श्रीविश्वचर या विश्वरूप
विश्वचर या विश्वरूप का अर्थ है कि समस्त विश्व में जो स्वयं रहा हो और सारा विश्व जिसमें रम रहा हो अर्थात् प्रविष्ट हो (समाया हो) और मिले हुए दूध पानी की तरह अभिन्न हो — इसी को स्पष्ट करते ‘तन्त्रालोक’ अपनी खिड़की खोलता है जिसके आलोक में हम यों देख समझ सकते हैं )
व्यष्ट्युपासनया पुंसः समष्टिर्व्याप्तिमाप्नुयात् । सर्वगोऽप्यनिलो यद्वद् व्यजनेनोपजीवितः ॥
इसी विषय में श्वेताश्वतरोपनिषद् भी अपना श्वेतपत्र प्रकाशित करने नहीं चूकता-यथा-
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः, साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च । सर्वव्यापी स भगवान् शिवः ।
मुण्डकोपनिषद् भी अपना मुण्ड हिलाकर इसी बात को तत्परता से करता है कि यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड (जिसमें विश्व भी आजाता है) उसी ईश्वर का रूप है
‘अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्र-सूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग् विवृताश्ववेदाः’ वायुः प्राणो हृदय – विश्वमस्य पद्भ्यां पृथ्वी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा ।
स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण भी अपने आपको इस आकर्षण से नहीं बचा और शिवाराधन के बाद शिव-दर्शन पाकर भाव-विभोर हो उठे और गद्गद् से गाने लगे-
” त्वं वै ब्रह्मा च रुद्रश्च वरुणोऽग्निर्मनुर्भवः । धाता त्वष्टा विधाता च त्वं प्रभुः सर्वतो मुखः ॥ त्वत्तो जातानि भूतानि स्थावराणि चराणि च । सर्वतः पाणिपादस्त्वं सर्वतोऽक्षि-शिरोमुखः । सर्वतः श्रुतिमाँल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठसि ।।
इन सबके अतिरिक्त लिङ्ग पुराण, शिवपुराण तथा शुक्ल यजु रुद्राष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय में श्रीशिव की विश्व-रूपता के प्रचुर मात्रा में प्रमाण पाये जाते हैं— जब कि पूर्ववर्ती संस्कृत-साहित्य रसिक – शिरोमणि कविकुल-कमल- दिवाकर श्रीकालिदास अपने महाकाव्य “कुमार सम्भवम्” में श्रीशिव के विश्वमूर्ति रूप के बारे में प्रभावी ढंग से वर्णन करते हैं। यथा—
“विभूषणोद्भासि भुजङ्ग भोगि वा गजाजिनालम्बी दुकूलधारी वा । कपाली वा स्यादथवेन्दु-शेखरं न विश्वमूर्तेरवधार्यते वपुः ।।
श्रीशिव विश्वरूप, सर्वव्यापक तथा प्राणिविध है, इसी परम्परा की प्रगति को स्वतन्त्रता से स्पष्ट करते हुए तन्त्रालोक के प्रणेता श्रीमान् अभिनव गुप्त
गोपनीयता भङ्ग कर देते हैं-
“न खल्वेष शिवः शान्तो, नाम कश्चिद् विभेदवान् । सर्वेतराध्व-व्यावृत्तो, घट-तुल्योऽस्ति कुत्रचित् । स शिवः शिवतैवास्य वैश्वरूप्यावभासिता ।”
अर्थात् संसार से अलग घड़े की तरह श्रीशिव की कोई एकदेशीय स्थिति नहीं है, अपितु प्रकाशरूप संवित् जो सर्वत्र समस्त रूपों में उल्लसित है, वही शिव है और विश्वरूप से भासना ही शिव की शिवता है।
इस विवेचन से सुधी जन-मानस-हंस शिव के विश्वरूप रूपी-मोती को सहज भाव से निगल जाने एवं पचाने में सक्षम सिद्ध होगा तथा इसमें किसी को भी किसी प्रकार की शङ्का-पङ्क-कलङ्क की गुञ्जाइश नहीं रहनी चाहिये ।
शिव का अर्धनारीश्वर रूप
‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ के परिप्रेक्ष्य में अर्धनारीश्वर रूप की आवश्यकता तब पड़ी जब ब्रह्मा जी अपनी सृष्टि रचना प्रक्रिया में निष्क्रियता अनुभव करने लगे अर्थात् असमर्थ या विमूढ़ हो गये और इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए एक मात्र उपाय ‘तप’ का सहारा लिया और इस तप स प्रसन्न होकर अर्धनारीश्वर रूप में प्रकट होकर श्री शिव ने ब्रह्माजी को मैथुनी सृष्टि रचने का संकेत दिया-
“तीव्रेण तपसा तस्य युक्तस्य परिमेष्ठिनः अचिरेणैव कालेन पिता सम्प्रतुतोष ह ॥ ततः केनचिदंशेन मूर्तिमाविश्य कामपि । अर्धनारीश्वरो भूत्वा ययौ देवः स्वयं हरः ॥ ससर्जवपुषो भागाद्देवीं देववरो हरः । (शिव पुराण)
अर्धनारीश्वर स्वरूप संरचना में ऋग्वेद की मूलभूत बात का ध्यान रखना भी अपेक्षित होगा क्योंकि ऋग्वेदानुासर स्त्री और पुरुष दोनों ही पुरुष हैं। एका ईश्वर के रूप में कहा है। इसका गूढार्थ हुआ कि आत्मा की दृष्टि से ही यथा— ‘स्त्रियः सतीस्ता उ पुंस आहु:’ इस विषय की पुष्टता हेतु पुरुष सूक्त का यह कथन – ‘पुरुष एवेदं सर्वम्’ विवेच्य है। अर्थात् यहाँ पुरुष को आत्मा, ब्रह्मा पुरुष और स्त्री में कोई भेद नहीं है, लेकिन शरीर का भेद है। यह भेद परस्पर विरोध की बजाय सहयोग का कारण ही बना अर्थात पुरुष और स्त्री एक दोनों के पूरक का पर्यायवाची बन गये ।
और देवी द्वारा श्रीब्रह्मा को वर देने पर (जैसा कि हर ने अपने शरीर से देवी का सर्जन किया)—
विवेश देहं देवस्य देवश्चान्तर्धीयत ।
तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् स्त्रियां भोगः प्रतिष्ठितः ॥
इस भोग भावना ने कबीर का कबाड़ा कर दिया और वे कह उठे- नारी कहूँ कि नाहरि नख सिख सों यह खाय । जल बूड़ा तो ऊबरै भग बड़ा बह जाय ॥
इसी क्रम में अन्यच्च – एक बार भग भोग तें जीव हतेनिलाख । जनमलोर नारी तजी सुन गोरख की साख । ” श्री शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप के विषय में ‘एस्ट्रोलॉजी डेस्टिनी एण्ड व्हील ऑफ टाइम’ पुस्तक के लेखक के एम. राव, (जिसका हिन्दी अनुवाद डा. पूर्णिमा शर्मा एवं दिनेश शर्मा ने किया है) लिखते हैं—ब्रह्मा ने शिव का स्मरण किया तो शिव ने उनसे दिव्य आकाशवाणी के अनुसार कार्य करने के लिए कहा-आकाशवाणी में उन्हें मैथुनी सृष्टि रचना के आदेश दिये गये थे । ब्रह्मा सोच में पड़ गये कि स्त्री को सृष्टि में कहाँ से लाऊँ ? तब शिव ने अपना अर्द्धनारीश्वर रूप प्रकट किया, जिसमें से कुछ क्षण के लिए देवी अलग हो गई, उन्होंने अपनी दोनों भौंहों कट करके उससे स्त्री सृष्टि की। श्रीमद्भागवत में कल्प-भेद से यह भी कथा है कि ब्रह्मा जी ने अन्य कोई उपाय न देख अपने शरीर को मनु तथा शतरूपा के रूप में दो भागों विभाजित कर मैथुनी सृष्टि प्रारम्भ की। कहा भी है-
‘कल्पे कल्पे सुरा सर्वे, तीर्थे तीर्थे पृथक् पृथक् । ब्राह्मणाश्चैव लोकेऽस्मिन् सम्भवन्ति सदैव हि ॥
प्रथम कथा से सिद्ध हुआ कि शिव ईश्वर है और इन्हीं की कृपा से ब्रह्मा सृष्टि करने में समर्थ हुए।
इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में देव-दानव-मानव, पशु-पक्षी कीट-पतङ्गादि सभी की हेतु पुरुष सूक्त का प्राय: कुछ न कुछ मन में निरन्तर कामना बनी रहती है अर्थात् ‘इदं मे स्यादिदं रुष को आत्मा, ब्रह्मा 1 मे स्यादितीच्छा कामशब्दिता’- मेरे पास यह भी हो, यह भी हो, ऐसी इच्छा आत्मा की दृष्टि ही ‘काम’ नाम से कही जाती है और यही विकृत रूप से विषय भोग की । यह भेद परस्पर कुण्डली बन अजगर की तरह उपर्युक्त सभी को पकड़ कर जकड़ ले और स्त्री एक दोनों है- शायद इसीलिए मनुस्मृति अ. 2 श्लोक 94 तथा श्रीमद्भागवत 9/19/14 में ‘काम’ के प्रचण्ड प्रभाव को यों प्रकाशित करना पड़ा-
” न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।।
इस बिन्दु पर थोड़ा विश्लेषण से विचार करें तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि शिव ईश्वर रूप होने से नियामक है और इस दुर्धर्ष काम या कामना पर विजय पाना (वश में करना) आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है । क्योंकि कामवश होकर परस्त्री-सेवन अनुचित है । यथा—
“काया हू से काम जात, गाँठहू से दाम जात,
सुयश को नाम जात रूप जात अङ्गते ।
उत्तम सब कर्म जात, कुल के निज धर्म जात,
गुरुजन की शर्मजात अपने चित्त भङ्गते ।
राग रङ्ग रीति जात, ईश्वर से प्रीति जात,
सज्जन से प्रतीति जात, मदन के उमङ्गते ।
सुरपुर को वास जात, भक्ति का निवास जात,
पुण्य का प्रकाशजात, पर- स्त्री के सङ्गते ।
यही सोचकर श्रीशिव ने मैथुनी सृष्टि के प्रतीक रूप में अर्धनारीश्वर रूप धारण कर काम को सन्तुलित एवं वशवर्ती बनाया। इस पृथ्वी पर जिसकी विस्तार-परिधि बत्तीस करोड़ साठ लाख योजन मानी है—
मेदिन्या: परिधिस्तावद् योजनैः परिकीर्तिताः ।
द्वात्रिंशत्कोट्य: षष्टिः लक्षणा परिधिः क्षितेः ॥
और इस विश्व पटल पर यह जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है।
चौरासी लाख योनियों का वर्णन किसी ने यों किया है
बीस लाख स्थावर जानो, नो लाख सब जलचर मानो ।
ग्यारह लक्ष कूर्म कवि गाये,पक्षि गण दस लाख बताये ॥
तीस लक्ष पशु जानहु भाई, चार लक्ष वानर सुखदाई।
जब यह चौरासी कट जावे, तब मनुष्य को तन कहीं पावे ॥
अर्थात् 84 लाख योनियों में भटकने के बाद जीव मनुष्य बनता है। मनुष्य सत्कर्म-तप-यज्ञ, उपासना-साधना के बल पर देवत्व तथा मोक्ष (सारू सायुज्य सामीप्य सादृश्य चार मोक्ष रूप) का अधिकारी बनता है । परञ्च बाधा है क्योंकि काम के पाँच बाणों (उन्मादन, तापन, शोषण स्तम्भन भी सर्वविदित है कि इस लक्ष्य-प्राप्ति में काम (भोगभावना कामना) सबसे ब सम्मोहन अथवा- अरविन्दमशोकञ्च चूतञ्च नवमल्लिका । नीलोत्पल चैते पञ्च बाणस्य सायकाः) का सामना भला कौन कर सकता है ? इस प्रभावित होकर शृङ्गार शतककार ने काम की कार सेवा यों की- “कामे विजितो ब्रह्मा, कामेन विजितो हरिः । कामेन विजितो शम्भुः शक्रः काम निर्जितः ।। लेकिन मानस बालकाण्ड के वचनों से स्पष्ट है कि शिव अकाम त कामजयी है। पार्वती-कथन — ‘तुम्हरे जान काम अब जारा। अब लगि सं रहे सविकारा।
हमरे जान सदा शिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगि ।। “
याज्ञवल्क्य-वचन—‘चिदानन्द सुखधाम विगत मोहमद काम ।’
नारद – निवेदन — ‘जोगी जटिल अकाम मन नमन अमङ्गल वेष ।’
श्री सदाशिव के इस दिव्यरूप को साधारण (आम) जन-मानस समझने वाली कुछ भ्रमित सा हो रहा था। शायद इसीलिए श्रीशिव ने काम-दहन किया क्योंकि कामदेव अपनी औकात भूल कर साक्षात् परमेश्वर को अपने लपेटे में लपेट रहा था अर्थात् बाड़ खेत को ही खाने लगी थी। चूँकि शङ्कर तो दयामूर्ति एवं करुणा-सागर आशुतोष हैं, अतः कामदेव की पत्नी रति के विलाप से दयाद्र होकर काम को ‘अनङ्ग रूप में स्थापित कर उसे मनसिज बना दिया। बाद काम को सुप्रतिष्ठा दिलाने हेतु स्वयं वैवाहिक बन्धन में बँध कर उचित भोग भोगने का मार्ग प्रशस्त किया। वैसे तो कहावत है— ‘पर उपदेश कुसल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे’। किन्तु स्पष्ट है शिव नियामक तत्त्व हैं-व्यवस्था देना और बनाये रखना इन्हीं का कार्य है । अतः सर्वप्रथम सती (स्वर्ग लोक इस दावे की वकाल सुख) से विवाहित आनन्द भोगने के बाद दूसरा विवाह हिमालय पुत्री पार्वती स्क (पृथ्वी लोकसुख) से पूरी रीति-रिवाज (सम्बन्धार्थ बातचीत, शुभनक्षत्र में लगन बरात ले जाना, वेद मंत्रों से विवाह तथा मधुरात्रि मनाना, देखें—तुलसीकृत रामचरितमानस बालकाण्ड) के साथ किया— जिससे वैवाहिक प्रथा को तो मिला ही, गार्हस्थ्य पालन-सन्तान उत्पत्ति एवं सत्कर्म करने की प्रवृत्ति की प्रगति हुई और संयमित जीवन जीकर मोक्ष लक्ष्य को पाने का रास्ता खुला। ध्यातव्य एवं स्मर्तव्य है कि अन्य किसी भी तथा कथित देवी-देवताओं ने ऐसे विवाह नहीं किये। शिव का प्रिया से प्यार एवं मन की स्थितिकारक चित्र देखें— नपुंसकमिति ज्ञात्वा प्रियायै प्रेषितं मनः । तत्तु तत्रैव रमते, हता पाणिनिना वयम् ॥ महाभारत अनुशासन पर्व 14वें अध्याय में इन्द्र और संवाद में मैथुनी सृष्टि से अर्धनारीश्वर का सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है-
पुल्लिङ्गं सर्वमीशानं स्त्रीलिङ्गं विद्धि चाप्युमाम् । द्वाभ्यां तनुभ्यां व्याप्तं हि चराचरमिदं जगत् ॥
शिव के विकट डरावने दूल्हे रूप को देखकर दुःखी पार्वती-माता मैना को समझाते हुए श्री नारद जी कहते हैं-
अज अनादि सक्ति अविनाशिनी, सदाशंभु अरधंग निवासिनी ।
जन्मी प्रथम दच्छ गृह जाई, नाम सती सुन्दर तनु पाई ।
अब जनमि तुह्मरे भवन — अर्थात् शक्ति और शक्तिमान् के अभेद का परिचायक शिव पार्वती का संश्लिष्ट (अर्धनारीश्वर) रूप है । श्रीतुलसीदास जी ने अर्धनारीश्वर रूप की महत्ता को और अधिक महिमामण्डित कर दिया है— जब वे सच्ची भावना और सच्चे दिल से यथार्थ सिन्धु को बिन्दु रूप बनाकर कविताकामिनी के भाल पर बिन्दी के रूप में चमका देते हैं—
” भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ ।याभ्यां विना न पश्यन्ति, सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ॥
इस बात लेकर जब तुलसी प्रिय का दास तुलसीदास मैदान में कूद गया तो काली का दास कालीदास मैदान में दौड़ लगाता हुआ अपनी उक्ति के नक्कार खाने से तुलसी की आवाज की तूती बजाने का बिगुल यों बजाता है—
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ-प्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे, पार्वती-परमेश्वरौ । (रघुवंश महाकाव्य)
इसी दावे की वकालत करते हुए मत्स्य-पुराण लिङ्ग-पुराण कूर्म-पुराण, (पूर्वार्द्ध ब्राह्मी संहिता) स्कन्द-पुराण आदि भी इस अर्धनारीश्वर रूप का पुरजोर समर्थन करते हैं। ज्योतिष शास्त्र में अर्धनारीश्वर का चमत्कारिक स्वरूप ध्यातव्य है जो बारह राशियों के परस्पर संश्लिष्ट होने से मिथुनी भाव को प्राप्त होता है। कोई पिता अपने जामाता के कई दिनों से दूर रहने पर अपनी कन्या की विरहावस्था से दुःखी होकर कहता है-
सन्तप्ता दशमध्वजातिगतिना सम्मूर्च्छिता निर्जले ।
तूर्य द्वादश हे द्वितीय मतिमन्नेकादशेव स्तनी ।
सा षष्ठी नवम थ्रू पञ्चम कदि सा सप्तमावर्जित,
प्राप्नोत्यष्टम-वेदनां प्रथम हे तूर्णं तृतीयो भव ।
अर्थात् हे द्वितीय (वृष-साँड) दशम ध्वजातिगतिना संतप्ता = कामवेदना पीड़िता, तूर्य = कर्कट, द्वादश = मीन के जलविहीन तड़पने (बेहोश होने की तरह, एकादश स्तनी = घट सदृश स्तनवाली नवम =धनु जैसी भौंह वाली, पञ्चम = सिंह जैसी कटिवाली,सप्तमावर्जिता= असन्तुलित हुई, षष्ठी =वह मेरी कन्या, अष्टम-वेदना =बिच्छू काटने जैसी पीड़ा भोग रहीहै अतप्रथ: हे म = मेंढे ! तुम शीघ्र ही तृतीय =मिथुन भाव (अर्धनारीश्वर भाव) को प्राप्त हो जाओ।
इस विश्लेषण को विराम रूपी आराम देने के लिए अर्द्धनारीश्वर रूप का ध्यान करना ज्यादा ठीक रहेगा—