श्री शिव ईश्वर क्यों ?
श्रुति (वेद) वचनानुसार परमात्मा (ईश्वर) के दो रूप प्रतिपादित किये गये हैं । प्रकृति-रहित ब्रह्म को निर्गुण ब्रह्म माना है जबकि त्रिगुणमयी मायावाले (सत्त्व-रज-तम = त्रिगुण) या प्रकृति-सहित ब्रह्म को सगुण ब्रह्म कहा जाता रहा है । (ईश्वर) निर्गुण रूप में अजन्मा, अव्यक्त, अपरिमेय अद्वितीय, निर्विकार और ‘नेति नेति’ के रूप में सनातन काल से प्रतिष्ठित है—इस कारण इनके किसी प्रकार के रूप तथा कार्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती-अतः सगुण- ब्रह्म के दो भेद मान कर और उन्हें क्रमशः निराकार तथा साकार संज्ञा देकर, एकेश्वर, परमेश्वर, महेश्वर व सर्वेश्वर आदि- नामों से अभिहित (कहा) किया गया है। इन ‘शान्तं शिवमद्वैतम्’ की विभूति से ओत-प्रोत महेश्वर (श्रीशिव) रूपों की विवेचना परिभाषा आख्या या व्याख्या कर पाना कठिन ही नहीं अपितु कठिनतम तथा अकल्पनीय है फिर भी चा प्रमाणों (प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द तथा आप्त) तथा लोगों (योगियों, सिद्धा) द्वा- किये गये अनुभवों, श्री शिव की विचित्र चरित्र लीलाओं और प्रत्यक्ष व्यवहा जगत् की परम्पराओं की नींव पर श्रीशिव के ईश्वरीय स्वरूप का महल खड़ा करना कुछ अप्रासंगिक और असङ्गत न होगा ।
मानव-मन जो एक सुनिश्चित सुव्यवस्था का पक्षधर है, के श्रीशिव की ईश्वरता को समझने के लिये एक प्रकार के वर्गीकरण का अर लेना होगा। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत श्रीशिव के ईश्वर रूप को पाँच भागे बाँटा जा सकता है, जिसमें पहला ऐश्वर्यमयरूप, दूसरा देवमय तीसरा जगत् उपादान रूप, चौथा अवतार रूप और पाँचवाँ – विशिष्ट मन श्रीशिव के ऐश्वर्यमय (प्रथम) रूप को हम दस भागों में विभाजित कर सक हैं—यथा
- आत्मरूप
- विश्वरूप
- पञ्चवक्त्र रूप
- पशुपति/प्रजापति-रूप
- यज्ञरूप
- लिङ्गरूप
- अर्धनारीश्वर – रूप
- मृत्युञ्जय-रूप
- हरिहरात्मक रूप
- त्रिगुणात्मक या सर्वदेवमय-रूप।
श्रीशिव के दूसरे ‘देवरूप’ क्रम में शिव रुद्र एकादश रुद्र, अनन्त रुद्र भैरव, वीरभद्र, नन्दीश्वर चण्डीश, मणिमान् आदि शिव के विभिन्न अंशात्मक रूप एवं राक्षस, यक्ष, पिशाच, भूतादि गण (जो देवयोनि में हैं) यथा—
“विद्याधरोऽप्सरो यक्ष रक्षो-गन्धर्व-किन्नराः ।
पिशाचो गुह्यको सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः । “( अमरकोष)
‘यो दक्षशापात् पैशाच्यं प्राप्तः प्रेतपिशाचराट्’
तीसरे चरण में जगत् उपादान या शिव के अनुग्रहादि कृत्य को प्रकट करने वाला इनका “अष्टमूर्ति रूप अपना व्यापक प्रभाव लिए जगत् पटल पर उपस्थित है।
वर्गीकरण की चौथी योजना में योगियों (दुर्वासा, आदि शङ्कराचार्य — गुरुगोरखनाथ आदि) के चौबीस अवतार अश्वत्थामा आदि मानव विभूति अवतार, शरभ जैसे पशु-पक्षी आदि अवतार सामने उतरे हैं।
पाँचवी रूप-रेखा में उभरने वाले विशिष्ट-रूपों की प्रविष्टि यों की जा सकती है—
1. जगद्गुरु शिव/ज्ञानदाता / उपदेष्टा-रूप,
2. नटराज-रूप,
3. वैद्यनाथ- रूप,
4. मुक्तिदाता-रूप,
5. योगिरूप,
6. भक्तरूप,
7. गोपीरूप,
8. समाधि (तपस्वी) फक्कड़-रूप,
9. त्रिकालदर्शी एवं वरदाता-रूप,
10. रुद्राक्षरूप,
11. बिल्वपत्ररूप,
12. कुबेर मित्रतारूप,
13. श्रीहनुमान् रूप ।
खड़ा श्रीशिव के इन उपर्युक्त कहे गये विभिन्न रूपों के बारे में – वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, सूत्र ग्रन्थ स्मृति, रामायण (वाल्मीकिकृत), महाभारत, पुराण 18, नुसार उपपुराण, योगवशिष्ठ, दर्शन शास्त्र, कर्म-पूजा-शास्त्र (पद्धतियाँ) धर्मशास्त्र आश्रय यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रादि ग्रन्थ, नीतिशास्त्र परवर्ती संस्कृत और हिन्दी साहित्य के ग्रन्थ एवं गों में अन्य कई एक भाषाओं में, लेखों में, कविताओं में, गद्यों में— अति विशद वर्णन रूप, मिलता है परञ्च यहाँ प्रसंग वश सामान्य तथा प्रबुद्ध पाठकों के सम्मुख इन रूप। ग्रन्थ-समुद्रों से यथार्थ बोधक चेतनाप्रद कुछ बिन्दुओं को प्रस्तुत करना जहाँ सर्वजन सकते हिताय और स्वान्तः सुखाय सिद्ध होगा। वहाँ काव्य-शास्त्र विनोद के साथ-साथ शिव ईश्वर स्वरूप जिज्ञासा के समाधान में एक मील का पत्थर साबित होगा । अतः शिव स्वरूपों का संक्षिप्त तथा संकेतात्मक परिचय प्रस्तुत है—
शिव का आत्मरूप
श्रीशिव का यह आत्मरूप निराकार अप्रमेय, सच्चिदानन्दघन परमात्मा (ईश्वर) की तरह ही है। इस श्रीशिव के आत्मस्वरूप सरोवर में गोता लगाने में मस्त माण्डूक्योपनिषद रूपी मेंढक टर्रा उठा है जो अवश्य श्रोतव्य
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यलक्षणमचिन्त्यमव्ययपदेश्यमेकात्म-प्रत्यय-सारं
वोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते, स आत्मा स विज्ञेयः ।
श्रीमद् भगवद्गीता में आत्म-तत्त्व की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए स्व श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादेयत्। आत्मैर ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय
और यही आत्म-तत्त्व परमात्म तत्त्व (ईश्वरत्त्व) है जो श्रीमद्भागव (नाश) हो उसे लिङ्ग कहते महापुराण अष्टम स्कन्ध की सातवीं अध्याय में श्रीशिव के बारे में कहा है-
त्वं ब्रह्म परमं गुह्यं सदसद्-भाव-भावनः । नाना-शक्तिभिराभातस्त्वमात्मा जगदीश्वरः ।।
इसी क्रम में पुष्पदन्त को भी अपने दाँत किटकिटाने पड़े हैं। जब व स्तुति करते हैं— ‘त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च’ अथवा – ‘न हि स्वात्माराम विषय-मृग-तृष्णा भ्रमयति ।’ आत्माराम होकर सती-वियोग में जो समाधि ल वह पार्वती से सम्बन्धार्थ भङ्ग हुई— बीते संवत् सहस सतासी । तजी समाधि संभु अविनासी ॥ (रामचरित मानस बालकाण्ड)
इससे पूर्व स्वयं सती ने कहा था- जगदात्मा महेश पुरारी। जगत जनक सबके हितकारी।।
यह एक प्रकार से शिव के विशेष रूप का वर्णन है । यह मन में नहीं आ सकता और न ही यह रूप उपासना-योग्य है, फिर भी श्रुति ‘नेति’ ‘नेति कह कर परिचय कराती है और ध्यान अभ्यास एवं निरन्तर मनन-चिन्तनको लिङ्गी और शिवा (पार्वत इस रूप की अन्तः झलक झिलमिलाती सी दिखलाने में सहायक तथा सक्षम का रहस्य एवं स्वरूप स्वत हैं और यह मानव का अन्तिम प्राप्त तथा मुख्य लक्ष्य है इसीलिए कोई साधन शायद सरल स्वभाव से बोल उठा-
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहम् ।
पूजा ते विषयोपभोग रचना निद्रा-समाधि स्थितिः ।।
संचार: पदयोर्प्रदक्षिण-विधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो ।
यद्यत् कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥
मनु स्मृति के अनुसार – आत्मैव देवताः सर्वाः सर्वमात्मन्यवस्थितम् । आत्मा हि जनयत्येषां कर्मयोगं शरीरिणाम्॥
श्रीशिव का लिङ्ग रूप
ईश्वर कौन ? क्रमाङ्क चार शीर्षक में बताया जा चुका है कि शिवपुराण विद्येश्वर संहिता अध्याय नौ में स्वयं सदाशिव ने अपने सकल तथा निष्कल नामक दो स्वरूपों के बारे में कहा है-जैसे—’सकलं निष्कलं चेति स्वरूपं द्वयमस्ति मे’ और आगे चलकर क्रान्तिकारक कदम बढ़ाते हुए शिव कहते हैं-
“आदौ ब्रह्मत्व-बुद्ध्यर्थं निष्कलं लिङ्गमुत्थितम् ।
लिङ्ग-लक्षण-युक्तत्वान्मम लिङ्गं भवेदिदम् ॥
इसी चर्चा को चालू रखते हुए लिङ्गपुराण भी अपनी पुरानी ढपली के साथ राग अलापने लगा है— ‘लयनाल्लिङ्गमित्याहुः’ अर्थात् कार्य-समूह जहाँ लय (नाश) हो उसे लिङ्ग कहते हैं – तथा ऐसी स्थिति अक्षर तत्त्व में ही सम्भव है फलतः क्षर-तत्त्व का परिधान लपेटे अक्षर-तत्त्व ही लिङ्ग है। इसी परिप्रेक्ष्य में ‘हठ संकेत चन्द्रिका’ ने हठीलेपन के साथ अपनी चन्द्रिका (चाँदनी) की चाकचक्यता का चक्कर चला कर ऐरे गैरे नत्थू खैरों के मक्कर को नकार दिया है—
प्रकृतिश्च पुमाँश्चैव परं ब्रह्म प्रकीर्तितम् ।
पुमान् बिन्दुस्तद्वदने, नादरूपा जगन्मयि ।
बिन्दुर्लिंङ्गं शिवः पुंसः योनिर्नादस्वरूपिणी ।।
ध्यान दें- बिना योनि (जलेरी (जलहरी) रूपी पार्वती) के शिवलिङ्ग की स्थिति कहीं नहीं मिलती तथा पूजन आदि कार्य भी नहीं किये जाते हैं – यह प्रत्यक्ष है । अतः लिङ्ग और योनि का एक जगह होना नितान्त आवश्यक ही है। नहीं, अपितु अनिवार्य है । पद्मपुराण के मत से – “नरस्तु’ पुरुषः प्रोक्तो नारी प्रकृतिरुच्यते । रमते तेन वै सार्धं न मुक्ता हि कदाचन । “
जहाँ लिङ्ग-पुराण में अलिङ्ग-शिव से लिङ्ग-शिव की उत्पत्ति बताकर शिव को लिङ्गी और शिवा (पार्वती) को लिङ्ग माना है । वहाँ स्कन्द पुराण में शिवलिङ्ग का रहस्य एवं स्वरूप स्वतः स्फूर्ति से स्फुरित हो उठा है—
“आकाशं लिङ्गमित्याहुः, पृथिवी तस्य पीठिका |
आलयः सर्व देवानां लयनाल्लिङ्गमुच्यते ॥
पुन: इसी आवाज को बाज आने से नहीं रोका है-
“अनादिमच्युतं दिव्यं, प्रमाणातीत-गोचरम् ।
अधश्चोर्ध्वगतं दिव्यं, जीवाख्यं देह- संस्थितम् ॥
1. टिप्पणी-नर मात्रा रहित है जबकि नारी में दो मात्राएँ हैं अर्थात् नारी बिना नर अधूरा है। नारी से ही नर में जीवन्तता पनपती है।
हृदयादि- द्वादशान्तस्थं प्राणापानोदयास्तकम् ॥
अग्राह्यमिन्द्रियात्मानं, निष्कलं कालगं विभुम् ॥
स्वरादि व्यञ्जनातीतं वर्णादि-परिवर्जितम् ।
वाचामवाच्य विषयमहङ्कारार्धरूपिणम् ॥
हृत्पद्मकोश- मध्यस्थं, शून्य-रूपं निरञ्जनम् ॥
एनं सदाशिवं विद्धि प्रभासे (शरीरे) लिङ्ग-रूपिणम् ॥
पुराणों के अनुसार सती-वियोग से दुःखी शिव अपनी मस्ती में उन्मत्त तरह नङ्गधडङ्ग वन- पहाड़ों में विचरण करते थे, उस समय अरण्यवासी ऋषियों पत्नियाँ शिव के इस रूप पर आकर्षित हो अपने आश्रम छोड़ इनके पास चली गईं । इससे ऋषिगण क्रुद्ध हो उठे और शिवलिङ्ग पतन का शाप दे दिया जिससे समस्त रूप में प्रकट हुए। प्रतिरि में हाहाकार मच गया और पुनः देवताओं तथा ऋषियों द्वारा — स्तुति 4. ममलेश्वर (परमेश्व करने पर प्रसन्न होकर श्रीशिव ने लिङ्गको पुनः धारण किया तथा सभी से लिङ्ग-पूजा के बीच एक द्वीप पर म करने को कहा तभी से लिङ्ग-पूजा का प्रचलन हुआ ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम सुवर्णलिङ्ग ममलेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग है। का पूजन किया इसके बाद देवताओं तथा परम भक्तों ने जिन स्थानों पर भगवान् 5. विश्वेश्वर – पार्वती शिव की उपासना की वहीं प्रसन्न हो उन्हीं तीर्थ स्थानों में लिङ्ग-रूप ज्योति प्रकट पर शिव यहाँ रहने लगे हुई, जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व्याप्त हो गया। इस ज्योतिर्लिङ्ग का आदि अन्त का 6. त्र्यम्बकेश्वर – महार कोई पता नहीं था और श्री शिव ज्योतिर्लिङ्ग के रूप में सदा के लिए विद्यमान हो हामी (गोदावरी) के तट प गये। यह ज्योतिर्लिङ्ग स्वयम्भू है और मनुष्य द्वारा स्थापित नहीं है। ये ज्योतिर्लिङ्ग ठि मुख्य रूप से बारह हैं। कहा है-
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्री- शैले मल्लिकार्जुनम् ।
उज्जयिन्यां महाकालं, ओङ्कारे परमेश्वरम् (ममलेश्वरम्) (पाठान्तर)
वाराणस्यां च विश्वेशं, त्र्यम्बकं गौतमी तटे ।
सेतुबन्धे च रामेशं, घुश्मेशं च शिवालये ॥
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावनम् ॥
केदारं हिमवत्पृष्ठे, डाकिन्यां भीमशङ्करम् ॥
भगवान् शङ्कर के ईश्वरीय दिव्यलिङ्गरूपों का परिचय ‘रामप्रकाश सक्सेना’ लिखित ‘चारधाम की यात्रा’ नामक पुस्तक में संक्षेप से इस प्रकार दिया है-
1. सोमनाथ — गुजरात प्रदेश के सौराष्ट्र खण्ड में वेरावल नगर से 6 कि.मी. दूर प्रभास क्षेत्र में समुद्र तटपर बने विशाल मन्दिर में स्थित हैं। चन्द्रमा (सोम) ने यहाँ वर्षों शिव उपासना की थी श्रीब्रह्माजी द्वारा धरती कुरेदने पर यहाँ शिवलिङ्ग स्वयं प्रकट हुआ या कालान्तर में रावण ने कठोर तपस्या अपने सिर काटकर चढ़ाये तथा वर पाया और चाँदी का मन्दिर बनाया। द्वापर आकर श्रीकृष्ण जी ने इसे चन्दन का बनवाया। आज तक आते-आते कई अनिर्माण प्रक्रिया हो चुकी है। इनके दर्शन से समस्त पापों का नाश तथा वाञ्छित फल मिलता है ।
2. मल्लिकार्जुन—यह आन्ध्रप्रदेश के कृष्णा जनपद के श्री शैल पर्वत स्ती में उन्मत्त को चले गये तब श्रीशिव भवानी अर्जुन नामक भील तथा मल्लिका नामक लनी के वेश में उन्हें मनाने गये और वहीं रह गये ।
3.महाकालेश्वर– उज्जैन नगर (मध्य प्रदेश) मे क्षिप्रा नदी के किनारे द्रसेन तथा पञ्चवर्षीय श्रीकर नामक गोप की उपासना पर शिव ज्योतिर्लिंङ्ग रूप में प्रकट हुए। प्रतिदिन प्रातः यहाँ चिता-भस्म लगाई जाती है।
4. ममलेश्वर (परमेश्वर) – मध्यप्रदेश में ओंकारेश्वर स्थान पर नर्मदा भी से लिङ्ग-पूजा के बीच एक द्वीप पर मान्धाता पहाड़ी पर मन्दिर है । नर्मदा किनारे बस्ती मलेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग है ।
5. विश्वेश्वर-पार्वती जी के अनुरोध पर यू.पी. के बनारस नगर में गङ्गझ ज्योति प्रकट पर शिव यहाँ रहने लगे और यही विश्वनाथ ज्योतिर्लिङ्ग बने ।
6. त्र्यम्बकेश्वर – महाराष्ट्र के नासिक नगर से 30 कि.मी. त्र्यम्बकम् में समान हो तमी (गोदावरी) के तट पर स्थित है— मन्दिर के अन्दर छोटे गढ्ढे में तीन लिङ्ग गूठे के बराबर लिङ्ग हैं जो ब्रह्मा विष्णु व शिव के रूप में माने जाते हैं—यहाँ तम ऋषि और इनकी पत्नी अहिल्या ने तप किया था— महेश-लिङ्ग से जल कलता है। स्त्रियों के लिए यहाँ लिङ्ग-दर्शन वर्जित है— केवल मुकुट का न कर सकती है।
7. रामेश्वरम् — यह तमिलनाडु प्रान्त के रामनाथपुरम् जनपद में बंगाल खाड़ी के समुद्र तट पर है— रावण पर चढ़ाई करने से पूर्व श्री राम ने की स्थापना की थी— ‘लिंग थापी विधिवत् कर पूजा’ (रामचरितमानस ड्राकाण्ड)
8. घुश्मेश्वर — सुधन्वा भक्त ने घोर तपस्या की थी। महाराष्ट्र के रिंगाबाद नगर के पास एलोरा स्थान से 2 कि.मी. पर पक्के शिवालय सरोवर तट पर बेरूल नामक ग्राम के निकट विराजमान है ।
9. वैद्यनाथ – बिहार प्रान्त में देवघर नगर में स्थित है । रावण ने स्थापना की
10. नागेश्वर– उत्तरप्रदेश के अल्मोड़ा नगर से ईशान में जागेश्वर में बदारु के वृक्षों के बीच स्थित है। कुछ लोग गुजरात में द्वारिका से 16 कि.मी.
द्वापर गेश्वर नाथ को मानते हैं।
11. केदारनाथ — उत्तरप्रदेश के रुद्रप्रयाग जनपद में हिमालय की के मध्य महिष के पृष्ठ भाग के रूप में ज्योतिर्लिङ्ग है। यहाँ सत्य उपमन्यु ने तथा द्वापर में पाण्डवों ने तप किया था ।
12. भीमशङ्कर — महाराष्ट्र प्रदेश के द्राक्षाराम नामक स्थान पर स्थि सह्याद्रि पर्वत के डाकिनी – नामक शिखर पर यह ज्योतिर्लिङ्ग है। इससे
जल निकलता रहता है जिससे ‘भीमा’ नदी उत्पन्न होती है। त्रिपुर- एकलिश जी उदयपुर श्रीशिव ने भीमकाय रूप धारण किया था