ईश्वर-पद के उम्मीदवार (दावेदार)
उपर्युक्त परिभाषाओं वाले समस्त बिन्दुओं से प्रतिबिम्बित, अनुप्राणित ए प्रतिपादित परब्रह्म (ईश्वर) कौन हो सकता है ? इस प्रश्न के सामने आने एक बहुत बड़ी उलझन सुरसा (नाग-माता) के मुँह खोलने की तरह खड़ी नाती है जिसे विश्लेषण रूपी हनुमान् ही सुलझा सकता है ।
चूँकि ईश्वर – शब्द की परिधि में आने वाले तथा पर-ब्रह्म की कुर्सी पठने को उतावले बहुत से देवी-देवता उम्मीदवार बने बैठे हैं और इन कुब्जा, विदुर, गोपीग प्रचारकों के बारे में तो कहना ही क्या ? कुछ लोग ब्रह्मा जी की दादागि पक्षिगण आदि सभी का ख्याल रखते हैं तो बहुत से व्यक्ति श्रीविष्णु की करामात के कायल करते हैं वहाँ अध कोई श्रीसाम्ब सदाशिव को सटीक मानता है तो कोई श्रीदुर्गा जी का पेटे हैं। श्रीविष्णु जी अ पास करा रहा है। कोई श्रीराम की धनुष्टङ्कार तो कोई श्रीकृष्ण की वंशी व पुकार का प्रचार कर इनके अनुयायियों की परम्परा को प्रश्रय दे रहा है नाम के अनुरूप अ त सब कुछ होते हुए कोई श्रीबुद्ध की बुद्धि की तो कोई श्रीमहावीर की दुहाई की दहाड़ लगा र (रुद्र) के सापेक्ष हैं और तो और कुछ लोग ‘गणेश’, ‘गॉड’ एवं ‘खुदा’ की क-वर्ग त्रयीक है । परं च अपने इसी परिपाटी की पट्टी पढ़ाने में ‘आन बान और शान’ समझते हैं ‘तो कु अन्य उम्मीदवारों लोग घटोत्कच पुत्र बर्बरीक अर्थात् खाटू श्याम जी के चाटू के डाटू हासिल कर चुके रहे हैं, तो कुछ लोग कल्कि अवतार की हल्की हटाकर हलक में उतार यथावसर स्थानाप को आतुर हैं। किन्तु ठोस धरातल अर्थात् यथार्थ परक वस्तुस्थिति विश्व रङ्गमञ्च जानकारी होने पर स्वतः स्पष्ट हो जायेगा कि श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीऋषभदेव सफलता-सोपान व श्रीपरशुराम, श्रीबुद्ध, श्रीमहावीर, श्रीगुरु नानकदेव, श्रीईसामसीह ए श्रीमुहम्मद साहिब आदि विशिष्ट ईश्वरीय अंश लिये हुए असाधारण महामानव थे, जैसा कि यत्र-तत्र सर्वत्र इन सबके चरित्र-चित्रण से चरितार्थ होता है। आदि) के इन सबके बारे में ज्यादा कुछ कहना पिष्ट-पेषणमात्र होगा, फिर भी सही वस्तु स्थिति जानने के लिए इस विषय पर संक्षिप्त टिप्पणी करना आवश्यक से ही नहीं, अपितु अनिवार्य है ।
श्री ब्रह्मा जी सृष्टि रचने में तथा तप करने वालों को वरदान देने में अपना कोई सानी नहीं रखते, जबकि इन दो मामलों के अलावा सर्वत्र इन्हें श्रीविष्णु तथा श्रीशिव का मुखापेक्षी रहना पड़ता है। देवताओं की किसी भी समस्या को हल करने में ये श्रीमान् पङ्गवत् हैं। ये केवल प्ररेणा देने या मार्गदर्शन कराने का काम करते हैं या फिर देवगणों के साथ उन देवों के कार्य सिद्ध्यर्थ अर्थात् संकट-निवारणार्थ श्री साम्बसदाशिव या श्री-विष्णु जी के पास जाकर अपनी अनुशंसा/अभिशंसा की— शब्दावली को मुखरित करते हैं। ऐसी स्थिति में ईश्वर के ऐश्वर्य का उपजीव्य होने से इनकी ईश्वर पद की दावेदारी नकारात्मक बनती है ।
हाँ, श्रीब्रह्मा जी की अपेक्षा श्रीविष्णुजी का बोलबाला विक्रम के वेताल की तरह बरकरार है । श्रीविष्णु जी यत्र-तत्र सर्वत्र अर्थात् हर-क्षेत्र में क्षेत्रीयता का उल्लङ्घन किये हुए हैं। बड़े-बड़े इन्द्रादि देवगण, हिरण्यकश्यप-रावण बलि आदि दुर्दान्त दानवगण, अम्बरीष, भीष्मपितामह, ध्रुव, सूरदास तुलसी, मीरा, कुब्जा, विदुर, गोपीगण आदि मानवगण, गजराज जैसे पशुगण एवं जटायु जैसे पक्षिगण आदि सभी जीव मात्र का अपनी कृपादृष्टि की वृष्टि से जहाँ उद्धार करते हैं वहाँ अधर्मियों एवं दुष्टों को कठोर से कठोर दण्ड देने से नहीं चूकते पेटे हैं। श्रीविष्णु जी अनेक (24 मुख्य अवतार है) अवतार धारण करके अपने नाम के अनुरूप अपनी व्यापकता का धौंसा धूमधाम से बजाते हैं, परन्तु इतना सब कुछ होते हुए भी सृष्टि-निर्माण एवं सृष्टि-संहार में श्रीब्रह्मा तथा श्रीशिव रह (रुद्र) के सापेक्ष हैं अर्थात् इन दोनों के मुँह की ओर श्रीविष्णु को ताकना पड़ता त्रयी व क है। परं च अपने पराक्रम एवं क्रिया-कलापों के कारण श्रीविष्णु ईश्वर पद के अन्य उम्मीदवारों की दावेदारी के बजाय अपनी दावेदारी जताने में महारत हासिल कर चुके हैं और ईश्वर के प्रथम सहायक (First Assistant) होकर यथावसर स्थानापन्न प्रभारी बन कर (कहा भी है-तत्स्थानापन्नस्तद्धर्मं लभते) वंशी है की तारन यति से विश्व रङ्गमञ्च पर अपने ईश्वरीय रूप का सार्थक अभिनय करने में भदेव, सफलता-सोपान की ओर अग्रसर हैं। फलतः ईश्वर नहीं है।
इधर शिव पुराण / हरिवंश पुराणानुसार सत्य, धर्म, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, अग्नि, वायु, वरुण आदि पञ्चलोकपाल एवं दश दिक्पाल सम्पूर्ण विश्वमण्डल को सञ्चालन करने के लिए ईश्वर के द्वारा ईश्वर कौन और क्यों अलग-अलग विभागाध्यक्ष नियुक किए हुए हैं। अतः ये सब ईश्वर-पद की दावेदारी तथा उम्मीदवारी से सैकड ही नहीं अपितु हजारों कोसों दूर हैं। आगे बढ़ कर देखें तो ब्रह्मा विष्णु ईश्वर कौन और क्यों ? सम्प्रदाय, धर्म, जाति उपजाति संस्कृति, सभ्यता भाषा – वेशभ अपनी-अपनी शब्दावली के अरुद्र भी उस ईश्वर से निदेशित तथा प्रेरित होकर ही क्रमशः सृष्टि-कार ये सभी ईश्वर के अंश मापालन-कार्य और संहार कार्य करते हैं ।
उधर महाशक्ति रूप में श्रीदुर्गा, जो श्रीमहाकाली, श्रीमहालक्ष्मी। जीव अविनासी (मानस) । इस प्रकार देखने मे वस्तुत: इन सब देवी- पक्षपात की पंखों से उड़ने कण्ठ के निनाद से इन त श्रीमहासरस्वती के साथ-साथ शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कुष्माण्ड देव-दानव-मानव भी यथावस् स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, सिद्धिदात्री तथा महागौरी नामक नौ शक्तिये रहन-खटोलों द्वारा अपनी अ से सम्पन्ना है एवं अन्य अनेकानेक देवियाँ अपनी ऐश्वर्यशक्ति की विलक्षणत की कलाबाजियों को दिखाक से जन-मानस में ईश्वर रूपा होने का दावा पेश करती हैं। जैसे पर उतरने में और ईश्वर के ‘देव्यथर्वशीर्षोपनिषद्’ में— “देवाः समुपतस्थुः । कासि त्वं महादेवीति । अहं पा चुके हैं। ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृति पुरुषात्मकं जगत् । “ परञ्च ध्यातव्य है कि ये समस्त देवियाँ प्रधान प्रकृति के अन्तर्गत आती हैं और प्रकृति अव्यक्त पुरुष-सापेक्ष है अर्थात् अधीना है। दूसरे मार्कण्डेय पुराणानुसार – ‘निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत’ श्रीदुर्गा देवी समस्त देवताओं के तेजोराशि से उत्पन्न होने से स्वयं पराश्रिता बन गई है । तीसरे बिना आधार के शक्ति की स्थिति नहीं होती और ‘शव’ रूपी आधार मिलने पर ही ये ‘शिवा’ बनकर अपनी चेष्टा शक्ति और गति को प्रगति की ओर अग्रेषित करने में समर्थ हुई है और यही बात इन्हें ईश्वर शब्द के अभिप्रेत अर्थ से दूर ढकेल देती है। गम्भीरता से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि उपर्युक्त देवता एवं देवियों की ईश्वरपद के लिए अपात्रता के निम्नाङ्कित कारण है :
1. सभी लाग-लपेटों से लिपटे हैं, 2. चमचागिरी करनेवालों से चिपटे हैं। 3. अपनी अपनी ऐश्वर्य कामनाओं में सिमटे हैं। 4. नोंक-झोंक रूपी — द्विकोणात्मक हैंगरों में लटके हैं । किम्बहुना ?
यह निर्विवादित एवं सर्वविदित तथ्य है कि संसार में सबसे अधिक ईसाई समाज तथा मुस्लिम समाज है, जब कि हिन्दू आदि अन्य लोग इनकी तुलना में अपेक्षाकृत बहुत कम हैं। ऐसे में ईसाइयों ने गॉड ईसामसीह को और मुसलमानों ने पैगम्बर मोहम्मद साहिब को खुदा नाम (ईश्वर को) दिया है अथवा ‘अल्लाह’ नाम से पहचान बनाई है। सिन्धी लोग भी शिरड़ी के साँई बाबा को ईश्वर मानते हैं। बौद्ध लोग महात्मा बुद्ध को, जैन लोग अर्हन्त को, वेदान्ती लोग ब्रह्म को मीमांसक लोग कर्म को, हिन्दू लोग ब्रह्मा, विष्णु, शिव श्रीराम एवं श्रीकृष्णादि को मानते हैं। इसके अतिरिक्त जितने भी देश, पन्थ,सम्प्रदाय, धर्म, जाति उपजाति में पैदा हुए लोग हैं जिन्होंने विभिन्न रीति-रिवाज, संस्कृति, सभ्यता भाषा- वेशभूषा, बोली, उपबोली अपना रखी है, उन सबने अपनी-अपनी शब्दावली के अनुसार ईश्वर को नाम तथा रूप दे दिये हैं, किन्तु ये सभी ईश्वर के अंश मात्र है— ईश्वर नहीं हैं। कहा भी है-ईश्वर अंशजीव अविनासी (मानस) ।
इस प्रकार देखने में आता है कि ईश्वरीय अंशधारी तथाकथित देव-दानव-मानव भी यथावसर लिये गए अपने-अपने अवतारों अथवा रूपों के उड़न खटोलों द्वारा अपनी आकर्षक उड़ानों अर्थात् विलक्षणता एवं अलौकिकता की विलक्षणता की कलाबाजियों को दिखाकर सरल-स्वभाव- सज्जनों के हृदय रूपी हवाई अड्डे – उतरने में और ईश्वर के रूप में परिचय देने में पर्याप्त सीमा तक सफलता महादेवीति । अहं पा चुके हैं।
वस्तुत: इन सब देवी-देवताओं की गुण-गाथा गाने वाले ग्रन्थ- ग्राम एवं पक्षपात की पंखों से उड़ने वाली उक्ति रूपी कोकिला अपने मधुरिम कोकिल कण्ठ के निनाद से इन तथाकथित देवताओं-देवियों, दानवों तथा मानवों को ईश्वरत्व के स्वर्णिम दिव्य सिंहासन पर बैठाने हेतु जन-मानस के उपवन को (जो ज्ञान, विश्वास, श्रद्धा और भक्ति से पल्लवित, पुष्पित, फलित एवं सौरभान्वित है) गुञ्जत तथा ध्वनित कर दिया है— परन्तु, व्यवहार जगत् में जैसे अधिकारी के अभाव या अनुपस्थिति में बना प्रभारी प्रसंगवश प्राप्त अच्छी परिस्थिति से लाभ उठाकर अधीनस्थ गण से या उपस्थित समुदाय से थोड़ी देर के लिए वाह-वाही लूट लेता है और असली अधिकारी पद के अहंभाव से ओत-प्रोत हो जाता है, वैसे ही इन तथाकथित देवी-देवताओं / दानवों/मानवों के लिए समझा जावे, तो अनुचित न होगा । यहाँ उपर्युक्त वेदान्ती ब्रह्म को तथा मीमांसक कर्म को अपवाद माना जावे ।
यद्यपि अन्त:-साक्ष्य और बहि:-साक्ष्य के दोनों धरातलों पर उक्त बहुचर्चित ईश्वरीय देवी-देवताओं के विषय में श्रुति (वेद) संहिताएँ, स्मृतियाँ उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थ-सूत्र ग्रन्थ-पुराण महाभारत रामायण तथा परवर्ती साहित्य कविगण, लेखक गण, लोकोक्तियाँ, किंवदन्तियाँ, कुरान, बाइबिल, धम्मसूत्र, पिटक ग्रन्थ, गुरु ग्रन्थ साहिब आदि से अनेकानेक प्रमाण प्रस्तुत कर तथा कथित देवताओं/देवियों/दानवों/मानवों को ईश्वर के पद पर बैठाने को आतुर किन्तु ये सब प्रमाण वैसे ही हैं जैसे सूर्य के अभाव में चन्द्र, अग्नि, बिजली, दीपक एवं जुगनूँ । अथवा यह प्रमाण रूपी बॉग उस मुर्गे की बाँग के समान जो प्रात:कालीन मधुर निद्रा को दरिद्र बना देती है।
ऐसी स्थिति में लक्ष्यबिन्दु तक पहुँच पाना ‘कोई खाला का घर नहीं अर्थात् सरल कार्य नहीं है, परन्तु ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ के परिप्रेक्ष्य अन्तः-साक्ष्य और बहिः-साक्ष्य का युगल (जोड़ा) जिस पर रीझ कर ममत्त्व में कुमार (अपनत्व) तथा पक्षपात को छोड़कर तदाकारता धारण कर लेवे अर्थात् दूध शिव-पार्व पानी की तरह मिलकर एक हो जावे, बस उस देव, दानव, मानव को परब्रह्म से पाँच या ईश्वर के पद का अधिकारी/उम्मीदवार/दावेदार मानना ज्यादा न्यायपूर्ण, (मनु) । तर्कसंगत, युक्ति युक्त एवं उचित है । पूर्वकाल में जैसे-दमयन्ती ने नल राजा सौभाग्य- को और सुकन्या ने च्यवन ऋषि को बड़ी ही विवादास्पद और संदेहास्पद स्थिति में भी बड़े धैर्य और विवेक से सम्बल पाकर अपने लक्ष्य पति को पहचान जप कर लिया था तथा असाधारण परिस्थिति में भी अपने परमध्येय (पति) को पहचानने फरकन में, समझने में रञ्च (जरा सी भी) मात्र भी भूल नहीं की थी, फिर भला उक्त चाहे क दोनों साक्ष्य (अन्त:साक्ष्य एवं बहि:- साक्ष्य) अपने ‘परमलक्ष्य ईश्वर को’ पहचानने तथा समझने में कैसे पीछे रह सकते हैं ? अस्तु ।