शिव और रुद्ररूप
पूर्वकृत शिवरूपों के वर्गीकरण के दूसरे चरण में हमें अपने मन औ बुद्धि (जिनमें क्रमशः 9 तथा 5 गुण बताए हैं—यथा मन के 9 गुण
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धैर्योपपत्तिर्व्यक्तिञ्च विसर्गः कल्पना क्षमा ।
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सदसच्चाशुता चैव मनसो नव वै गुणाः ॥ (महाभारत मो. घ. प
बुद्धि के 5 गुणों का गुणगान इस प्रकार है-
1 2 3
इष्टानिष्टविपत्तिश्च व्यवसाय-समाधिता ।।
संशयः प्रतिपत्तिश्च बुद्धे पञ्च गुणान्विदुः ॥ (महा.)
दोनों को टटोलते हुए तथा जन मानस को प्रसन्न रखते हुए आगे बढ़ना पड़ेगा चूँकि विश्व-जन-मानस उसी पर प्रसन्न रहता है जो ‘यस्तु सर्वमभिप्रे धर्म पर्व) पूर्वमेवाभिभाषते।’ स्मित-पूर्वाभिभाषी च तस्य लोकः प्रसीदति ।।
अर्थात् जो सभी की चारों तरफ की परिस्थिति को भाँप कर मुस्करा हुए देखने के साथ पहले ही बोलता है। उससे सभी प्रसन्न होते हैं।
भगवान् शङ्कर के ऐश्वर्य-रूप का प्रथम वर्गीकरण, जो दश भेद का रहा ,को जहाँ प्रसन्न मन से स्वीकार किया गया तो दूसरा वर्गीकरण भला इस बात से कैसे दूर रह सकता है ?
देवरूप में सनातन शिव के अवस्थाभेद से शिव और रुद्र का नाम होकर आग्नेय वायु प्रचलित है। यह अग्नि तत्त्व रुद्र, सूर्य वायु और अग्नि रूप से से रुद्र तथा सौम्य वायु से शिव-रूप रहता है। सोम वायु और आप (जल) रूप में प्रतिभासित होता है। और इसी सोम तत्त्व से युक्त रोषात्मक उपरूप रुद्र साम्ब या साम्ब सदा-शिव’ कहलाता है। शिव नाम का अर्थ एवं निर्वाचन पहले किया जा चुका है, अत: अब रुद्र को समझने के लिए विभिन्न रूपों में मिलने वाले निर्वाचन तथा अर्थ द्रष्टव्य है-
‘रोरूयमाणो द्रवति इति रुद्र:’ (यास्क, देवराज, तथा शिव-लिङ्ग-कर्म-पद्य और स्कन्दपुराण का निर्वाचन)
‘यत् अरुजत् तत् रुद्रस्य रुद्रत्वम्’ (काठक शाखा)
‘रुतस्य भयस्य द्रावणात् रुद्रः’ (पाशुपत-सूत्रम्)
द्रुतरूपण उपलभ्यमानत्वात् रुद्र (अथर्वशीर्योपनिषद्)
‘सेधनात् (स्थूलावस्थातः) द्रावणात् रुद्र:’ इन सब निर्वचनों से निर्णय मिला कि जो स्पन्दनशील, गतिशील, रोषरूप, घार, तरलता-कारक, रुलाने वाला और ध्वनि के साथ धावक तत्त्व ही रुद्र है। यही तत्त्व अन्तरिक्ष में अभिव्यक्त होकर सम्पूर्ण विश्व में समाया हुआ है।
रुद्र की परिभाषा के बाद रुद्र की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न पुराणों के प्रमाण प्रीतिपूर्वक प्रतिपादन करते हैं—यथा ‘क’ भालत: अर्थात् ब्रह्मा के ललाट या गोद से रुद्रोत्पत्ति हुई। (शि.पु.) ‘सृष्ट्यर्थं ब्रह्मणः पुत्रो ललाटादुत्थितः प्रभुः । (महाभारत)
नारायण के वामपार्श्व से रुद्र उत्पन्न हुआ तो कहीं विष्णु से क्रोध रूप में रुद्रोत्पत्ति हुई। (ब्रह्मवैवर्त पुराण) किन्तु यह रुद्र उत्पत्ति का कारण स्वयं ईश्वर शिव की व्यवस्था तथा अनुग्रह से संभव बना, यथा—
‘अहं च भवतो वक्त्रात् कल्पान्ते घोररूप-धृक् ।
शूलपाणिर्भविष्यामि क्रोधजस्तव पुत्रकः । (कूर्मपुराण)
‘अन्यच्च – निर्दिष्टः परमेशान: महेशो नील-लोहितः
पुत्रो भूत्वानुगृह्णति ब्रह्माणं ब्रह्मणोऽनुजः ।। (वायुपुराण)
अन्यच्च – ततोऽसृजत् पुनर्ब्रह्मा रुद्रं रोषात्मसम्भवम् ।
सामवेदीय महोपनिषद् के अनुसार नारायण ने अन्तःस्थ ध्यान किया और ललाट से समस्त श्रीसम्पन्न, गुण सम्पन्न प्रणव के साथ चारों वेद व छन्दों का आश्रय स्वरूप पुरुष हुआ जो ईशान या महादेव कहलाया। (यद्यपि प्रसंग रुद्रोत्पत्ति का न होकर ईशान या महादेव है किन्तु यह ईशान या महादेव ही रुद्र-रूप से भी जाना जाता है)
इस प्रकार स्वयं ब्रह्म सदाशिव, शिव तो नित्य रहते ही हैं और यह इनका करुणापरक कल्याणपरक तथा शान्त-स्वरूप है किन्तु प्रलयादि के लिए अथवा धर्म व्यवस्था-विरोधी समाज-कण्टकों को दण्ड देने के लिए एवं संहार करने के लिए शिव ही रुद्र-रूप से उत्पन्न होते हैं, इनमें वास्तव में कोई भेट है। स्वयं शिव साधिकार घोषणा करते हैं-
वस्तुतो ह्येकरूपं हि द्विधा भिन्नं जगत्युत।
अतो न भेदो विज्ञेयः शिवे रुद्रे कदाचन ।।
(शि. पु. वि. सं.) देवता लोग पशुपालक की तरह डण्डे से हाँकते या पीटते हुए रक्षा करते हैं अपितु उसे वैसी बुद्धि से युक्त कर देते हैं जैसे ‘न देवा दण्डपाद रक्षन्ति पशुपालवत् । यं हि रक्षितुमिच्छन्ति बुद्ध्या संयोजयन्तितम् ॥
अपौरुषेय स्वतः प्रमाण वेद भगवान् भी ऐसी ही अपनी स्वीकृति देते है यथा—या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा-पापकाशिनी’ (शुक्ल यजु. कपिष्ठल संहिता) ऐतरेय ब्राह्मण भी कुछ इतराता हुआ ऐसा ही उत्तर देता है-
“ अग्निर्वा रुद्रः, तस्यैते द्वे तन्वौ, घोरान्या च शिवान्या च” ।
सामवेदीय जाबाल्युपनिषद् भी जम कर ऐसा ही जुमला पेश करता है-
‘अग्नीषोमात्मकं विश्वमित्यग्निराचक्षते । रौद्री घोरा या तैजसी तनूः । सोमः शक्त्यमृतमय: शक्तिकरी तनूः ।’
शालीनता से किये इस अनुशीलन से स्पष्ट है कि घोर और शिव दोने ही अपने अपने नाम के अनुसार कार्य करने वाली रुद्राग्नि हैं। शतपथ ब्राह्मण नवम काण्ड में बिना कठिनाई कण्ठ-ध्वनि करता है कि अग्नि में जितना सोम सम्बन्ध है, वही शिव रूप है । महामहोपाध्याय श्रीगिरिधर जी ने अपने ‘शिव महिमा’ शीर्षक लेख में लिखा है कि ‘तीन बल-प्रतिष्ठा बल आदान-बल = विष्णु, उत्क्रान्ति-बल = इन्द्र, की समष्टि तथा इन्द्र, अग्नि और सोम रुपी तीन प्राणों की समष्टि = महेश्वर या शिव हैं।’ निरुक्त कर्त्ता यास्क मुनि ने रुद्र के घोर-रूप किन्तु परिणाम में शिव-रूप का निर्देश करते हुए दो ऋचाएँ उद्धृत की हैं जिनसे शिव के दोनों रूपों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है-
‘इमा रुद्राय स्थिर-धन्वने गिरः क्षिप्रेषवे देवाय स्वधावने ।
अषाढाय सहमानाय वेधसे तिग्मायुधाय भरता शृणोतु नः ।। 1 ।।’
या ते दिद्युदवसृष्टा दिवस्परिक्ष्मया चरति परि सा वृणक्तु नः ।
सहस्रं ते स्वपिवात भेषजा मा न स्तोकेषु तनयेषु रीरिषः ||
इसके साथ ही शिव के एकादश रुद्र एवं अनन्त रूद्र-रूपों पर विचार करना यहाँ अप्रांसगिक न होगा। शैव-पुराणों में यत्रतत्र रुद्रों के नाम इनकी पलियाँ तथा इनके कार्यों के बारे में पूरा लेखा जोखा बिना किसी जोखिम के मिल जाता है। इनकी उत्पत्ति के बारे में हरिवंश पुराण हरी झंडी फहराता है ।
‘सुरभी कश्यपाद्रुद्रानेकादश विनिर्ममे ।’
महादेव प्रसादेन तपसा भाविता सती । (आदिसर्ग श्लोक. 49)
विष्णु-पुराण के अनुसार इनके नाम हैं-
1. हर, 2. बहुरूप, 3. त्र्यम्बक, 4. अपराजित, 5. शम्भु, 6. वृषाकपि, 7. कपर्दी, 8. रैवत, 9. मृगव्याध, 10. शर्व/कपाली । बृहदारण्यक आँख मिचौली सा करता इस बात का विस्तार यों बताता है कि श्रुति के अनुसार दश प्राण हैं- सप्त शीर्षण्याः प्राणाः, द्वाववाञ्चौ, नाभिर्दशमी और आध्यात्मिक क्षेत्र में ग्यारह रुद्र उपर्युक्त दश प्राण और आत्मा (दशेमे-पुरुषे प्राणाः आत्मैकादशः) बताये हैं। आधिभौतिक क्षेत्र में 1. पृथिवी, 2. जल 3. तेज 4. वायु, 5. आकाश, 6. सूर्य, 7. चन्द्र, 8. यजमान, 9. पवमान, 10. पावक तथा 11. शुचि ग्यारह रुद्र हैं। इनमें आदि के आठ शिव की ‘अष्टमूर्ति’ कहलाते हैं। आधिदैविक दृष्टि से ग्यारह रुद्र तारामण्डलों में रहते हैं। इनके नाम भिन्न भिन्न रूप से पढ़ने सुनने में आते हैं-
1. अज / एकपाद, 2. अहिर्बुध्न्य, 3. विरूपाक्ष, 4. त्वष्टा / अयोनिज / गर्भ, 5. रैवत/भैरव/कपर्दी/वीरभद्र, 6. हर/नकुलीश/पिङ्गण/स्थाणु, 7. बहुरूप/ सेनानी / गिरीश, 8. त्र्यम्बक/भुवनेश्वर/विश्वेश्वर / सुरेश्वर, 9. सावित्र / भूतेश / जयन्त/ कपाली, 10. बृषाकपि / शम्भु / सन्ध्य , 11. पिनाकी/लुब्धक/मृगव्याध/ शर्व ।
रुद्र चन्द्रार्काग्निदृष्टि होने से त्र्यम्बक हैं। अथवा इन्द्र अग्नि और सोम का सूर्य पृथ्वी एवं चन्द्रमा में अन्तर्भाव हुआ, अतः महादेव त्र्यम्बक हुए। महादेव की जटाओं में गङ्गा (सोमरूपा) जल ही हैं।
सामवेदीय जैमिनि, ब्राह्मण के अनुसार त्रिष्टुप् छन्द के साथ रुद्र का सम्बन्ध होने से छन्द के 44 अक्षरों की संख्या के समान ही रुद्र भी 44 हैं। काठक-संहिता केवल 10 रुद्र मानती हैं, किन्तु कपिष्ठल-संहिता शुक्लयजु.) का यह कथन-
‘तेभ्यो दश प्राचीर्दश दक्षिणा, दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वा:’ रुद्र संख्या 100 बताता है। इन्हीं सौ रुद्रों के वर्णन से एक ‘शतरुद्री’ नामक ग्रन्थ भी बन गया है। वैसे रुद्राष्टाध्यायी सामान्य रूपेण प्रचलित है। इन सौ रुद्रों के आयुध त्रिशूल हैं। ये सभी नीललोहित हैं क्योंकि ये सभी रजोगुण (रक्तवर्ण) तमोगुण (कृष्ण (नील)) वर्ण का समन्वित रूप हैं । रुद्र वायु चतुष्कर्मा है, अतः ये सब चतुर्भुज हैं, शोचिष्केश होने से सफेद भी हैं, इसके अलावा इनके हरे, पोले और धूंआ जैसे वर्ण (रंग) भी हैं। इनके पुत्र मरुद्रण हैं। अङ्गिराग्नि पुत्र रुद्रगण हैं।
एक एव रुद्रोऽवतस्थे न द्वितीय:” तथा असंख्याताः सहस्त्राणि ये अधिभूभ्याम्” के अनुसार रुद्र एक तथा अनन्त हैं। इस प्रकार ये रुद्र क ग्यारह कहीं दश, कहीं सौ, कहीं अनन्त तो कहीं मात्र एक बताये हैं। रूप में यों समझा जा सकता है कि ये सब भिन्न भिन्न संख्या वाले रुद्र अपने विशिष्ट शक्ति से पृथक-पृथक् क्षेत्रों में कार्यशील होने से उतनी ही संख्या रूप धारण कर लेते हैं और इस प्रकार समस्त विश्व ही क्या ब्रह्माण्ड तक इन रुद्रों से व्याप्त है। द्युलोक, पृथ्वी और अन्तरिक्ष में ये रुद्र सूर्य, वायु, अभि बिजली, वर्षा आदि रूपों में फैले हुए हैं और इस बारे में वेद में यत्रत स्तोत्रपरक मन्त्र देखने को मिलते हैं। प्राण रूप में रुद्र एक है और सूर्यरूप में रुद्र एक है, किन्तु सूर्य, रश्मियों के रूप में और वायु के रूप में है। यज्ञ में गार्हपत्य, धिष्ण्य और आवहनीय अग्नियाँ क्रमशः दो, आठ और एक भेद में संयुक्त रूप से ग्यारह अग्नियाँ कार्य करती हैं और यही एकादश रूद्र कहलाती हैं। शङ्कर के रौद्र रूप की एक बाँकी झाँकी की झलक द्रष्टव्य है।
“प्रजापति पदारूढ दक्ष ने अहङ्कार ग्रस्त होकर अपने यहाँ आयोजित यज्ञ में सभी को आमन्त्रित किया लेकिन जामाता शिव को जान बूझ कर आमन्त्रित नहीं किया। इस अपमान से अत्यन्त दुःखी दक्षपुत्री सती ने यज्ञ-कुण्ड में कूद कर प्राणों की आहुति दे दी। इससे क्रुद्ध होकर शङ्कर जी ने रौद्र रूप धारण कर लिया तथा सती के निष्प्राण शरीर को उठा कर ब्रह्माण्ड में चक्कर लगाने लगे। शिव-क्रोध से समस्त ब्रह्माण्ड काँप उठा। इस परिस्थिति में सदा का तरह देवगण विष्णु की शरण में गये और प्रार्थना की। हे विष्णो ! आप सुदर्शन चक्र से सती के शव को शंकर जी से अलग करें शक्तिपीठ बताये हैं। देवी भागवत में 108 तथा स्कन्द पद्म एवं मत्स्य पुराण में 70 शक्तिपीठ कहे गये हैं। इन 51 शक्तिपीठों की सामान्य जानकारी निम्नाङ्कित रूप से हैं—कुछ लोग 52 कहते हैं।
1. मानस (कैलास) दक्षिण हाथ ,2. मुक्तिनाथ,3. नेपाल,4. हिंगुला,5. सुगन्धा,6. करतोयातट,7. चट्टल,8. यशोर,9. लका,10. कामगिरि (कामरूप) 11. त्रिपुरा,12. जयन्ती,13. किरीट,14. अट्टहास,15. नन्दीपुर,16. नलहाटी,17. वक्त्रेश्वर,18. बहुला ,19. त्रिसोता,20. विभाष,21. युगाद्या, 22.कालीपीठ , 23. मनध, 24. वैद्यनाथ (चिताभूमि) 25.मिथिला , 26.उत्कल 27. वृन्दावन , 28. काशिका 29.प्रयाग 30. जलन्धर , 31. ज्वाला मुखी 32. श्री पर्वत ,33. कश्मीर ,34. कुरुक्षेत्र ,35. विराट,36. मणिवेदिक,37. शोणदेश,38. रामगिरि 39. उज्जयिनी , 40. भैरव पर्वत, 41. प्रभास, 42. करवीर (शर्करार) तीनों नेत्र ,43. जनस्थान,44. गोदावरी तट,45. श्रीशैलम्,46. कर्णाट, 47. काँची (कामाथी) ,48. कन्यकाश्रम,49. रत्नावली,50. शुचि ,51. पञ्च सागर ,52. कालमाधव