शिव अवतार

शिव-स्वरूप के चौथे वर्गीकरण में इनके 24 योगी अवतार तथा अन्य मानव अवतार (अश्वत्थामा, शङ्कराचार्य आदि) एवं पशु-पक्षी अवतार (शरभादि) आते हैं। इसके लिए शिव-पुराण, लिङ्ग-पुराण, भविष्य-पुराणादि पठनीय हैं क्योंकि इनके उक्त अवतारों का विशद वर्णन सदाशयता से विस्तार भयवशात् श्री वहीं सेवनीय है। ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ के सिद्धान्तानुसार तथा ‘परस्परं भावयन्तः परं श्रेयमवाप्स्यथ’ (गीता) के अनुसार जीव-जगत् के प्राणि-मात्र की हैं- ‘क्षेमं यथासमय उपासना से यथाकाल प्रसन्न होकर सनातन सदाशिव ने मानवादि त्रिलोकैव अवतार लेकर जगत् को प्रेरणा व आदर्श (कर्त्तव्य) का पाठ पढ़ाया है जिससे शिव को संसार का मर्यादित क्रम पूर्ण नियन्त्रण के साथ चलता रहे। अष्टकलावतार के उक्त भृगुवंशावतंश श्रीपरशुराम जी भी महेन्द्र पर्वत पर भगवान् शंकर जी की आराधना में संलग्न बताये जाते हैं । अर्थात् विष्णु शिवाराधना में संलग्न है ।

भगवान् शिव के यत्र तत्र सर्वत्र चर्चित चरित्र-चित्रणों में, विवाह-लीला में, युद्ध-लीलाओं में, ज्ञान- चर्चाओं में, सहस्रनाम आदि स्तोत्रों में, पार्वती जी को सुनाई गई विभिन्न कथा-प्रसंगों में तथा जानी अनजानी समस्त लीलाओं में, हमें उत्कृष्ट मानवीय उदात्त भावनाओं, आचरणों, आदर्शों, मान्यताओं, नियम, परम्पराओं और विभिन्न प्रवृत्तियों की भव्यता एवं दिव्यता के दर्शन होने के साथ ही उक्त बिन्दुओं की सनातनता और व्यापकता का डड्डा बजता सुनाई
देता है।

विशेष- शिरड़ी के साँई बाबा को लोग शिव-शक्ति का अवतार मानते हैं। इधर महात्मा बुद्ध जैन तीर्थङ्कर दिगम्बर श्रीमहावीर स्वामी, सिक्खों के श्रीगुरुनानक देव सभी शङ्कर जी की तरह तप, ज्ञान के बल पर सभी को उपदेश देकर मानव के कल्याण पर जोर देते हैं जिसकी झलकी हमें शिव के जगद्गुरु एवं उपदेष्टा-रूप में दिखाई देगी। अस्तु । विस्तारभयाद् विशेष वर्णन व्यर्थ है,.. क्योकि ‘उदीरितोऽर्थः पशुनापि गृह्यते।’ हयाश्च नागाश्च वहन्ति देशिताः । अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जनः । परेङ्गित-ज्ञान-फला हि बुद्धयः ॥

श्रीशिव के विभिन्न रूप (विशिष्ट रूप)

1. जगद्गुरु/ज्ञानदाता/उपदेष्टा रूप — शिव-स्वरूपों के वर्गीकरण का यह पाँचवाँ और अन्तिम सोपान भौरे की तरह रस निचोड़नेवाला तथा पञ्च की तरह निर्णायक है और इनके जगद्गुरु होने के गौरव का भार ढोने मे पूरी तरह से आतुर एवं लालायित है। गुरू, मन्त्र और ईश्वर ये तीनों एक ही शब्द के पर्यायवाची नाम हैं। जैसे कहा है-

यथा घटश्च कलशः कुम्भश्चैकार्थवाचकाः
तथा मन्त्रो देवताश्च गुरुचैकार्थवाचकाः ॥

श्रीविष्णु भस्मासुर से छुटकारा दिलाने के बाद शिव से कहते त् के प्राणि-मा हैं— ‘क्षेमीस्यात्किमु विश्वेशे कृतागस्को जगहुरौ।’ मार्कण्डेय जी ने ‘रुद्रं सदाशिव ने माता त्रिलोकैक गुरुं ननाम शिरसा मुनिः’। दक्ष यज्ञ में सती देह त्यागने के बाद पाठ पढ़ाया है कि शिव को मनाने ब्रह्मादि देवगण शिव-निवास स्थान पर जाते हैं और वहाँ शिव रहे। अष्टकताब के उक्त रूपों का सुन्दर दर्शन करते हैं । यथा— ‘प्राप्ताः किम्पुरुषैर्दृष्ट्वा त गवान् शंकर व आराद् ददृशुर्वटम् । तस्मिन्महायोगमये मुमुक्षुशरणे सुराः । ददृशुः शिवमासीनं राधना में संत त्यक्तामर्षमिवान्तकम्। सनन्दनाद्यैर्महासिद्धैः शान्तैः संशान्त विग्रहम् । उपास्यमानं सख्या च भर्त्रा गुह्यक- रक्षसाम् । विद्यातपो योग- तपमास्थितं तमधीश्वरम् । सन्ध्याभ्र- रुचा चन्द्र-लेखाञ्च विभ्रतम् । उपविष्टं व्यता के दर्शन (सभी श्लोक श्रीमद्भागवत से) और भी कहा है-‘गुरुर्देवो महेश्वरः ।’

‘गुरु’ शब्द का निर्वचन, अन्धकार (अज्ञान) को दूर कर प्रकाश (मार्गदर्शन करने वाला) देने वाला माना गया है और यह शिव-रूप पराम्बा पार्वती, देवर्षि नारद, श्रीब्रह्मा, श्रीविष्णु, प्रजापतिगण सनत्कुमारदि गण, देवगण, दैत्य-दानव ‍ को समय-समय पर दिये गये उपदेश मार्ग-दर्शन एवं संशय-निवारण के लिए ऋषि-महर्षि-परमर्षि-राजर्षि-श्रुतर्षि-ब्रह्मर्षि एवं सप्तर्षिगण श्री शुकदेव जी आदि यन्त्रादि ग्रन्थ सभी एक स्वर से शङ्कर जी के गुरु-पद को स्वीकार करते हैं। अत्यन्त प्रसिद्ध तथा शास्त्र-सिद्ध है । नाना पुराण निगमागम स्तोत्र तन्त्र मन्त्र श्रीगणेश तथा माँ शारदा के वन्दन के बाद अविराम गुरु शङ्कर का अभिनन्दन करना नहीं भूलते हुए श्रीतुलसीदास लिखते हैं-

‘वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कर-रूपिणम् ।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ॥’

आदि शङ्कराचार्य—(जगद्गुरु) श्रीशङ्कर के अवतार माने जाते हैं । यथा कथा है—

शङ्कर-आराधना-फलस्वरूप केरल प्रदेश के कालड़ी गाँव में पिता शिव गुरु एवं माता सुभद्रा ने प्राप्त पुत्र का नाम शङ्कर रखा। आठ वर्ष की अवस्था में चारों वेदों का अध्ययन कर शङ्कर ने गृह त्याग कर संन्यास ले लिया। महात्मा गोविन्दाचार्य से 3 वर्ष तक नर्मदा किनारे सभी शास्त्र पढे और काशी के विद्वानों पर शास्त्रार्थ में विजय पाई। बाद हिमालय से बदरीनाथ गये और प्रयाग लौटकर कुमारिल भट्ट से भेंट की—बाद मण्डन मिश्र को सपत्नीक शास्त्रार्थ में पराजित कर ब्रह्मसूत्रादि भाष्य ग्रन्थों की रचना की । इन्होनें ही अपने जीवन-काल में भारत की चारों दिशाओं में चार पीठ और चार धामों की स्थापना की । यथा क्रमश:

  1. शृङ्गेरी पीठ — दक्षिण भारत में तुङ्गभद्रा नदी के किनारे पर ।
  2. गोवर्धन पीठ — जगन्नाथपुरी उड़ीसा पूर्वी भारत में स्थापित ।
  3. शारदा पीठ– द्वारिकापुरी पश्चिमी भारत में ।
  4. ज्योतिष्पीठ — बदरीनाथ के निकट जोशीमठ उत्तर भारत में ।
  5. काम कोटिपीठ — शङ्कर की मृत्यु के बाद शृङ्गेरी पीठ की शाखा काँची पुरी में ।

चार धाम — (1) बदरीनाथधाम, (2) जगन्नाथ धाम, (3) द्वारिका धाम, (4) रामेश्वरम् । कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्’ भी ध्यातव्य है जो शिव के हरिहरात्मक रूप का पोषक है। शिव के बारे में कहा है-ॐ ईशान सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम् । (श्रीमद् भागवत) । हमारे सिक्ख भाइयों के परमाराध्य ‘श्रीगुरुदेव’ हैं जिनका नारा – ‘जो बोले सत्य श्री अकाल। वो हो जावे निहाल’ प्रसिद्ध है।

(ii) नटराज रूप इस रूप का सर्जन व संहार से विशेष सम्बन्ध है । शिव-शिवा (शक्ति) के मिलन-माधुर्य से उत्पन्न स्पन्दन ही ताण्डव नृत्य है जो इन्हें नटराज की पदवी देता है। इनका तीसरा नेत्र ताण्डव नृत्य के समय ही खुलता है (काम को भस्म किया तब भी तीसरा नेत्र खुला था) जो संहार का सूचक है । शब्द-शास्त्र व्याकरण की उत्पत्ति भी इसी रूप से हई है। यथा— नृत्तावसाने – शिव सूत्र जालम्” (पूर्व में लिखित) यह शब्द शास्त्र बैखरी वाक् का अन्तिम रूप है। परा, पश्यन्ती, वैखरी और मध्यमा नामक वाक् शक्तियाँ भी शिव पर आधारित हैं, फलत: शिव को मन्त्रशास्त्र प्रवर्तक भी कहा जाता है। लिङ्गपुराण में इनके ताण्डव नृत्य का वर्णन नटराज रूप को सार्थकता । रावणकृत ताण्डव स्तोत्र भी नटराज रूप पर सुन्दर तरीके से पर्याप्त प्रकाश डालता है । हरिहरात्मक रूप से श्रीकृष्ण भी नटवर तथा नाद स्वरूप देता है में वंशीवादक की विशेषता से विभूषित हैं— जब कि शिव डमरु के डिण्डिम
शास्त्र पढे और घोष को खास अहमियत देते हैं।

(iii) वैद्यनाथ रूप — हरिवंश पुराण की हरियाली हवा (भविष्य पर्व डन मिश्र को अध्याय सात में) सबको हिलाती हुई मुखरित हो रही है—

‘सर्वभूत पिशाचानां, मृत्यूनां च गवां तथा ।
उत्पात-ग्रह रोगाणां, व्याधीनां तु तथैव च ॥
व्रतानां चैव सर्वेषां महादेवः कृतः प्रभुः ॥’

अर्थात् अन्य कार्यों के अधिपति होने के साथ-साथ शिव को रोग तथा व्याधियों का स्वामी (अधिपति) पद भी दिया गया। शुक्ल यजुर्वेद में ‘प्रथमो देव्यो भिषक्’ कहकर शिव को उत्तम कोटि व प्रथम श्रेणी का चिकित्सक बताया हैं। ऋग्वेद में ‘रुद्रः किलास भेषजम्’ श्रुतिवचन से इस भेषजता को उत्तर भारत में ही शिव कहा है। शल्य-क्रिया (Operation) के माध्यम से गणेश-सिर पर डेरी पीठ की शाख गजशिर प्रत्यारोपण, दक्ष प्रजापति के शिर पर बकरे का मुख तथा पूषा के टूटे दाँतों को यथावत् करना शिव के चिकित्सक रूप को चार चाँद लगाते हैं और यह निर्विवाद है। संसार में विभिन्न रोगों के जनक तथा मूल कारण चार देवता माने गये हैं और ये देवता ऐसे हैं कि ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ ।

किन्तु इन सब में श्रुति -पुराण-वचनानुसार मुख्य देवता रुद्र ही हैं। प्रकार के रोगों से (आधि-मानसिक, व्याधि-शारीरिक) छुटकारा पाने के लिए श्रद्धा और विश्वास रूपी शुल्क (फीस) लेकर इलाज करने वाली रुद्र-प्रार्थना के प्रसङ्ग वेदों तथा उपनिषदों में अनेकत्र स्थान पर मिलते हैं। “या ते विद्युत् आदि ऋचाएँ इसका प्रमाण है । कहा है- प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती तो इस सन्दर्भ में लघु मृत्युञ्जय एवं महामृत्युञ्जय, लघु-रुद्र, महा-रुद्र एवं अतिरुद्र, ॐ नमः शिवाय के जप अनुष्ठान उपासना से सर्वारिष्ट-निवृत्ति के साथ-साथ अकाल-मृत्यु तक नष्ट हो जाती है । ऐसी लोक धारणा और स्पष्ट है। शिव ने निज कण्ठ में विष धारण कर रखा है और इस विष को वे कहीं त्याग भी नहीं सकते क्योंकि—

“शशि कलंक हरि भृगुलता बडवानलहि समुद्र ।
बड़े राखि त्यागै नहिं शेष भूमि विष रुद्र ॥

अत: जहर की गर्मी व जलन से बचने के लिए गङ्गा (जल) चन्द्र धारण कपूर-लेप आदि उपाय अपना लिए हैं और जी रहे हैं। किसी शायर ने कहा है—

अपने गले में अपनी ही बाँहें डालिए ।
जीने का अब तो एक यही ढंग रह गया है । (जहीरबख्श )

अर्थात् शिव स्वयं रोगी और वैद्य दोनों की भूमिका में काम कर रहे हैं। श्री-शिव के वैद्यनाथ रूप के बार में थोड़ा और विचार करें तो पायेंगे से पीड़ित हैं। यथा-
कि रोगियों को वैद्यों के द्वारा कई रोगों में लड्डन कराया जाता है । जैसे—नेत्र दुखने, फोड़ा होने, ज्वर होने, जुकाम, उपदंश, अजीर्ण, जलोदर आदि रोगों में लङ्घन (भूखा रहना) प्रशंसनीय एवं हितकर कहा है । इस लङ्घन का विशुद्ध आध्यात्मिक रूप व्रत (पूजादि अनुष्ठान और संयम आदि का पूर्ण पालन) तथा उपवास (अहोरात्र अनशन) रखना है। लगभग हर सामान्य आदमी में यह सुनिश्चित धारणा है कि व्रतों के प्रभाव से मनुष्यों की आत्मा शुद्ध होती है

स्थायी रूप से आरोग्य प्राप्ति होती है। शायद इसी दृष्टि से माह के प्रत्येक संकल्प-शक्ति बढ़ने के साथ-साथ बुद्धि और विचार सुपरिष्कृत होते हैं तथा पखवाड़े में श्रीशिव प्रसन्नार्थ प्रदोष व्रत, प्रत्येक माह की कृष्ण चतुर्दशी को महा शिवरात्रि व्रत किया जाता है। जबकि अन्य तथाकथित किसी भी ● देवी-देवताओं के इतने व्रत और फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को महाशिवरात्रि व्रत नहीं रखे जाते। महाशिवरात्रि व्रत के बारे में कहा गया है कि कोई ब्राह्मण चन्द्रसेन माँ के लाड़प्यार से बिगड़ कर कुसंगति में पड़ कर (अत: हर पुजा इस ओर ध्यान दे) कुमार्गगामी बन गया और विवशता से महाशिवरात्रि का व्रत रात्रि जागरण, शिव-दर्शन के प्रभाव से (मृत्यु होने पर) स्वर्ग का फलस्वरूप निष्कर्ष रूप में असाध्य रोगों तथा अकाल मृत्यु से छुटकारा दिलाने में पारंगत स्वनाम-धन्य शिव सार्थक रूप से ईश्वर कहलाने के अधिकारी बना

(iv) गोपी रूप—गर्ग संहिता के अनुसार श्रीकृष्ण-गोपियों की रासलीला को देखने तथा गहरा और पूरा आनन्द लेने के लिए अपनी प्रिया-पार्वती के साथ ‘त्रिलोचना’ नामक गोपी बन कर गये थे ।

(v) योगीरूप — मानस में सती कथन – ‘हमरे जान सदाशिव जोगी ।’ अज अनवद्य अकाम अभोगी । पूर्व में जगद्गुरु रूप में लिख चुके हैं ‘विद्यातपोयोगतपमास्थितम्। बालकृष्ण दर्शन हेतु शिव योगी बन कर गोकुल पधारे थे (गर्ग-संहिता)। वैसे भी इनके तपस्वी रूप/समाधिरूप/योगीरूप बहुत प्रसिद्ध है । पिष्टपेषण ठीक नहीं। किसी ने कहा है—

‘स्वभाव निर्मलाकार, सर्वव्याधि-विनाशिने ।
‘ योगी योगप्रदो यज्ञो, योगीश्वर नमोऽस्तु ते ॥

इस योगी का अपभ्रंश या तद्भव ‘जोगी’ शब्द भी है और हमारे यहाँ समाज में जोगी नाम की जाति है जो शिव के ही उपासक हैं और भृगु-शाप से पीड़ित हैं। यथा- ‘भवव्रतधरा ये च ये च तान् समनुव्रताः । पाखण्डिनस्ते भवन्तु, सच्छास्त्र-परिपन्थिनः । विगर्ह्य-यात-पाषण्डं दैवं वो यत्र भूतराट् ।” ये लोग ही शिव निर्माल्य लेते हैं। जबकि सती कहती हैं- ‘ये मूर्धभिर्दधति तच्चरणावसृष्टम्।’ (श्रीमद्भागवत) अर्थात् ब्रह्मादि देवता बड़े आदर से इनका निर्माल्य शिर पर धारण करते हैं ।

शिव-निर्माल्य के विषय में ‘विश्व तन्त्र ज्योतिष मासिक पत्रिका’ मार्च 2003 के पृष्ठ 65 पर अङ्कित है—“भगवान् शङ्कर पर चढ़ाया गया नैवेद्य :
खाना निषिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि जो इस नैवेद्य को खा लेता है वह नरक के पास शालिग्राम की मूर्ति रहना अनिवार्य है । यदि शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम हो तो नैवेद्य खाने का कोई दोष नहीं होता। मेरे मत से यह बात श्रीशिव के हरिहर – रूप की पोषक है।

ankush

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