नारी उत्पत्ति एवं विकास कैसे हुआ भाग एक

शब्द-ब्रह्म ॐकार से ही समस्त स्वर, व्यञ्जन एवं नाद आदि ध्वनियाँ उत्पन्न और विकसित हुई हैं। प्रणवाक्षर (ॐ) स्वरूप स्वयं देवाधिदेव महादेव ने अपने डमरू को बजा कर चौदह शिवसूत्रों की ध्वनियाँ उत्पन्न की और इन सत्रों के आधार पर समस्त व्याकरण शास्त्र का निर्माण हुआ। वेदों को सही सही समझने के लिए वेद के छः अह्नों का पढना बहुत जरूरी है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष, और निरुक्त नामक छ: अङ्गों में व्याकरण को मुख माना गया है और व्याकरण के आधार पर ही विश्व की समस्त भाषाएँ टिकी हुई है। चूँकि भाषा ही अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है, अतः हम सर्वप्रथम व्याकरण की दृष्टि से ‘नारी’ शब्द का अर्थ जानने का प्रयास करते हैं । षड्विंश ब्राह्मण के अनुसार त्र्यम्बक शब्द की व्युत्पत्ति है “स्त्री, अम्बा, स्वसा यस्य” यहाँ स्त्री शब्द के स् का लोप होने से त्र्यम्बक शब्द बनता है, और यह शब्द केवल शिव का बोधक है। अर्थात् यह स्त्री शिवा है और शिव से अभिन्न है ।

नृन् पाहि, धातु का अर्थ स्वयं की रक्षा करना तथा दूसरों की रक्षा करना होता है और इसी धातु से ‘ना’ या नर शब्द बनता है। जिसका अर्थ पुरुष, मनुष्य, मानव, जन, आदमी, मोट्यार, मिनख आदि होता है। इसी ‘नर’ शब्द में जब बारी बारी से न् में आ तथा र् में ई अर्थात् आ + ई मिला दी जाती है, तो नर का नारी बन जाता है और नर में दुगुनी ताकत आ जाती है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि नारी बिना मात्रा के अर्थात् बिना विवाह के नर जैसी लगती है और मात्रा लगने पर अर्थात् विवाह होने एवं पुरुष से जुड़ जाने पर नारी का रूप धारण कर लेती है। इसका सीधा-सीधा मतलब है कि नर के बिना नारी और नारी के बिना नर अधूरा है। दोनों में चोली-दामन का एवं ‘भाग्य-पुरुषार्थ’ का सा रिश्ता है। दोनों ही परस्पर पूरक, अस्तित्त्व सम्पन्न और सार्थक हैं ।

दूसरी ओर इस नर और नारी शब्द की विवेचना से यह स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया कि नर से ही नारी उत्पन्न हुई है, न कि नारी से नर उत्पन्न हुआ है। यह पराश्रिता है, बिना शव के, शिवा नहीं बन सकती। वैसे सभी लोग भली भाँति जानते हैं और मानते हैं कि नारी ही नर की खान है अर्थात् औरत ही आदमी को पैदा करने वाली है, जब कि वेद पुराणादि के अनुसार सबसे पुरानी और सच्ची बात यही है कि सबसे पहिले आदमी

(पुरुष) ने ही औरत (प्रकृति) को पैदा किया और फिर पुरुष की दी हुई शक्ति से ही नारी भोग्या बन कर मैथुनी सृष्टि के माध्यम से नर और नारी को पैदा करने वाली जननी या माता बनी है।

पुरुष (नर) से ही नारी उत्पन्न हुई है। इसके प्रथम प्रमाण स्वरूप संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद कहता है: “स्त्रियः सतीस्ता उपुंस आहुः” अर्थात् स्त्री और पुरुष दोनों ही पुरुष हैं। राजा सुद्युम्न इसके प्रमाण हैं। दूसरे प्रमाण यजुर्वेदीय पुरुष सूक्त में भी पूरी पुकार के साथ इसी बात को दोहराया है कि “पुरुष एवेदं सर्वम्” अर्थात् इस संसार जो कुछ है, वह “पुरुष ही है।” तीसरे प्रमाण उपनिषदों में ईशावास्योपनिषद्” भी इसी बात के पीछे पड़ा हुआ भौंरे की तरह गुञ्जन कर रहा है – “ईशावास्यमिदंसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् । अर्थात् इस संसार में जो कुछ है वह सब परमात्मा (पुरुष) से व्याप्त है।

चौथा प्रमाण बृहदारण्यकोपनिषद् 1/4/3 में प्रस्तुत किया गया है :- “स इममेवात्मानं द्वेधापातयत्ततः, पतिश्च पत्नीचाभवताम्”। (अकेला होने से इसने अपने आपको दो रूपों में ढाला और पति पत्नी बने) । पाँचवे प्रमाण स्वरूप विष्णु पुराण 1/4 अ. में कथन है “सृष्टि प्रारम्भ में रुद्र ने शरीर के नर-नारी रूप में दो भाग किये।

छठे प्रमाण स्वरूप शिव पुराण की सरल और सरस शैली सभी सन्देह सरोवरों को सोखते हुए, स्त्री उत्पत्ति सम्बन्ध में अपनी शोखी भरी आवाज में शङ्खनाद कर रही है :-

‘सृष्टि रचने की इच्छा से श्री ब्रह्मा जी ने तप किया। इससे प्रसन्न होकर श्री साम्बसदाशिव ने ब्रह्मा जी को मैथुनी सृष्टि रचने का सङ्केत दिया और स्वयं श्री शिव अर्धनारीश्वर के रूप में ब्रह्मा जी के सामने प्रकट हुए। श्री शिव ने अपने बाँये अङ्ग से देवी को प्रकट किया और देवी कुछ क्षण के लिए श्री शङ्कर जी से अलग हुई तथा अपनी दोनों भौंहों के बीच से नारी को उत्पन्न किया और तभी से नारी में भोग (मैथुन क्रिया) स्थापित हुआ। बाद में देवी शङ्कर जी के शरीर में समा गई। यथा :-

अर्धनारीश्वरो भूत्वा ययौ देवः स्वयं हरः । ससर्ज वपुषोभागाद्, देवीं देववरो हरः ।।

विवेश देहं देवस्य, देवश्चान्तर्धीयत । तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् स्त्रियां भोगः प्रतिष्ठितः ।।

इसी बात को प्रसिद्ध ज्योतिर्विद प्रो. एन.के. राव ने अपनी पुस्तक “Astrology Destiny and Wheel of Time” में बताया है और नारी उत्पत्ति के विषय पर प्रकाश डाला है। तन्त्र शास्त्रों में अर्धनारीश्वर का ध्यान मिलता है। कालिदास, माघ, मयूर, मुरारी आदि कवियों ने भी अर्धनारीश्वर शिव का वर्णन किया है। अम्बा सहित होने से ही श्री शिव साम्बसदाशिव कहलाते हैं, जो शिव के अर्धनारीश्वर स्वरूप को प्रमाणित करता है। अतः शिव ही नारी को पैदा करने वाले हैं।

सातवाँ प्रमाण, कल्प-भेद से (43,20,000 वर्षों का एक महायुग, 71 महायुगों अर्थात् 30,67,20,000 का एक मन्वन्तर, प्रत्येक मन्वन्तर में 17,28,000 वर्षों का सन्धिकाल, ऐसे 14 मन्वन्तरों का एक कल्प होता मिलता है। इस कल्प के दो भाग होते हैं। एक दिन कल्प (ब्रह्मा का दिन) और एक रात्रि कल्प (ब्रह्मा की रात्रि) । दिन कल्प प्रारम्भ होते ही ब्रह्मा जी सृष्टि-रचना चालू कर देते हैं। श्रीमद् भागवत पुराण के तीसरे स्कन्ध लिखा है कि श्री ब्रह्मा जी ने पहली रचना – अविद्यावृत्तियों की करी । यह इनको अच्छी नहीं लगी और सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार नाम से दूसरी रचना की। ये चारों पैदा होते ही तप करने चले गये और सृष्टि क्रम ठहर गया। इस बात से क्रोधित ब्रह्मा जी ने अपनी दोनों भौहों के बीच से नील लोहित रुद्र को उत्पन्न किया – पैदा होते ही रोने के कारण इनका नाम रुद्र पड़ा। ब्रह्मा जी ने रुद्र को रहने के लिए ग्यारह जगह बताई, जैसे

हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, सूर्य, चन्द्र, तप और पृथ्वी। साथ ही सृष्टि रचना में सहयोग देने के लिए ग्यारह स्त्रियाँ भी दी। जिनके नाम हैं :- धी, वृत्ति, उशना, उमा, सर्पि, इला, अम्बिका, ईरावती, सुधा, दीक्षा और रूद्राणी। इसके बाद रुद्र ने अपने खुद के समान रुद्रों की सृष्टि कर डाली। कहा भी है असंख्याता रुद्राः अर्थात् रुद्रों की संख्या गिनी नहीं जा सकती। ब्रह्मा जी को यह सृष्टि बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी और इन्होंने रुद्र को सृष्टि बन्द करने की सलाह देकर तप करने भेज दिया।

ध्यातव्य है कि शिव (रुद्र) और उमा (रुद्राणी आदि) के मिलने से अर्थात् भोग से किसी भी सन्तान या सृष्टि होने का उल्लेख नहीं है। राधा कृष्ण भी इसके उदाहरण हैं।

इसके बाद सोच विचार कर ब्रह्मा जी ने स्वयं के सङ्कल्प से मरीचि दक्ष एवं नारद आदि को उत्पन्न किया तथा अपने शरीर और मन से विद्याओं, वृत्तियों तथा धर्म आदि की रचना की, लेकिन इस रचना से भी इनका मन सन्तुष्ट नहीं हुआ तब अपने शरीर के आधे हिस्से से ‘मनु’ नामक पुरूष को तथा आधे हिस्से से ‘शतरूपा’ नामक स्त्री को उत्पन्न किया। मनु अर्थात् बात मानने, समझने तथा समझाने वाला पुरुष एवं शतरूपा अर्थात् सैंकड़ों रूप वाली या निरन्तर रूप बदलने वाली नारी बनाई। ब्रह्मा जी की आज्ञा से ये दोनों मिथुनी भाव को (पति-पत्नी बनकर) पा कर मैथुनी सृष्टि करने लगे और तभी से नर-मादा के रूप में यह सृष्टि क्रम सभी सूक्ष्म कीट पतङ्गों में पशु-पक्षियों में, देव, दानव तथा मानवों (जरायुज तथा अण्डजों) में आज तक अपना परचम लहरा रहा है।

आठवें प्रमाण स्वरूप ‘मनुस्मृति’ मत को मान्यता दी जा सकती है :-

द्विधाकृत्वात्मनोदेहमर्धेन पुरुषोऽभवत् ।

अर्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत्प्रभुः ।।

(परमात्मा ने स्वयं को आधा पुरुष और आधा नारी बना लिया)। नौवें प्रमाण स्वरुप यह कथन बहुत ही सार्थक है :-

स्वेच्छामयः स्वेच्छया च, द्विधारूपोबभूव ह।

स्त्री रूपो वाम भागांशो, दक्षिणांशः पुमान् स्मृतः । ।

अर्थात् सृष्टि प्रारम्भ में परमात्मा ने बायें हिस्से से स्त्री और दाँये हिस्से पुरुष रूप में अपने आपको अलग-अलग किया ।

इन सब प्रमाणों को सार्थकता और सटीकता का जामा पहनाने के लिए, दसवें प्रमाण के रूप में मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत श्री दुर्गासप्तशती को सही निर्णय देने के लिए आमन्त्रित करता हूँ :-

श्री दुर्गासप्तशती अध्याय दो के अनुसार पहले कल्प में महिषासुर और देवताओं के बीच घमासान लड़ाई हुई। महिषासुर ने सभी देवताओं को जीतकर उनके सभी अधिकार अपने हाथ में ले लिए। देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया और खुद इन्द्रपद पर बैठ गया। इस बात से दुःखी होकर देवगण ब्रह्मा जी को साथ लेकर श्री विष्णु एवं श्री शिव की शरण गये तथा रक्षा करने की गुहार लगाई। यह सब समाचार सुन कर श्री विष्णु एवं श्री शिव को बहुत भारी गुस्सा आया। ब्रह्मा जी भी गुस्से में आ गये और तीनों के मुख से एक बड़ा भारी तेज (प्रकाश) निकला साथ ही “खरबूजे को देख कर खरबूजा रङ्ग बदलता है” कहावत के अनुसार वहाँ उपस्थित सभी देवगण  अपने तीनों आकाओं के साथ साथ गुस्से में भर गये और अपने अपने नारी के रूप में अवतरित हुआ। जैसे- शरीरों से अलग अलग तेज निकाला और वह सारा तेज इकट्ठा होकर एक  हो कर नारी क रूप में अवताहृत हुआ

“अतुलं तत्र तत्तेजस्सर्व देव शरीरजम् । एकस्थन्तदभून्नारी, व्याप्त लोक त्रयन्त्विषा ।।

इस नारी-स्वरूप को भली भाँति मन में उतारने के लिए तथा नारी जाति का सरगम समझने के लिए, इसके सौन्दर्य, बल, साहस, प्रभुता, निम्नाङ्कित विवेचन विचारणीय है।

आगे चलकर इसी प्रसङ्ग के अनुसार इस नारी के शरीर एवं अङ्गों का है, वह इस प्रकार है:- निर्माण, इसके गहने, हथियार और अन्य बातों का जो लेखा-जोखा मिलता है।

नारी अङ्ग किस देवता के तेज से बना
1.मुख श्री शिव के तेज से
2.बाल यमराज के तेज से
3.समस्त भुजाएँ श्री विष्णु के तेज से
4.दोनों स्तन श्री चन्द्र देव के तेज से
5. उदर (मध्य भाग) श्री विष्णु के तेज से
6.जाँघ और घुटने श्री वरूणदेव के तेज से
7.जघन प्रदेश नितम्ब श्री पृथ्वी देव के तेज से
8.दोनों पैर श्री ब्रह्मा जी के तेज से
9.पैरों की अङ्गुलियाँ एवं समस्त रोप कूप श्री सूर्य देव के तेज से
10.हाथों की अङ्गुलियाँ श्री वसु देवताओं के तेज से
11.नाक श्री कुबेर के तेज से
12.दॉत श्री प्रजापति के तेज से
13.तीन नेत्र/td>

श्री अग्नि देव के तेज से
14.दोनों कान श्री वायु देव के तेज से
15.दोनों भौंह प्रातः एवं सायं सन्ध्याओं के तेज से

इस नारी को देवगणों ने जो हथियार दिये उन सबका विवरण इस प्रकार है :

श्री शिव ने त्रिशूल, श्री विष्णु (कृष्ण) ने चक्र, वरूण ने शङ्ख, अग्नि ने शक्ति नामक अस्त्र, वायु ने धनुष और बाणों भरा तरकस, इन्द्र ने वज्र और ऐरावत का घण्टा, यमराज ने कालदण्ड, वरूण ने पाश (फाँसी), प्रजापति ने रूद्राक्ष माला, ब्रह्मा ने कमण्डलु, काल देवता ने तलवार और ढाल, विश्वकर्मा ने फरसा, अनेक अस्त्र और कवच तथा हिमालय ने सवारी के लिए सिंह दिया। इन सब हथियारों के धारण करने से देवी (नारी) का प्रभाव तथा महत्त्व कुछ और ज्यादा ही बढ़ गया

इसी तरह सभी देवताओं ने इस नारी को शारीरिक शृङ्गार के लिए कई एक प्रकार के उत्तम वस्त्र और गहने भेंट में दिये। श्री सूर्य देव ने अपनी हजारों किरणें इस नारी शरीर के रोमकूपों में प्रवेश करा कर इसे जगमग जगमग कर दिया। समुद्र देवता ने मोतियों का हार, चूड़ामणि, कुण्डल, कङ्कण, अर्धचन्द्र सभी भुजाओं के लिए भुजबन्द, सुन्दर नूपुर (पायजेब). कण्ठहार, सभी अँगुलियों के लए अँगूठियाँ, एक कण्ठ के लिए तथा एक सिर पर धारण करने के लिए (अर्थात् सिरका जूड़ा बनाने के लिए), कमल के फूलों की मालाएँ दी। पृथ्वी धारण करने वाले शेष नाग ने एक नागहार दिया और दूसरे सभी देवताओं ने अपने अपने स्तर के अनुरूप गहने दिये । हिमालय ने भी अनेक रत्न भेंट में दिये। समुद्र ने हाथ में रखने के लिए दिव्य सौन्दर्यभरा कमल सौंपा तो कुबेर जी ने शराब-भरा बड़ा सा प्याला दिया। शायद इसी लिए नारी को सभी लोग प्रायः कुछ न कुछ देते रहते हैं।

सभी देवताओं के तेज से उत्पन्न होने के कारण इसका नाम ‘देवी’ रखा गया। इस प्रकार यह देवी रूपी नारी देवताओं से सम्मानित होकर जोर जोर से घोर शब्द करने के साथ साथ बहुत ही जोर से खिलखिला कर हँसने लगी। उसके इस शब्द और हँसी के कारण आकाश, धरती, समुद्र तथा पहाड़ सभी काँपने और डगमगाने लगे। मुनि और देवगण देवी की जयजय कार करने लगे। इसके बाद महिषासुर आदि ने उस शब्द ध्वनि की तरफ दौड़ कर देवी का स्वरूप कुछ इस प्रकार देखा कि उस देवी (नारी) की शोभा तीनों लोकों में फैली हुई है। चरणों से धरती दब रही है तो मुकुट आकाश को छू रहा है। धनुष टड्कार सारे पाताल को कँपा रहा है और वह खुद हजारों भुजाओं से चारों दिशाओं में समाई हुई सी लग रही है। नारी की यह स्थिति वर्तमान में भी प्रासङ्गिक है, ऐसा मेरा मत है।

इस नारी के महत्त्व को चार चाँद लगाने तथा सहेली अथवा पहेली की सटीक व्याख्या करने के लिए प्रथम अध्याय, रात्रि सूक्त, चौथी एवं पाँचवी अध्याय, ग्यारहवीं अध्याय तथा देव्यथर्वशीर्ष ने बहुत ही प्रशंसनीय भूमिका निभाई है । जैसे – यह ज्ञानियों के चित्त को जबरदस्ती सेअपनी तरफ खँच लेती है, चराचर को पैदा करती है। संसार रूपी बन्धन का कारण है। महामाया है। निद्रा है। स्वाहा, स्वधा, मन्त्ररूपा, हस्व, दीर्घ, प्लुत एवं व्यञ्जन रूपा, सन्ध्या, सावित्री, ईश्वरी, महाविद्या महामेधा, महास्मृति महामोहा, महादेवी तथा महासुरी है। कालरात्रि (महाप्रलय रूपी रात्रि या शिवरात्रि, मेरे मत से दिवाली की रात्रि) महारात्रि (प्रलयरात्रि, दिवाली, मेरे मत से शिवरात्रि), मोहरात्रि (सृष्टि उत्पन्न करने वाली या कृष्ण जन्माष्टमी मेरे मत से होली की रात्रि), सारज तथा तमोगुण से युक्त, सभी की प्रकृति रूपा, पुष्टि रूपा, सत् असत् रूपा, परापर की परमारूपा, जगत् के सृष्टिकर्ता (ब्रह्मा) जगत् के पालक (विष्णु) जगत् के संहारक (शिव) को निद्रा के अधीन करने वाली, ब्रह्मा, विष्णु और शिव को शरीर धारण कराने वाली, (अर्थात् निद्रा में होने से शरीर निष्क्रिय था, नींद हटने पर सभी के शरीर प्राणवान् तथा सक्रिय हो गये हैं) कह कर देवी (नारी) की महिमा का गुणगान किया है।

इसके बाद ब्रह्मा जी की स्तुति एवं प्रार्थना से प्रसन्न होकर योगनिद्रा अर्थात् यह नारी विष्णु जी के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और छाती से निकली (अर्थात् निद्रा का प्रभाव उक्त अङ्गों पर रहता है और निद्रा के हटने पर ही व्यक्ति कुछ क्रिया करने में समर्थ होता है) और श्री विष्णु मधु कैटभ नामक दो दानवों को मारने में समर्थ हुए। ये दोनों दानव मोह के प्रतीक हैं।

मध्यम चरित्र (जो अपने आप में सम्पूर्ण पाठ है जबकि प्रथम चरित और उत्तम चरित्र इस परिधि में नहीं आते हैं) में इस देवी रूपा नारी को भद्रकाली, चण्डिका, अम्बिका, सज्जनों के घर में लक्ष्मी रूपा तो पापियों के र में दरिद्रता रूपा, अद्भुत चरित्रा, अद्वितीया, दुस्तर भवसागर की नौका, ष्णु के हृदय में निवास करने वाली तथा शिव द्वारा प्रतिष्ठिता माना गया है। क्रोध में आने पर बड़े-बड़े खानदानों को नष्ट करने वाली प्रसन्न या खुश रहने पर ही व्यक्ति को प्रतिष्ठा, धन, धर्म, यश, पुत्र, स्त्रियाँ और सेवकों आदि से सम्पन्न बनाने वाली बताया है। याद करने मात्र से भय दूर करने वाली एवं प्रसन्न होने पर मनुष्य को शुभ कर्म करके स्वर्ग जाने का अधिकारी बनाने वाली, गरीबी और कष्ट को दूर कर भारी उपकार करने वाली कहा है । चित्त में कृपा है तो लड़ने में कठोरता रखती है। आपका स्वभाव दुराचार नाशक तथा रूप अचिन्त्य और अतुल है। संसार में जितने सौम्य तथा घोर रूप आपके हैं, उन सब से पृथ्वीवासियों तथा हमारी अर्थात् देवताओं की रक्षा करें। इसके अलावा जो भी आपकी स्तुति करे (अर्थात् आपका सम्मान/आदर करे), उसके यहाँ आप धन, ऐश्वर्य, स्त्री, पुत्र एवं सम्पत्तियों की बढोत्तरी करें। उक्त बातें देवताओं की शब्दावली के अनुसार हैं।

इसी चरित्र में महिषासुर वध से पहले देवी ने मधु (शराब) का सेवन किया। यह बात आज भी प्रत्यक्ष है कि नशे में लोग एक दूसरे को मार देते हैं। इस क्रम में कहा जा सकता है कि आज की नारी को भी शराब आदि नशे में हत्या या मारपीट करने से कोई परहेज नहीं है। यहाँ महिषासुर लोभ का प्रतीक है जिसे महालक्ष्मी ने समाप्त कर दिया। स्पष्ट है, धनी नर हो या नारी दुर्व्यसन पाल ही लेता है। शायद शराब की यही कहानी है।

महिषासुर वध के बहुत समय बाद शुम्भ-निशुम्भ वध के लिए देवगण हिमालय पर जाकर विष्णु माया की स्तुति करने लगे। उसी समय पार्वती जी गङ्गाजल से स्नान करने वहाँ आई और देवगणों से पूछा कि आप लोग किसकी बड़ाई कर रहे हैं ? तभी पार्वती के शरीर से शिवा (श्री शिव की अभिन्नशक्ति) निकली। पार्वती के शरीर कोश से निकलने पर यह कौशिकी कहलाई। पार्वती जी का शरीर कौशिकी के निकलने से काला पड़ गया तथा कालिका नाम से हिमालय पर रहने लगी। उत्तम चरित्र एवं पाँचवी अध्याय में इस देवी रूपी नारी को देवताओं ने विष्णु माया, देवी, महादेवी, शिवा, प्रकृति, भद्रा, रौद्रा, नित्या, गौरी, धात्री, चन्द्ररूपी चन्द्रिका, सुख-स्वरूपा, कल्याणि, वृद्धि, सिद्धि, कूर्मी, नैर्ऋति, राज्य लक्ष्मी, शर्वाणि, दुर्गा, दुर्गपारा, सारा, सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा, धूम्रा, अतिसौम्या, अतिरौद्रा, जगत्प्रतिष्ठा, चेतना, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, क्षान्ति, जाति, लज्जा, शान्ति, श्रद्धा, कान्ति, लक्ष्मी, वृत्ति,, स्मृति, दया, सृष्टि, माता, भ्रान्ति, इन्द्रियों एवं प्राणिमात्र की अधिष्ठात्री, सब प्राणियों में समाई हुई कह कर पुकारा है। पार्वती के शरीर से निकली अम्बिका परम सौन्दर्य की स्वामिनी बनी । चण्ड-मुण्ड को आकृष्ट कर शुम्भ-निशुम्भ को युद्ध करने के लिए ललकारा। देवी (नारी) ने सुग्रीव दूत से कहा- कि “जो मेरे बल के अनुरूप होगा, या युद्ध में मेरा घमण्ड चकनाचूर कर देगा, वही पुरुष मेरा पति होगा” (यह देवी कथन-नारी जाति बलिष्ठ पुरूष को पसन्द करती है, को ध्वनित करता है)। युद्ध होने पर अम्बिका की गुस्से भरी टेढी भौंह और ललाट से काली उत्पन्न हुई और वह दानवों की अधिकांश सेना को खा गई तथा अन्त में चण्ड और मुण्ड का वध कर दिया, जिससे संसार में यह काली देवी अम्बिका की कृपा से चामुण्डा के नाम से प्रसिद्ध हुई । इसके बाद शुम्भ-निशुम्भ के साथ लड़ाई की स्थिति भयावह हो जाने पर नारी सङ्गठन का उदाहरण पेश करते हुए देव-शक्तियाँ अपने अपने हथियार लेकर और वाहनों पर बैठ कर जैसे – ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री आदि आई और इन शक्तियों से घिरे अथवा सम्पन्न श्री महादेव जी ने चण्डिका से कहा कि मेरी प्रसन्नता के लिए इन समस्त असुरों का संहार कर डालो। शिवजी के ऐसा कहने पर अम्बिका के शरीर से चण्डिका देवी प्रकट हुई तथा शिव जी से निवेदन किया कि “आप मेरी तरफ से दूत बन कर शुम्भ-निशुम्भ के पास जावें,” (ध्यान दें – अपने अत्यन्त विश्वस्त या प्रिय को ही ऐसे कार्य सौंपे जाते हैं, जैसे श्रीराम ने रावण के पास हनुमान् तथा अङ्गद को दूत बना कर भेजा था। इसी प्रकार पाण्डवों ने श्री कृष्ण को दूत बना कर कौरवों के पास भेजा था। यह बात अलग है कि इन सारे दूतों की कोई दाल नहीं गली और परिणाम युद्ध तथा नाश ही रहा) और “शिव दूती” कहलाई ।

ankush

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