शिव का भक्त रूप,समाधिरूप,त्रिकालदर्शी एवं वरदाता रूप,मुक्तिदाता रूप
आप सभी जानते हैं, कि भारतीय संस्कृति में एक दूसरे को सम्मान देन और एक-दूसरे को बड़ा बताना, घर-सा कर गया है । कहीं-कहीं अतिशयोक्ति या काव्य-रूप का आश्रय लेने से सामान्य जन-मानस का सहज ही भ्रमित हो। जाना महज एक परम्परा सी बन गयी है। पूर्व में आपने हरिहर रूप का गहनता से अध्ययन किया होगा तो यहाँ भ्रमित न होना पड़ेगा। जैसे— पार्वतीजी भ्रमित थीं। गोपाल-सहस्रनाम में ‘ब्रह्माण्डाखिलनाथस्त्वं- सृष्टिसंहार-कारकः । त्वमेव मिलती है, ऐसी पूज्यसे लोके-ब्रह्म-विष्णु सुरादिभिः । नित्यं पठसि देवेश ! कस्य स्तोत्रं ज्ञानवापी का ज महेश्वर । आश्चर्यमिदमत्यन्तं, जायते मम शङ्कर । यहाँ शङ्कर जी ने संसारसार-सर्वस्वं श्यामलं महदुज्जवलम् एतज्ज्योतिरहंवेद्यं चिन्तयामि सनातनम्। अर्थात् मैं श्रीकृष्ण की चिन्ता करता हूँ उत्तर दिया है । श्रीमद्भागवत 4 स्कन्ध 3/23 में शिव सती से कहते हैं— सत्त्वं विशुद्धं वसुदेव-शब्दितं यदीयते तत्र पुमानपावृतः । सत्त्वे च तस्मिन् भगवान् वासुदेवो ह्यधोक्षजो मे नमसा विधीयते । अर्थात् अन्तःस्थ ही वसुदेव है और इसका निवासी ही मेरा नमन-योग्य है । मानस (बालकाण्ड) में देखें- शिव ने सती त्याग का निर्णय किया तब आकाशवाणी हुई कि ‘अस पन तुम्ह बिन करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना।’ सुन्दरकाण्ड में श्री शिव का भाव विभोर होकर भक्ति रस में डूबना ध्यातव्य है । – ‘प्रभु कर पंकज कपि के सीसा।’ सुमिरि सो दशा मगन गौरीसा” यहाँ यह भी न भूलें कि स्वयं शिव ही हनुमान् के रूप में हैं। श्रीहनुमान् श्रीराम-प्रभाव को बढ़ा चढ़ाकर रावण से कहते हैं—-
जाके बल विरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा।
पुन: कहते हैं— संकर सहस विष्णु अज तोहि । सकहि न राखि राम कर द्रोही ॥
दक्ष यज्ञ पूर्ण होने पर प्रकट हुए विष्णु से शिव कहते हैं— तव वरद वराङ्ग्रावाशिषेहाखिलार्थे, ह्यपि मुनिभिरसक्तैरादरेणार्हणीये । यदि रचितधियंमाविद्यलोकोऽपविद्धं जपति न गणये तत्त्वत्परानुग्रहेण । “ 4/7/29 इस तरह शिव अपने ही हरिहर-रूप की भक्ति / चिन्तन करते रहते हैं।
शिव का मुक्तिदाता रूप
श्री शिव का यह रूप ब्रह्माण्ड के प्राणिमात्र को कर्मबन्धनों तथा हृदयगत संशयों से दूर कर संसार में आवागमन का चक्र मिटाने में पूर्णतया सक्षम है। मोक्ष के बारे में किसी ने कहा है।
‘मोक्षस्य नहि ग्रामोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव वा ।
अज्ञान-हृदय-ग्रन्थिः-नाशो मोक्ष इति स्मृतः ।’
यह बात लोक-भावना में पूरी तरह पैठ बना चुकी है कि मरते समय काशीवास करना चाहिये, क्योंकि काशी (जिसे धरती से अलग माना है अथवा जिसका माहात्म्य अचिन्तनीय कहा है ।) शिव क्षेत्र है, यहाँ मरने से मुक्ति मिलती है, ऐसी लोक-भावना बड़ी सुदृढ़ विचार- भित्ति पर खड़ी है। काशी में ज्ञानवापी का जल सेवन करने से दिव्य दृष्टि होती है । पञ्चकोशी यात्रा का बड़ा फल है । पञ्चकोशी लिङ्ग-दर्शन से ब्रह्म-हत्या तक नष्ट हो जाती है। तिरहंवेद्यं चित विश्वनाथ-लिङ्ग तो अपने आप में अद्वितीय है ही । पञ्चकोशी-लिंङ्ग के पास दिया है। श्रीमद्भाग लक्ष्मी विष्णु, शङ्कर भवानी, ढुंढिराज, 56 गणेशों 13 नृसिंहों, 16 केशवों व वशुद्धं वसुदेव- शक्तियों, राम-कृष्ण के अनेक अवतारों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। मणिकर्णिका वासुदेवो हाथोहा घाट को काशी का मुक्तिस्थल माना गया है, यह पाँच तीर्थों में से एक है, यह वही स्थान है, जहाँ पर शिव ने विष्णु से शपथ ली है कि जिस मृत शरीर अधिअन्तिम दाह संस्कार यहाँ होगा, वह स्वर्ग की बजाय अपवर्ग (मोक्ष) का अधिकारी होगा। राम नाम को तारक मन्त्र कहा है शायद इसी लिए मुर्दे को घर से चिता स्थल तक ले जाते समय ‘राम’ नाम का उच्चारण किया जाता है। तुलसी के शब्दों में- ‘महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासी मुकुति हेतु उपदसू ।’ शुक्ल यजुर्वेदीय मुक्तिकोपनिषद् अथर्ववेदीय श्रीरामोत्तरतापनीयोपनिषद् में शिव को मुक्ति हेतु तारक-मन्त्र- दाता कहा है। ‘ऋतेज्ञानान्नमुक्तिः’ और ‘ज्ञानमिच्छेत् महेश्वरात्’ के अनुसार स्वयं शिव ज्ञानरूप हैं अतः प्रत्यक्ष ही मुक्तिदाता हैं। शिव पुराण कोटि-रुद्रसंहिता संक्षेप में कहती है—‘मुक्तेर्दाता मुनिश्रेष्ठाः केवलं शिव उच्यते ।’
समाधिरूप— इस रूप में आत्मा को परमात्म-तत्त्व में समाहित दिया जाता है— यथा— आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः । तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः ॥
कहावत है- ‘नारी मरी घर संपति नाशी। मूँड मुँडाय भये संन्यासी’ यहाँ शिव सप्तऋषियों के मत से – ‘निर्गुण निलज कुवेष कपाली। अगेह दिगंबर व्याली’ हैं और इधर “जब तें सती जाइ तनु त्यागा । तब तें शिव मन भयऊ विरागा । इस प्रकार अब संन्यास और समाधि ही शिव की आधि-व्याधि को नाश की उपाधि दे सकते हैं । तुलसी लिखते हैं- संकर सरूपु तुम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा। पुनश्च – बीते संवत् सहस सतासी। तजी समाधि संभु अविनासी । यहाँ ध्यान दें-ऊपर वाली कहावत केवल जन-साधारण के लिए कही गई है। ‘चित्तवृत्ति-निरोधः समाधिः’ और इस चित्तवृत्ति को संयमित करने के लिए प्राणायाम के व्यायाम से गुजरने पर ही श्रेष्ठ आयाम कायम होता है । प्राणायाम – विधि है—
“पवित्रो भूत्वा पूर्वाभिमुखः बद्धासनः सम्मीलित नयनो मौनी ।
प्राणायाम त्रयं कुर्यात् । तत्र वायोरादान-काले पूरक-नामा प्राणायामस्तत्र नीलोत्पल-दल- श्यामं चतुर्भुजं विष्णुं नाभौ ध्यायेत् ।
धारणकाले कुम्भकस्तत्र कमलासनं रक्तवर्णं चतुर्मुखं ब्रह्माणं हृदि ध्यायेत् । त्यागकाले रेचकस्तत्र श्वेतवर्णं त्रिनयनं शिवं ललाटे ध्यायेत्। इस विधि पर विचार करें तो स्पष्ट है कि शरीर का उत्तमाङ्ग शिर है ‘शीर्षस्थ है’ और यहीं शिव का ध्यान अपेक्षित है— स्पष्ट है कि यह श्रेष्ठता ही इन्हें ईश्वर का ऐश्वर्य देती है। शिव का यह समाधि रूप/तपस्वी रूप/संन्यासी रूप/फक्कड़रूप (अर्थात् फाफा फक्त फराक दिल आसन दृढ़ गंभीर । फिकर वेश-: – भूषा फारि कफन करे तिसको कहे फकीर) भला किसे प्रिय नहीं है ? जो मस्ती के आलम में हालाहल गरल गटक जाये, व्याघ्रचर्म पहने, चिताभस्म को ही माने सदा समाधि, योग तथा तप (तप के बारे में कहा है-
तपः सत्यञ्च धर्मञ्च तपो ब्रह्म च शाश्वतम् ।
आचारञ्चैव शौचञ्च स्वर्गाय विदधे प्रभुः ।। (महाभारत)
की त्रिवेणी में गोता लगाता रहे—भला यह रूप विचित्र होता हुआ भी किस सहृदय (सवासनानां सभ्यानां रसस्य नं भवेत्) (साहित्य दर्पण) की हृतन्त्री को झङ्कृत नहीं करता ।
वाह रे ! भोलाबाबा | बम भोला |
कहा भी है- तुलसी या संसार में पंचरत्न है सार । साधुमिलन और हरिभजन दया दीन उपकार ।
त्रिकालदर्शी एवं वरदाता रूप– स्पष्ट है। निदर्शनार्थ-काम-पत्नी रति को भविष्य कथन- ‘जब जदुबस कृष्ण अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा। कृष्ण तनय होइहि पति तोरा । वचनु अन्यथा होई न मोरा। ऐसे ही यत्र तत्र सर्वत्र असख्य प्रसंग हैं जोशिव को ज्योतिषी/त्रिकालदर्शी/भविष्यवक्ता का रूप देते हैं। सती के कथन- ‘शिव सर्वज्ञ जान सबु कोई’ इनको त्रिकालदर्शी सिद्ध करते हैं— ‘विष्णु जो सुरहित नर तनुधारी । सोउसर्वज्ञ जथा त्रिपुरारी।’ वरदान देने में ऐसे दाता हैं कि यह भी भूल जाते हैं कि इस वरदान का क्या परिणाम होगा ? सभी लोग भस्मासुर प्रसंग जानते ही हैं। स्वयं ने कभी किसी से कोई वरदान नहीं माँगा अपितु दिया ही दिया। इन वरदानों की खदान खोदें तो कोई ओर छोर नहीं मिलेगा अतः वरदानों की सूची बनाना उसी प्रकार व्यर्थ होगा, जैसे-
किं तैर्येऽनडुहो नोह्याः, किं धेन्वा वाप्यदुग्धया ।
वन्ध्यया भार्यया कोऽर्थः कोऽर्थो राज्ञोऽप्यरक्षिता ।।
यथा दारुमयो हस्ती, यथा चर्ममयो मृगः ।
यथा ह्यनर्थः षण्ढो वा, पार्थ क्षेत्रं यथोषरम् ॥
मेघो न वर्षते यश्च सर्वथा ते निरर्थकाः । (म. भा. शान्तिपर्व)
फिर भी चलते-चलते ब्रह्मा, विष्णु, राम, कृष्ण, रावण, बाणासुर, अर्जुन, मार्कण्डेय आदि के नाम सामने आ ही जाते हैं।
रुद्राक्ष रूप- विना भस्म त्रिपुण्डेन विनारुद्राक्षमालया ।
बिल्वरूप – विना बिल्वस्य पत्रेण नार्चयेत् गिरिजापतिम् ॥
रुद्राक्ष एक महौषधि है । यह उष्ण तथा अम्ल होने से रक्त विकार-नाशक और सर्दी कफ से होने वाले समस्त रोगों में लाभप्रद है इतना ही नहीं, अपितु तीनों दोषों और सातों धातुओं को सन्तुलित एवं सामान्य बनाता है— इसके कुछ प्रयोग निम्नलिखित हैं-
- रुद्राक्ष का प्रयोग कम से कम चालीस दिन किया जावे।
- विषाक्त फोडों पर लेप करें लाभ होगा ।
- उच्च रक्त चाप निवारणार्थ, मानसिक शान्त्यर्थं त्वचा के विभिन्न रोगों के नशार्थ, आत्मविश्वास वृद्ध्यर्थ स्वाक्षमाला हृदय-स्मशा धारण करे
- रुद्राक्ष दूध में उबाल कर पीने से खाँसी में लाभ स्मरण-शक्ति दे हो
- घुटने व अन्य जोड़ों में सूजन आने पर सरसों के गुन गुने तेल में रुद्राक्ष का चूर्ण मिलाकर लगाये लाभ रहे।
- खाथ के दाने रात्रि में ताँबे के बर्तन में जल में डाले, शब्द निकाल खाली पेट जल पांवे तो हृदय-रोग एवं कब्ज रोग दूर हो।
- विदेश यात्रा समय एक मुखी, चौदहमुखी, या गौरीशङ्कर रुद्राक जो बिना बाधा के याचा सफल हो।
इसी प्रकार बिल्व पत्र भी औषधि का काम करता है— अतिसार । मे) दरोगा में बिल्व मुरब्बा, बिल्व-चूर्ण बहुत उपयोगी है वैसे ही गर्मियों में का जूस ठण्डा और पाचक होता है।
इन दोनों के और अनेक प्रयोग हैं विस्तार-भावात् अधिक लिखना उचित नहीं ।
विवेक चिन्तामणि अन्यानुसार शिव-नेत्र से रुद्राक्षफल की उत्पत्ति कही गई हैं। इसे किशक्ति फल भी कहते हैं। कात्यायन-शाखा, दिव्यागमा, शिवरहस्य स्कन्दपुराण, सिद्धान्तशिखामणि आदि ग्रन्थों में रुद्राक्ष एक मुख से लेकर इक्कीस मुख तक के बताये है। शिवकृपा रुद्राक्ष दिवस के बारे में कहा है-
रवि पुष्ये च पुष्पाकें श्रावण कृष्ण पक्षगे।
शिव कृपा दिवसोऽस्ति सर्वसौख्य प्रदायकः ॥
2057 श्रवण कृष्णा 14 रवि को यह योग था।
श्रीहरि को जैसे तुलसी पत्र परमप्रिय है वैसे ही शिव को अपने त्रिगुणात्मक व विदात्मक रूप बिल्व पत्र का विकल्प हो कायाकल्प लगता है। वृक्षों में बड़ शिवरूप है पोपल विष्णुरूप तो आँवला ब्रह्मा रूप है। ध्यान दें-ब सबसे विशाल और ज्यादा उपयोगी है। प्रलय-काल में मार्कण्डेय ने वट-पत्र पर ही बालमुकुन्द के दर्शन किये थे। वट सावित्री-पूजा प्रसिद्ध है जो शिव के मृत्युञ्जय रूप को ध्वनित करती है।
कुबेर-मित्र : भगवान् शिव का यह रूप-लोक दृष्टि से विचित्र तथा असाधारण कहा जा सकता है क्योंकि
स्वयं महेशश्श्वसुरो नगेशः सखा धनेशस्तनयो गणेश
भिक्षाटनमेव शम्भोर्बलीयसी केवलमीश्वरेच्छा ॥
यह सर्वविदित तथ्य है कि यह जगत् अर्थ (धन) और स्वार्थ (अपना मतलब) रहा है और नीति-शास्त्र की रीति-रूपी रागिनी का राग अलाप रहा है-
“ययोरेव समं वित्तं, ययोरेव समं कुलम् ।
तयोर्मैत्री विवाहश्च, न तु पुष्ट-विपुष्टयोः ॥
बात तो बहुत सटीक तथा स्पष्ट है किन्तु यहाँ ये दोनों बातें शिव के इस रूप के आगे पानी ही नहीं भरतीं, अपितु तीन पाँच भूलकर ऐसी नौ दो ग्यारह होती हैं जैसे खरगोश के सिरे से सींग गायब हैं। हमें नहीं भूलना चाहिये राज-राजेश्वर (कुबेर) यदि परमेश्वर (शिव) से मित्रता रखता है तो कुबेर जी ही लाभ है। कुबेर कला-कौशल-पारखी हैं, वह जानते हैं कि शिव योगिराज होकर भी अर्द्धनारीश्वर हैं, दिग्वसन होकर भी अतुल ऐश्वर्य प्रदाता हैं, चतुर होकर भी भोले भण्डारी हैं, श्मसानवासी होकर भी त्रैलोक्याधिपति हैं, अज होकर भी अनेक भस्म भुजङ्ग विभूषित हैं, कामजयी होकर भी प्रिया-पार्वती युक्त हैं तथा अकिञ्चन अधिक लिखना होकर भी धनाध्यक्ष के परम सखा हैं। इन्हीं विरोधाभासों के बीच देर-सबेर कुबेर वैसे ही गर्मियों में विरूपों से उत्पन्न हैं, गुणहीन होकर भी त्रिगुणात्मक हैं, अनन्त रत्नाधिपति होकर भी त् फल की उत्पत्ति कही खा, दिव्यागम, शिवाहर ाक्ष एक मुख से लेक स के बारे में कहा है- ष्ण पक्षगे। प्रदायकः ॥ को आभास हो गया कि शिव ही मेरे परममित्र हैं।