श्रीभगवान् शिव का यज्ञरूप
प्रत्येक युग की श्रेष्ठ बात क्या है ? इस सन्दर्भ को स्पष्ट करते हुए महाभारत मोक्षधर्म पर्व में कहा गया है—
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुत्तमम् ।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥
और इस संसार के चातुर्वर्ण्य के लिए कौन सी बात यज्ञ है ? बताया है—
आलम्भ यज्ञा: क्षत्राश्च हविर्यज्ञा विशः स्मृताः ।
परिचार यज्ञाः शूद्रास्तु तपोयज्ञा द्विजातयः ॥
मत्स्य पुराण के अनुसार यज्ञ-विधि की प्रवृत्ति तथा प्रमुखता त्रेतायुग से मानी जाती है। पूर्व वर्णित भगवान् शिव के ‘हरिहरात्मक’ रुप सिद्ध होने से उनकी यज्ञरूपता स्वतः सिद्ध होती है क्योंकि मोटे या सामान्य रूप में—
‘यज्ञो वै विष्णु’ कहा जाता है माना जाता है।
वायुसंहिता में कहा है—
सोमं ससर्ज यज्ञार्थं सोमाद् द्यौः समवर्तत ।
धरा वह्निश्च सूर्यश्च वज्र-पाणिः शचीपतिः ।
विष्णुर्नारायणः श्रीमान् सर्वं सोममयं जगत् ॥
यह अत्यन्त सुस्पष्ट है कि यज्ञ में अग्नि की प्रधानता होती है— महाभारत मोक्षधर्म पर्व में अग्नि के सोलह गुण बताए हैं—–
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ह्रस्वो दीर्घस्तथा स्थूलश्चतुरस्त्रोऽनुवृत्तवान् ।
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शुक्लः कृष्णः तथा रक्तः पीतो नीलारुणस्तथा ।
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कठिनश्चिक्कणः श्लक्ष्णः पिच्छलो मृदु दारुणः । एवं षोडश विस्तारो ज्योती रूप गुणः स्मृतः ॥
इस अग्नि से ही अमृत (सोम) उत्पन्न होता है और सोम से अग्नि इसीलिये अग्नि और सोम के परस्पर हविर्यज्ञ से सम्पूर्ण जगत् का उत्पन्न होन कहा है । यह तत्त्व बृहज्जाबालोपनिषद् – ब्राह्मण 2 में स्पष्ट है—
“अग्नेरमृत-निष्पत्तिरमृतेनाग्निरेधते ।
अत एव हविः क्लृप्तमग्नीषोमात्मकं जगत् ॥
ऊर्ध्व-शक्तिमयं सोमः अघोशक्ति-मयोऽनलः ।
ताभ्यां संपुटितस्तस्मात्सद्विश्वमिदं जगत् ॥
जो वेदों के ज्ञाता हैं वे इस यज्ञ-रूप को भली भाँति जानते हैं तो पहले देखें कि वेद का ज्ञाता किसे कहा है-इस बारे में महाभारत दानपर्व में ये कहा है-
” न वेदानां वेदिता कश्चिदस्ति वेदेन वेद्यं न विदुर्न वेद्यम् ।
यो वेद वेदं स वेद वेद्यं यो वेद वेद्यं न स वेद सत्यम् ॥
यो वेद वेदान् स च वेद वेद्यं न तं विदुर्वेदविदो न वेदाः ।
तथापि वेदेन विदन्ति वेदं ये ब्राह्मणा वेदविदो भवन्ति ॥
फलस्वरूप वेद-वाणी- विवरण विचारणीय है-
शुक्लयजुर्वेद संहिता के 16वीं अध्याय के 16वें मन्त्र में शिव का नाम कित ‘शिपिविष्ट’ लिखा है जिसका भाष्य श्रीमहीधर ने गहनता से विश्लेषित करते वर्णन किया है—‘यज्ञो वै शिपिः शिपिः वै विष्णुः, शिपि वै पशुः शिपि रश्मि:’ इस व्याख्या से श्रीशिव का यज्ञ-रूप, पशुपति-रूप, हरिहर-रूप सूर्यरूप सिद्ध होता है।
अनेक पुराणों में तथा महाभारत आदि में उद्धृत दक्षयज्ञ-विध्वंस-कर गगन-घोष से शिव को यज्ञपति या यज्ञ फलदाता पद पर प्रतिष्ठित करते हुए शिव के यज्ञ सम्बन्धी महत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश डालती है ।
यथा— ब्रह्माकथन श्री मद्भागवत 4/7/50
कुर्वेध्वरस्योद्धरणं हतस्य भोः त्वयासमाप्तस्य मनोः प्रजापतेः । आदि
शिव-पुराण में श्रीविष्णु के परम भक्त राजा अम्बरीष के दादा नाभाग फल देते हैं। का चरित्र आता है— इस चरित्र प्रसंग में स्वयं शिव प्रकट होकर उसे यज्ञ का आचार्य पुष्पदन्त के शिवमहिम्नः स्तोत्र के निम्नलिखित दो श्लोक इस विषय में द्रष्टव्य हैं—
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमताम् ।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ॥
अतस्त्वां संप्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान प्रतिभुवम् ।
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ।।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता
मृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः ।।
क्रतुर्भ्रशस्त्वत्तः क्रतुषु फलदान – व्यसनिनो
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः ।।
गीता 5/29 में श्रीकृष्ण कहते हैं-
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोक-महेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
ऋग्वेद का मन्त्र ‘त्र्यम्बकं यजामहे.’ श्रीशिव के यज्ञ-रूप को स्पष्ट करता है। यज्ञ में एकादश अग्नि काम आती हैं जबकि रुद्र भी एकादश ही हैं। सामवेदीय छान्दोग्योपनिषद् अध्याय दो के 24वें खण्ड में मध्याह्न सवन का स्वामी रुद्र माना गया है । यहीं 16वें खण्ड में रुद्र को ‘पुरुष की यज्ञ-रूप में उपासना’ शीर्षक में प्राण माना है और रुद्र ही ‘प्राण’ है ऐसा उल्लेख लिङ्ग-पुराण, स्कन्दपुराण और कूर्मपुराण में मिलता है। वैदिक काल में रुद्रोपासना का कितना महत्त्व था—इस विषय में निम्नलिखित मन्त्र मन्त्रणा हेतु आमन्त्रण देता है-
“मा न स्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः । मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित्त्वा हवामहे ।
अन्त में, इस प्रसंग में शिव-पञ्चाक्षर स्तोत्र का अन्तिम श्लोक ध्यातव्य
“यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाक, हस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै यकाराम नमः शिवाय ॥
श्रीशिव का त्रिगुणात्मक रूप / सर्वदेवमयरूप
‘नाना-पुराण-निगमागम-सम्मतं यद्, रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि ‘ । श्री सार को लेकर रामचरितमानस – रचयिता हुलसी के पुत्र तुलसी सगुण निर्गु से स्वरूप को तोलते हुए स्पष्ट करते हैं-
‘सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा ।
गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा ॥
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई ।
जो गुन रहि सगुन सोई कैसे ?
की जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसे ।।
इससे ईश्वर का त्रिगुणात्मक रूप अछूता रह जाता है और सत्त्व रज तम हु नामक तीनों गुणों से ओत प्रोत का स्रोत सूखा रह जाता है अत: इस चिरन्तर के चिन्तन को चेतना देते हुए हम ढूँढ निकालते हैं कि — बृहदारण्यकोपनिषद् थीं देवता- विचार के प्रसंग में विदेह जनक राजा की सभा में शाकल्य र शि याज्ञवल्क्य ऋषि के प्रश्नोत्तर काल में देवताओं की संख्या “त्रयस्त्रिंशत् सह त्रयस्त्रिंशत् शत (तैंतीस हजार तैतीस सौ ) निश्चित कर पुनः तैतीस (33) मानी गई है, जिसमें तर्क दिया गया— ‘महिमानमेवैषामेते त्रयस्त्रिंशत्येव देवः इन तैतीस देवताओं में ग्यारह रुद्र भी हैं, जिनकी विभूति ग्यारह हजार ग्यार सौ देवताओं में है अन्त में ये 33 देवता (बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, विश्वेदेवा, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, शक्ति) एक ‘प्राण’ देवता की विभूति माना गई और यह प्राणदेवता ब्रह्म-रूप में प्रतिष्ठित हुआ— यह — ‘प्राण’ और कु पूर्व में लिखा जा चुका है) नहीं शिव ही है (जैसा कि श्रीशिव के प्रजापति या पशुपति-रूप के वर्णन में बताया गया है
अतः इस विश्लेषण और संश्लेषण से शिव ‘सर्वदेवमय’ पद पर सहज ही आसीन हो गये। इस बात की पुष्टि के लिए इस विषय में ए सुन्दर कथा (जैसा कि सुन्दर काण्ड की कथा के लिए किसी विचारक ने ने कहा है
सुन्दरे सुन्दरी सीता सुन्दरे सुन्दरी कथा ।
सुन्दरे सुन्दरो रामः सुन्दरे किं न सुन्दरम् ।।
वैसे ही विचारणीय तथा विश्वसनीय है-यथा-
“एक बार श्रीशिव ने अपने यज्ञ में समस्त देवताओं को आमंत्रित निमन्त्रित करने का विचार किया। श्रीशिव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय से यह आमन्त्रण निमन्त्रण का कार्य यथासमय सम्पन्न नहीं होगा ऐसा जान कर अपने छोटे पुत्र श्री गणेश को यह उत्तरदायित्व सौंप दिया। गणेश जी बुद्धि के स्वामी होने से स्वयं की तन्दुलता (मोटापन) और मूषक वाहन की क्षुद्रता को ध्यान में रख कर समय पर कार्य सम्पन्न हो एतदर्थ विचारमग्न हुए और आदिदेव महादेव गौरीगुरू में सभी देवों का निवास है” समझ कर श्री शिव की तीन परिक्रमा कर वहीं समस्त देवताओं को न्योंत दिया (सूचना दे दी) फलस्वरूप देवताओं को ठीक समय पर यज्ञ में आने की जानकारी मिल गई और सभी सुर-गण यज्ञ आयोजन में सम्मिलित हुए ।
महाभारत अनुशासन पर्व में पितामह भीष्म (ध्यान दें – पितामह शब्द का प्रचलन या तो ब्रह्माजी के साथ है या फिर भीष्म देवव्रत) जी के साथ जुड़ा हुआ है, ये द्यौ नामक आठवें वसु देवता के अवतार थे जिन्हें वशिष्ठ ऋषि के शाप-वश मनुष्य-योनि में आना पड़ा था तथा जिनकी माता स्वयं गङ्गाजी थीं और महाभिष नामक राजा के अवतार शन्तनु इनके पिता थे। युधिष्ठिर से शिव जी के बारे में बताते हैं-
“ अशक्तोऽहं गुणान् वक्तुं महादेवस्य धीमतः ।
यो हि सर्वगतो देवो न च सर्वत्र दृश्यते ॥
समस्त सीमाओं को जिन्होंने सीमित कर दिया ऐसे देवकीनन्दन एवं यशोदानन्दन श्रीकृष्ण ने पुत्र-कामना से परम-शिव की आराधना की जिससे शिव प्रसन्न हुए और प्रत्यक्ष दर्शन दिया—उस समय श्रीकृष्ण शिव-स्तुति करते इनके त्रिगुणात्मक रूप पर प्रकाश डालते हैं
“नमोऽस्तु ते शाश्वत सर्वयोने ? ब्रह्माधिपं त्वामृषयो वदन्ति ।
तपश्च सत्त्वं च रजस्तमश्च त्वमेव सः यं च वदन्ति सन्तः ॥
यह सर्वविदित तथ्य है कि शिव काल-स्वरूप हैं और समस्त त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम) काल के अधीन होकर सम से विषम और विषम से सम होकर सृष्टि तथा लय (नाश) का कारण बनते हैं-
“गुणाः कालवशादेव, भवन्ति विषमाः समाः ।
गुण, साम्ये लयो ज्ञेयो, वैषम्ये सृष्टिरुच्यते ॥
(शिवपुराण वायव्य संहिता अ 6 श्लोक 13)
और इन तीनों गुणों के पृथक्-पृथक् ईश्वरीय रूप ब्रह्मा, विष्णु, शिव के अभिधा (नाम) से अभिधेय हैं । यथा—
‘एका मूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्म-विष्णु-महेश्वराः’ ।
इस प्रकार एक ही शक्ति (शिव) के तीन व्यापार (सृष्टि, पालन व संहार हैं और ये तीनों ही क्रियाएँ अन्योन्याश्रित अथवा आदान और विसर्ग क्रम पर आधारित हैं। एक ही केन्द्र में निहित तीनों शक्तियाँ भिन्न-भिन्न स्थान ग्रहण करती हैं—यथा-
‘एते परस्परोत्पन्ना धारयन्ति परस्परम् । ‘
लिएका परस्परेण वर्द्धन्ते परस्परमनुव्रताः ॥
कचिद्ब्रह्मा कचिद्विष्णुः कचिद्रुद्रः प्रशस्यते ।
नानेन तेषामाधिक्यमैश्वर्यं चातिरिच्यते ॥
“यः सर्वस्मात्परो नित्यो निष्कलः परमेश्वरः ।
स एव च तदाधारस्तदात्मा तदधितिष्ठतः ।
तस्मान्महेश्वरश्चैव प्रकृतिः पुरुषस्तथा ।
सदाशिवो भवो विष्णुर्ब्रह्मा सर्वं शिवात्मकम् ॥
श्रीमद्भावगत महापुराण (4/7/54) में दक्ष प्रजापति से स्वयं श्री विष्णु विशिष्ट वाणी से वर्णन करते हैं—
त्रयाणामेकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम् । सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन् ! स शान्तिमधिगच्छति ॥
विष्णु पुराण का विवेचन है-
सृष्टि-स्थित्यन्त करणाद् ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मिकाम् । स सज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः ।।
ठीक इसी भाव का प्रवचन करता हुआ श्रीमद्भावगत स्कन्ध 8 अध्याय 7 का यह श्लोक शिव के लिए कहता है–
‘गुणमय्या स्वशक्त्यास्य सर्ग-स्थित्यप्ययान् विभो ।
धत्से यथा स्वदृग् भूमन् ! ब्रह्म-विष्णु-शिवाभिधाम् ।।
‘ गीता अ० 7 श्लोक 13 में श्रीकृष्ण के कथनानुसार-
‘त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्, समस्त संसार त्रिगुणमय है और सृष्ट्युत्पादक प्रधान तत्त्व लिङ्गरूप महेश्वर शिव जगत्स्वरूप है ऐसा विभिन्न शास्त्र वचनों से अभिशंसित और अनुमोदित किया जा चुका है, फलतः शिव त्रिगुणात्मक हैं ऐसा कहना निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है। अन्त में-लोक प्रचलित आबालवृद्ध वनिता उच्चारित शिव के त्रिगुणात्मक रूप को सटीकता से और बिना किसी संदेह रूपी कीचड़ से परे होकर जो ‘आरती’ गायी जात है, ध्यान से द्रष्टव्य विचारणीय एवं मननीय है-
क्योंकि ऐसी आरती अन्य तथाकथित किसी भी देवी देवता की नहीं हैं—
जय शिव ओंकारा प्रभु हर शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ हर
एकानन चतुरानन पञ्चानन राजै ।
हंसासन गरुडासन वृष वाहन साजै ॥ ॐ हर
दोय भुज चार चतुर्भुज दशभुज ते सोहे
तीनों रूप निरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ हर
अक्षमाला वनमाला मुण्डमालाधारी ।
चन्दन मृगमद चन्दा भाले शुभकारी ॥ ॐ हर
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे ।
सनकादिक प्रभुतादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ हर
करमध्ये कमंडलु चक्र त्रिशूल धरता ।
जगकर्त्ता जगहर्ता जग पालन कर्त्ता ॥ ॐ हर
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रवणाक्षर ॐ मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ हर
काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दो ब्रह्मचारी ।
नित उठ भोग लगावत (शिवजी के दरसन पावत) महिमा अतिभारी ॥ ॐ हर
त्रिगुण स्वामी की आरती जो कोई नर गावे |
भणत शिवानन्द स्वामी, वांछित फल पावे ॥ ॐ हर
अन्य किसी विचारक का विचार भी इसी क्रम में विवेच्य बन गया है—
ॐकार-रूपं त्रिगुणात्मकं शिवं-सृष्टिस्थिति-प्रत्यवहार-कारणम् ।
सुरासुरेशं रविमण्डलस्थं नमः शिवायेति नमस्करोमि ।।
ॐकार-रूपाय महेश्वराय नमो नकाराय निरञ्जनाय ॥
ॐकार-रूपाय शिवेश्वराय नमः शकाराय शशाङ्कमौलये ॥
वकार-रूपाय विरूप-चक्षुषे नमो यकाराय यमादि-तारणे ।
षडक्षर स्तोत्रमिदं शिवात्मकं पठन् स याति शिवलोक निश्चितम् ॥
परात्पर परातीत उत्पत्ति-स्थिति-कारक ।
सर्वार्थ-साधनोपाय, विश्वेश्वर-नमोऽस्तुते।
( ॐकार पर हम आगे विवेचना प्रस्तुत करेंगे)
अब हम त्रिगुण स्वामी को यथानाम तथा गुण त्रिदले त्रिगुणाकारं च त्र्यायुधम् । त्रिजन्म-पाप-संहार, बिल्वपत्रं शिवार्पणम् । श्रद्धा विश्वास भक्तिरूप बिल्वपत्र अर्पण करते हुए विराम (जिसमें राम तथा राम का अर्थात् विशेष प्रिय शिव छिपा है) को आराम देते हैं।