शिव का प्रजापति / पशुपति-रूप

शैव-दर्शनानुसार आत्मा प्राण प्रजा या पशु को क्रमशः पशुपति, पाश और पशु कहते हैं अर्थात् आत्मा ही पशुपति है, प्राण ही पाश है और प्रजा ही पशु
है । फलस्वरूप श्री- शिव आत्मरूप हैं, नियामक हैं, प्राणरूपी पाश से जीव- पशु का नियमन या मोचन करते कराते हैं अत: इन्हें पशुपति कहा है। शिव में पशु, पाश और पशुपति के बारे मे वर्णन किया है जो निम्नाकित है –

ब्रह्माद्या: स्थावरान्ताश्च देव-देवस्य शूलिनः ।
पशवः परिकीर्त्यन्ते, संसार- वशवर्तिनः ।
तेषां पतित्वाद्देवेशः, शिवः पशुपतिः स्मृतः ।
चतुर्विंशति- तत्त्वानि माया कर्मगुणास्तथा ।
विषया इति कथ्यन्ते, पाशा जीव- निबन्धनाः ॥

सामवेदीय जाबाल्युपनिषद् में जाबलि ने पैप्पलादि को शिव के पशुप स्वरूप का उपदेश दिया है

इस पशुपति स्वरूप का ध्यान इस प्रकार है-

मध्याह्नार्क-समप्रभं शशिधरं भीमाट्टहासोज्ज्वलं,
त्र्यक्षं पन्नगभूषणं शिखि शिखाश्मश्रु- स्फुरन्मूर्द्धजमू ।
हस्ताब्जैस्त्रिशिखं सुसुन्दरमसिं शक्ति दधानं विभुम्
शुक एक द्रष्टा भीम चतुर्मुखं पशुपतिं दिव्य स्वरूपं भजे ॥

शिव की आत्मरूप मूर्ति ही पशुपति कहलाती है और समस्त पशु अथ प्रजा या जीव जगत् पर नियमन रखने के कारण प्रजा के पति भी हुए सामान्यतया प्रजापति का पद ब्रह्मा जी या दक्ष मरीचि आदि के लिए रूढ प्रचलित है क्योंकि इन्होंने प्रजा की रचना (सृष्टि) विकास के आकाश को अ में समाहित कर लिया है, फिर भी ब्रह्मा जी से प्रार्थित एवं प्रेरित श्री शिव के अपनी तरह के रुद्रगणों की सृष्टि कर दी थी जो रुद्रगण अमर अजर शिव रुप थे— बाद में ब्रह्माजी के आवेदन पर श्रीशिव ने इस रुद्रगण स को स्थगित कर दिया—यह वर्णन शिव, कूर्म, लिङ्ग एवं स्कन्दपुराण है— अतः प्रजापति की तरह सर्जन-प्रक्रिया में सहयोग करने से इन्हें सहज भा से ‘प्रजापति’ भी कहा जाने लगा। इसी बात को श्रीमद्भागवत तृतीय स्की में स्वयं ब्रह्मा जी रुद्र से कहते हैं-

‘एभिः सृज प्रजा बह्वीः प्रजानामसि यत्पतिः ।।’ इससे प्रेरित रुद्र ने सृ की जो ब्रह्माजी को रास न आई और कहा-‘तप आतिष्ठ भद्र सर्वभूत-सुखावहम्। तपसैव यथापूर्वं स्रष्टा विश्वमिदं भवान् ॥8 ॥’

श्रीशिव का हरिहरात्मक रुप

शिव के अर्धनारीश्वर रूप के समान इनका हरिहर-रूप भी विलक्षणता, विविधता, विचित्रता, विशदता को जग जाहिर करने में माहिर लगता है। अर्धनारीश्वर रूप में दक्षिण भाग में स्वयं हर तथा वाम-भाग में अभिन्न शक्ति शिवा है वैसे ही इस रूप में दक्षिणार्ध में हर हैं तो वामार्ध में हरि । वैदिक शब्दावली में ‘अग्निर्वैरूद्रः सोमो वै विष्णुः’ कहा है और इन दोनों का योग ही जगत् है । महाभारतकार इसी आकार प्रकार को पुकारता है— (01) “अग्नीषोमात्मकं जगत् (श्रुति) । उमया सहितः सोमः इस निर्वचन के प्रपंच में शिवासहित शिव ही ‘सोम’ नाम से पंजीकृत है। रुद्रहृदयोपनिषद् में श्री विष्णु को ‘उमा’ कहा है अर्थात् योनिस्वरूप बताया है, शिव लिङ्गरुप है। (सुस्पष्ट है) और प्रकृतिस्तस्य पत्नी च पुरुषो लिङ्गमुच्यते’ वचन से सिद्ध है कि विष्णु प्रकृति है और शिव पुरुष है। लिङ्गपुराण उत्तरार्द्ध की 54वीं अध्याय में ‘त्र्यम्बकं यजामहे’ मन्त्र का अर्थ करते हुए कहा गया है कि शिव उत्पत्ति हुई । ने विष्णु-रूपी योनि में वीर्य का आधान किया जिससे हिरण्यमय अण्ड की

अथात् इस प्रकार इस प्रकृति-पुरुष का मिला हुआ (संश्लिष्ट) स्वरूप ही वैसे ‘हरिहरात्मक’ रुप से प्रतिष्ठित है ।

वास्तव में देखा जाये तो परम शिव या महाविष्णु दोनों के शब्दार्थ में साम्यता ही नहीं बल्कि ऐकान्तिक घनिष्ठता है— यथा— ‘शेरतेऽस्मि न्सर्वे’ इति शिव तथा वेवेष्टीति विष्णु:’ साथ ही कार्य क्षेत्र में भी दोनों में कुछ ऐसा ही प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। जैसे-

  1. (1) योगेश्वर–’हमरे जान सदा शिव जोगी’ (पार्वती- मानस) ‘यत्र योगेश्वरः कृष्णः’ (गीता 18 अ.) अन्य भी यत्र तत्र बहुत प्रमाण हैं ।
  2. नटराज- ‘नृत्तावसाने नटराज राजो’ (लघु सिद्धान्त कौमुदी वरदराज टीका) तथा ताण्डव नृत्य उधर कालिय नागफण पर नृत्य, रासलीला में-नृत्य तो मोहिनी अवतार रूप में नृत्य ।
  3. एक का वंशीवादन तो दूसरे का डमरु का डिण्डिमघोष ।
  4. एक पिनाक धनुषधारी तो दूसरे शार्ङ्गधनुर्धारी ।
  5. संसार-कल्याणार्थ धर्मसंस्थापनार्थ दोनों के द्वारा विभिन्न अवतार लेना ।
  6. एक के हाथ में त्रिशूल तो दूसरे के पास सुदर्शन चक्र ।
  7. दोनों के द्वारा अपने अपने उपासकों को वरदान देना ।
  8. दोनों का भोगी रूप – ‘हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि विधि विपुल काल चलि गयऊ।’ (मानस) तथा ‘सहस्त्रषोडशस्त्रीशो भोग मोक्षैकदायकः’ (गोपाल-सहस्रनाम)
  9. दोनों का संयमी रूप — सती/पार्वती के साथ मर्यादित जीवन तो लक्ष्मी या सीता के साथ मर्यादित जीवन ।
  10. एक पर निरन्तर जल से अभिषेक तो दूसरे का क्षीर-समुद्र में शयन ।
  11. दोनों के द्वारा देव-दावन-मानव तथा अन्य जीव जगत् को विषम कष्टों / समस्याओं से छुड़ाना तथा सही सही मार्गप्रदर्शन करना और भक्तों पर अहैतुकी कृपा बनाये रखना ।
  12. दोनों का मोक्षदायक होना और सम्पूर्ण ज्ञान के भाण्डार होना ।
  13. परस्पर एक दूसरे को सम्मान देना। देखें-बाणासुर-प्रसङ्ग मोहिनी- अवतार शिव का कृष्ण बालदर्शन हेतु गोकुल जाना, रामराज्याभिषेक समारोह में जाना आदि ।
  14. स्तोत्रों में एक दूसरे के नाम-विष्णु सहस्रनाम – सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिनिधिरव्ययः’ तथा श्रीगोपालसहस्रनाम में ‘शिवो रुद्रो नलो नीलो लाडुली लाडुलाश्रय:’ । आदि नाम शिव के तथा शिवसहस्त्रनाम में विष्णु के नाम पाये जाते हैं । तथा दोनों का शरणागत वत्सल होना। शिव के लिए शुक देव कहते हैं— ‘भगवान् सर्वभूतेशः शरण्योभक्तवत्सलः’ तो मानस सुन्दरकाण्ड में राम स्वयं कहते हैं-कोटि विप्र वध लागहि जाहू । आए सरन तजउ नहि ताहू
  15. दोनों का ब्राह्मणभक्त होना—विवाह-समय शिव-बैठे शिव विप्रन्ह शिरनाई। (रा. मा.) श्रीमद्भागवत स्कन्ध 12 मार्कण्डेय प्रसङ्ग में श्री शिव कहते हैं

    ‘वरं वृष्णीष्व नः कामं वर-देशा वयं त्रयः ।
    ‘ अमोधं दर्शनं येषां मर्त्योयद् विदन्तेऽमृतम् ॥1 ॥
    अहञ्च भगवान् ब्रह्मा च स्वयञ्च हरिरीश्वरः ।
    सलोका लोकपालास्तान् वन्दन्त्यर्चन्त्युपासते ॥2 ॥
    ब्राह्मणेभ्यो नमस्यामो येऽस्मद् रूपं त्रयीमयम् ।
    बिभ्रत्यात्म-समाधान- तपः-स्वाध्याय-संयमैः ॥13 ॥

    तो विष्णु कहते हैं—विप्र – प्रसादात्कमलावरोऽहम् । विप्र-प्रसादाद्धरणीधरोऽहम् ।।
    श्रीमद्भागवत में— अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणो मामकी तनू ।

  16. दोनों का शापित होना— दक्ष से – ‘सह भागं न लभतां देवैर्देवगणाधमः’ शिव को तथा नारद द्वारा ‘मम अपकार कीन्ह तुम भारी । नारि विरह तुम्ह होव दुखारी’ और वृन्दा से पत्थर होने का शाप विष्णु को मिला।
  17. एक नाग लपेटे दूसरा नाग पर शयन करे ।

इस तुलनात्मक अध्ययन – विश्लेषण को विराम देते हुए हरिहरात्मक रूप और अधिक विवेचना करने से पूर्व श्रीविष्णु से शिव कहीं इक्कीस ठहरते है और जो विष्णु की अपेक्षा इन्हें ईश्वर पद का अधिकारी बनाते हैं, ऐसे बिन्दुओं को विचारते हैं—

  1. श्रीशिव स्पष्ट नीतिज्ञ है, छल-कपट से असङ्ख्य कोसों दूर हैं जब कि विष्णु कूटनीतिज्ञ है, छल कपट पटु हैं’ यथा नारद जी — ‘असुर सुरा विष संकरहि आपु रमा मनि चारु’ । स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट व्यवहारु ।। (मानस) इसके अतिरिक्त जैसे- बालिवध, जयद्रथ वध, जालन्धर-वध, देवताओं को अमृत पान आदि । (विचारकों मनीषियों की बात का तो कहना ही क्या ? दूसरे कोई भी आम आदमी स्वप्न में भी यह सोच नहीं सकता कि ईश्वर भी छल-पाखण्ड-दम्भ, इर्ष्या आदि का व्यवहार करने वाला हो सकता है । फलस्वरूप निष्कपट निःस्पृह शिव ही इस बिन्दु (निष्कपटता) के सिन्धु हैं न कि अन्य तथाकथित देवता- गण । कहा भी है- स्वयमसिद्धः परान् कथं साधयेत् ? अथवा भोजने यत्र सन्देहः धनाशा तत्र कीदृशी ? अर्थात् जो स्वयं असफल है वह दूसरों को सफल कैसे कर सकता है ? या जहाँ भोजन मिलने में ही सन्देह है तो वहाँ धन-प्राप्ति की आशा रखना सर्वथा बेमानी है। भावार्थ – जब ईश्वर ही कपट करेगा तो फिर न्याय, धर्म, सत्य कहाँ रहेंगे ? )
  2. एक पर्वत (आकाश) शिखर पर (शिव) तो दूसरा समुद्र (पाताल) में रहता है।
  3. शिव ने किसी की पूजा अर्चना नहीं की केवल चिन्ता और ध्यान सभी का रखा जिसमें विष्णु का विशेष क्योंकि वह इष्ट-चहेते कुछ ज्यादा ही थे-जैसे ‘सोई मम इष्ट देव रघुवीरा’ (मानस) तथा ‘संसार सार-चिन्तयामि सनातनम्’ (गो. स.)
  4. सभी को वरदान दिया—किसी से लिया नहीं ।
  5. अर्द्धनारीश्वर रूप ।
  6. हरिहर-रूप ।
  7. प्रकृति एवं पर्यावरण से अभिन्नता ।
  8. अनुग्रह कार्य हेतु अष्टमूर्ति- रूप
  9. मृत्युञ्जय-रूप ।
  10. नीलकण्ठ-रूप ।
  11. कामदहन – रूप ।
  12. समस्त ब्रह्माण्ड के जीव-जगत् का इनके लिङ्ग भगचिह्न से युक्त की होना ।
  13. समदर्शी ।
  14. वैद्यनाथ – रूप ।
  15. शिवरुद्र विरोधी भासी रूप।
  16. शीघ्र प्रसन्नता मात्र जल से, शिव वृकासुर (भस्मासुर) से कहते हैं- – प्रीयेय तोयेन नृणां प्रपद्यतामहो त्वयात्मा भृशमर्द्यते वृथा । अतः आशुतोष या भोलाबाबा
  17. माया के अधीन न होना ।
  18. त्यागी।
  19. जगद्गुरु/उपदेष्टा ।
  20. समस्त विद्याओं के स्वामी ।
  21. त्रिगुणमूर्ति रूप आदि ।

यहाँ ‘हरिहर’ शब्द में ‘हरि’ शब्द का पहले आना सीताराम राधाकृष्ण या पार्वती परमेश्वर की तरह समझा जावे, क्योंकि विष्णु योनिस्वरूप है।

विशेष— लिङ्ग (निराकार रूप ) – मूर्ति साकार रूप होना जबकि ऐसे उपर्युक्त रूप तथा कथित अन्य किसी देवताओं के नहीं हैं। अस्तु । अब हरि-हर रूप पर आगे अनुशीलन करें तो पायेंगे कि इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उड़ीस प्रान्त भुवनेश्वर में श्रीलिङ्गराज का मन्दिर है, जो स्थापत्यकला का दुर्लभ उदाहरण है और जहाँ हरिहर की एक पीठ पर पूजा की जाती है बिल्वपत्र एवं तुलस एक साथ चढ़ते हैं, दोनों के बारे में प्रसिद्ध है-अगुन अरूप अलख जोई। भगत प्रेम वस युत सो होई । दोनों के ही प्रसिद्ध नाम दो दो अ के हैं- विष्णु, राम, कृष्ण हरि तो शिव रुद्र और हर । श्रीशिव ने जहाँ तह श्रीविष्णु के महत्त्व का प्रतिपादन किया है-श्रीमद्भागवत कथा जिसे अमरकथ भी कहते है श्रीशिव ने ही पार्वती जी कों अमरनाथ नामक स्थान पर एकान्त में सुनाई थी जिसे तोते ने सुना और वही तोता शुकदेव मुनि बनकर परीक्षित् का उद्धारक बने । रामायण कथा— लगै बहुरि बरनै वृष केतु-सो अवतार भयऊ जेहि हेतू (रामचरित बालकाण्ड) तो विष्णु ने कमलों से पूजा कर सुदर्शन चक्र शिव से पाया । इधर विष्णु ने राम-रूप में रामेश्वरम् शिवलिङ्ग की स्थापना कर शिव को अपना अन्यतम स्वरूप माना । यथा-

लिङ्ग थापि विधिवत् करी पूजा ।
शिवसमान प्रिय मोहि न दूजा ।
शिवद्रोही मम दास कहावा ।
सो नर सपनेहु मोहि न पावा ।
शंकर प्रिय मम द्रोही शिव द्रोही मम दास ।
सो नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँवास
जे रामेश्वर दरसनु करहिं ।
ते तनु तजि मम लोक सिधरहिं ।

इस प्रकार दोनों के लिए परमात्मा व एकरूपता के बहुत से प्रमाण मिलते है ।

इसी बात की चतुराई और गहराई से छान बीन करते हुए जैसे-जैसे हम आगे बढते हैं तो हरिहर रूप से प्रमाणों की लम्बी परम्परा अपने यौवन- रूप में सामने उपस्थित होती है-

जगत् के मूल ज्ञान, क्रिया और अर्थ हैं । क्रिया यज्ञ को कहते हैं और यज्ञ विष्णु-रूप है, इस विनिवेश से कुर्वद्रूपता में ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति विष्णु होते हैं और प्रशान्तभाव के क्षेत्र में तथा ज्ञान और अर्थ रूप में ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति शिव होते हैं। कहा है-

“शब्द जातमशेषं तु धत्ते शर्वस्य वल्लभा । अर्थजातमशेषं च धत्ते मुग्धेन्दु शेखरः ॥

इस प्रकार यज्ञ से अर्थ बनता है अर्थ से ज्ञान और ज्ञान से क्रिया (यज्ञ) वस्तुतः ये दोनों सापेक्ष हैं और मूलरूप एक होने से एक हैं। विवक्षा- भेद ही इन दोनों रूपों में अन्तर डालता है। विष्णु-पुराण में बाणासुर-युद्ध प्रसंग श्रीकृष्ण (विष्णु) ने शिव की बात का ही अनुमोदन किया है—

“भवतो यद् व्यवसितं तन्मे साध्वनुमोदितम्।” श्रीमद्भागवते 10/63/46 में श्रीशिव विष्णु से कहते हैं-

” ममैव हृदये विष्णुर्विष्णोश्च हृदये ह्यहम् ।
पद्म पुराण में राम का शिव के प्रति यह निवेदन-
“ ममास्ति हृदये शर्वो भवतो हृदये त्वहम्”
ब्रह्मवैवर्तपुराण में श्री कृष्ण का यह कथन—
” त्वत्परो नास्ति मे प्रेयांस्त्वं मदीयात्मनः परः “

श्रीनारदजी विष्णु को शाप देने के बाद पश्चात्ताप करने लगे तब श्रीविष्ण ने कहा – “जपहु जाय शङ्कर सतनामा । होइहि हृदय तुरत विश्रामा । कोउ नह सिवसमान प्रिय मोरें । जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी सो न पाव मुनि भगति हमारी ।।” वायु-पुराण का यह आवेदन –

प्रकाश चाप्रकाश च जङ्गम स्थावरन्तथा । विश्वरूपमिदं सर्वं रुद्रनारायणात्मकम् ॥

वराहपुराण का यह विवेचन-

“पुरुषो विष्णुरित्युक्तः शिवो वा नामतः स्मृतः ।

उक्त समस्त प्रमाण शृङ्खला शिव विष्णु को विशृङ्खलित न होने में तथा अभेद होने की बात बताने में अपना पूरा सहयोग देते हैं। पुराणों के प्रमाणों की परम्परा से प्रभावित ‘महास्कन्दपुराण’ अपना स्खलन न रोक सका और प्रकट कर बैठा—

यः शिवः स स्वयं विष्णुर्यो विष्णु स सदाशिवः ।’

इतने से भी जब सन्तोष न हुआ तो एक आख्यायिका-रूपी सुन्दरी को जन्म दिया। ब्रह्माजी देवताओं से दीवानापन छोड़कर शिव विष्णु वास्तविकता जानने के लिए जोर पर जोर डालते हुए कहते हैं-

‘एकदा शिवभक्तानां विवादः सुमहानभूत् ।
एक समं केशव भक्तैश्च परस्पर- जिगीषया ॥
ततस्तु भगवान् रुद्रः स्वभक्तानां च पश्यताम् ।
एकं विष्णु गणैः कुर्वन् दधे रूपं महदद्भुतम् ॥
तदा हरिहराख्यञ्च देहार्धाम्यां दधार सः ।
हरश्चैवार्ध-देहेन विष्णुरर्धेन चाभवत् ।
एकतो विष्णु चिन्हानि हर – चिह्नानि चैकतः ॥
एकतो वैनतेयश्च बृषभश्चान्यतोऽभवत् ।
वामतो मेघवर्णाभो देहोऽश्म-निचयोपमः ।
कर्पूर-गौर: सव्ये तु समजायत वै तदा ।
द्वयोरैक्यं समं विश्वं विश्वमैक्यमवर्तत ॥

विष्णु का नर्मदा नदी में शालिग्राम के रूप में होना (अ. 12) शिव का रेवा नदी में शिलाभाव में होना । (महास्कन्द पु. ब. खण्ड अध्याय 27 )

अर्थववेदीय नील रुद्रोपनिषद् भी अपनी खामोशी तोड़कर शिव विष्णु की एकता का प्रतिपादन करता है। इसके अतिरिक्त जिस राम को शिव अपना इष्ट — चहेता, मानकर ध्यान करते हैं ख्याल रखते हैं-वही राम शिव को आदेश न देकर नम्रता से आवेदन करते हैं— (मानस से)

अब बिनती मम सुनहु शिव जो मौं पर निज नेह । जाहि विवावहु सैलजहिं यहि मोहि माँगे देहू । निष्कर्ष रूप में किसी आचार्य का यह कथन कितना सार्थक और सटीक निर्णय दे रहा है —

“हरिहरयोः प्रकृतिरेका प्रत्यय-भेदेन रूप-भेदोऽयम् एकस्यैव नटस्यानेकविधा भूमिका भेदात् ॥

अथवा

उभयोरेका प्रकृतिः प्रत्ययतो भिन्नवद् भाति । कलयतु कश्चन मूढो हरिहर-भेदं विना शास्त्रम् ।

ankush

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