ईश्वर-परिभाषा – लक्षण -पहचान

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

 

मङ्गलाचरणम्

 

श्री गणेशाम्बिकां ध्यात्वा विधि-विष्णु-महेश्वरान् । शारदां पितरौ चैव वक्ष्येऽहं “किं क ईश्वरः ” ।। ॐ दक्षोत्सङ्ग-निषण्ण- कुञ्जर- मुखं प्रेम्णा करेणामृशन् । वामोरुस्थित-वल्लभाङ्क-हृदयं स्कन्दं परेणामृशन् ॥ इष्टाभीति-वर-द्वयं-कर युगे युगे बिभ्रत्प्रसन्नाननो, भूयान्नः शरदिन्दु-सुन्दर-तनुः श्रेयस्करः शङ्करः ।।

 

ईश्वर-परिभाषा – लक्षण -पहचान

 

ज्योतिष शास्त्र के सूर्य सिद्धान्त आदि ग्रन्थों एवं पुराणों के अनुसार एक कर 2. महायुग 43,20,000 वर्षों (सौर वर्षों) का होता है, जिसमें चारों युगों (सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि) का समावेश है अर्थात् सत्ययुग 17,28,000 वर्ष, त्रेता 128-133 12,96,000 द्वापर 8,64,000 तथा कलियुग 4,32,000 133 43,20,000। ऐसे 71 महायुगों— (71 × 43,20,000 ९ वर्षों) का एक ‘मन्वन्तर’ कहलाता है। प्रत्येक मन्वन्तर के अन्त में एक संधिकाल होता है, जिसका परिमाण सत्ययुग के बराबर है। ऐसे 14 मन्वन्तरों का एक ‘कल्प’ होता है—अर्थात् एक हजार महायुग । श्रीब्रह्मा जी का दिन और रात एक-एक उक्त कल्प के परिमाण में होते हैं अर्थात् दो कल्पों का अहोरात्र । रात्रि कल्प में श्रीब्रह्मा शयन करते हैं और उस समय सृष्टि/ब्रह्माण्ड का है। अभाव रहता है (यहाँ ध्यातव्य है कि ब्रह्माजी से दुगुने समय का अहोरात्र श्रीविष्णु का तथा श्रीविष्णु से दुगुना अथवा अनन्त श्रीशिव का अहोरात्र माना डा () जाता है)। दिन के कल्प का प्रारंभ हो जाने पर श्री ब्रह्मा जी सृष्टि का निर्माण करते हैं एवं सृष्टि का निर्माण सम्पन्न होते ही जड़-चेतन ब्रह्माण्ड क्रियाशील जाता है। वर्तमान विक्रम संवत् 2059 में सातवें मन्वन्तर में 28वें कलियुग 55103 वर्ष व्यतीत होने जा रहे हैं तथा भारतीय गणराज्य 53-54 हिजरी सन् 1423-1424 ईस्वी सन् 2002-3 है।

इस प्रकार इन बदलते युगों की मोहिनी-माया से मुग्ध मानव का भाव-जगत् जब नि:सीम कमनीय कल्पना के प्राङ्गण में कुलाँचे मारता है तो उसे ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की दिव्य आभा के यथार्थ स्वरूप का भी अनायास ही आभास होने लगता है और इसकी खोज में पागल-सा वह शाश्वत तथा नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव ईश्वर को शब्द ब्रह्म तथा पर-ब्रह्म नामक दो भागों में बाँट कर अपनी फुटकरी पसन्द का प्रदर्शन करता हुआ ‘शब्द-ब्रह्मणि निष्णातः पर ब्रह्माधिगच्छति’ की अन्तिम मंजिल तक पहुँचने का उपक्रम करता है।

इसके बाद मानव के लिए यह परब्रह्म (ईश्वर) जो व्यक्ताव्यक्त स्वरूप, अनादि, अपरिमेय, सच्चिदानन्द घन तथा ‘नेति-नेति’ कहकर अभिधेय (कहा जाने योग्य) होता है, अधिक चिन्तनीय एवं मननीय हो जाता है और इस जिज्ञासा के समाधान की आकांक्षा से वह स्वत: प्रमाण श्रुति (समस्त वेद) एवं परत: प्रमाण स्मृति, पुराण, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थ आरण्यक, सूत्र, रामायण, महाकाव्य, स्तोत्रादि का अनुशीलन कर शालीनता से उत्तर पाने के प्रयास की सफलता में निम्नांकित रूप से चार चाँद लगाता है । यथा – ‘पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।’ (ऋग्वेद, पुरुष-सूक्त, रुद्रा.)

  • ‘ईशावास्यमिदं सर्वम्’ 
  • ‘संविदन्ति न यं वेदा विष्णुर्वेद न वा विधिः । यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसां सह ।’ 
  • ‘यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चित्’ ।
  • ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’, आनन्दं ब्रह्म’ ।
  • ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति से रत्न की तरह दे यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व, तद् ब्रह्म ।’
  • यत्तत्कारणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् । तद्विसृष्टः स पुरुषो लोके ब्रह्मेति कीर्त्यते ।’
  • ‘द्यावाभूमी जनयन्देव एकः ‘ । (श्रुति)
  •  ‘क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः ।’
  •  ‘यतो वा’ (श्वेताश्वतरोपनिषद्)
  • ‘तमेव भान्तमनुभाति सर्वम् तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।’ (कठोपनिषद्)
  • ‘यथोर्णनाभिः सृजते गृहणते च । यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति ।
  • यथा सतः पुरुषात् केश-लोमानि ।
  • तक्षाक्षरात् संभवतीह विश्वम् । (मुण्डकोपनिषद्)
  • ‘अचक्षुरपि यः पश्यत्यकर्णोऽपि शृणोति यः
  • सर्वं वेत्ति न वेत्ताऽस्य तमाहुः पुरुषं परम् ॥
  • ‘लीयमानमिदं सर्वं ब्रह्मण्येव हि लीयते ।’
  • ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ । (श्रुति)
  • ‘पुरुषोऽयं समीहमानो नावश्यं समीहितं फलं प्राप्नोति । तेनानुमीयते यत् पराधीनं पुरुषस्य कर्मफलाराधनमिति । यदधीनं स ईश्वरः ।

इस प्रकार पर ब्रह्म या ईश्वर की नाना परिभाषाओं के अपरिमित भण्डार तानि जीवन्ति से रन की तरह देदीप्यमान उपर्युक्त उद्धरण परब्रह्म (ईश्वर) के बारे में अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत कर ईश्वरीय सत्ता का मूल रूप-स पुरुषो लोके सर्वतोभावेन प्रकट करते हैं। जैसे-

  1. वह (ईश्वर) सबसे परे है, उससे परे कुछ नहीं है ।
  2. . वह (ईश्वर) सच्चिदानन्दधन स्वरूप है और नियामक तत्त्व है ।
  3. . वह (ईश्वर) समस्त जीव-जगत् का रचयिता, पालक तथा संहारक है ।
  4.  वह (ईश्वर) विरोधाभासों से युक्त, सगुण एवं गुणातीत (त्रिगुणस्वामी) है ।
  5. वह (ईश्वर) कर्मफलदाता, कर्मों से निर्लिप्त, सत्य-सनातन-ज्ञान स्वरूप है, एवं सर्वभूतान्तरात्मा है ।
  6. वह (ईश्वर) मन-वाणी- बुद्धि से अग्राह्य, अकल्पनीय एवं अवर्णनी है ।
  7. वह (ईश्वर) सभी प्रकाशमान तत्त्वों (सूर्यचन्द्र अग्नि नक्षत्रादि) अपना प्रकाश देकर प्रकाशित करता है ।
  8. यह सम्पूर्ण विश्व उसी (ईश्वर) का स्वरूप है । ॐ अक्षर से ही  ईश्वर जाना जा सकता है ।
  9. यह जो भी कुछ है, वह सब ब्रह्ममय (ईश्वर-रूप) ही है । 
  10. यह समस्त ब्रह्माण्डों का एकछत्र अलौकिक शक्ति सम्पन्न महानाय । अन्यथा कहा भी है— ‘अनायकाः विनश्यन्ति, बहुनायकाः”।

 

ankush

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