप है।

9. पृथ्वी ही मृत्युलोक है और शिव ही संहार शक्ति है तथा काल के भी काल हैं अर्थात् पृथ्वी कई युगों के काल को अब तक निगल चुकी है— पृथ्वी बिना लाग लपेट के सभी जीव जगत् से समान आचरण करती है। यही शिव का नि:स्पृह निर्लेप निराडम्बरता का रूप है । बाघम्बर धारण भुजङ्ग
भूषण इसी में समाहित है ।

10. ‘प्रधानेन हि व्यपदेशाः भवन्ति’ (साहित्यदर्पण) अर्थात् प्रधान के साथ किया व्यवहार ही अन्य सभी के साथ किया हुआ व्यवहार माना जाता है इसी परिप्रेक्ष्य में नदियों की रानी महानदी गङ्गाजी जो पृथ्वी पर विराजमान है। और शिव की जटा में अठखेलियाँ कर रही हैं अर्थात् समस्त नदियाँ नाले/
पृथ्वी पर हैं और अपना-अपना कार्य कर रहे हैं ।

ankush

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