ईश्वर कौन ?

इस चर्चा -चक्रवात के बाद ईश्वरीय क्षितिज पर निःस्पृह, निर्लिप्त निर्विकार, अर्द्धनारीश्वर, आनन्दस्वरूप, आत्माराम, योगिरूप, भयङ्कर, प्रलयङ्ककर, श्री शिवशङ्करजी का नाम-रूपी सूर्य उदित होता है, जो शनै: शनै: उभरता हुआ समस्त द्यावापृथ्वी को, सातों पातालों को (अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल) और सातों लोकों (भूः भुवः, स्व:, मह:, जनः, तपः एवं सत्य) को अपने दिव्य प्रकाश पुञ्ज से अनुप्राणित एवं आलोकित करता है ।

सर्वप्रथम इनका ‘ईश्वर’ नाम ही इन्हें ईश्वर सिद्ध करता है, जबकि अन्य तथा कथित किसी भी देवता का नाम ‘ईश्वर’ नहीं है ( ध्यातव्य है कि अब हमें दानव-मानव को दर-किनार करना होगा क्योंकि यह सुस्पष्ट तथ्य है कि दानव-मानव से देवता श्रेष्ठ हैं, अस्तु) । अमर-कोष का पाठक जानता है

शम्भुरीशः पशुपतिः शिवः शूली. महेश्वरः ।

ईश्वर: सर्व ईशानः शङ्करः चन्द्रशेखरः ॥

‘योगेश्वरेश्वरः साक्षी क्षेत्रज्ञो ज्ञानदायकः’ कह कर आपको भ्रमित करने का प्रयास कर सकता है, किन्तु इस कथन में अमरकोष जैसा वजन न होने से सहज ही इसका आव्रजन या परिमार्जन हो जाता है और अमरकोष का यह उद्घोष श्री-साम्ब सदाशिव को ईश्वर पद पर बैठाने में सफलता पाकर अपने नाम को धन्य (अर्थात् जिसका कोष अमर है और अमर देवताओं का भी नाम  के परिप्रेक्ष्य में है) तथा सार्थक सिद्ध कर देता है। दूसरे लोक व्यवहार में हर वर्ष चैत्र माह झकर ममत्त्व में कुमारी बालिकाएँ सुयोग्य सुन्दर पति प्राप्ति हेतु ईसर-गौर के रूप में वे अर्थात् दूध शिव-पार्वती का आराधन एवं पूजन करती हैं—’ध्यान दें’– प्रत्येक कन्या जन्म नव को परब्रह्म से पाँचवे वर्ष तक गौरी का रूप होती है—कहा है- पञ्चवर्षा भवेत् गौरी नादा न्यायपूर्ण, (मनु)। गणगौर पूजा के अलावा कन्याओं के लिए श्रेष्ठ वर-प्राप्ति एवं नल राजा सौभाग्य-लाभ हेतु पार्वती मङ्गल स्तोत्र का 180 दिन पाठ एवं मङ्गलागौरी व्रत दहास्पद स्थिति जहाँ राम बाण का काम करते हैं, वहाँ निम्नाङ्कित मन्त्र की पाँच माला प्रतिदिन को पहचान जप कर एक पाठ मानस बालकाण्ड ‘जय-जय गिरिराज से लेकर ‘वाम अङ्ग फरकन लगे’ तक अंश का पाठ करने से उक्त फल प्राप्ति निश्चित होती है, चाहे कन्या मङ्गलीक या काल सर्पयोग वाली हो।

हे गौरि ! शङ्करार्धाङ्गि यथा त्वं शङ्करप्रिया । 

तथा मां कुरु कल्याणि । कान्तकान्तां सुदुर्लभाम् ।।

 

स्वयं भगवती सीता जी पार्वती आराधना से श्रीराम को पति रूप में पाने में सफल रही—यह तथ्य सुविदित ही है। ईश्वर का तद्भव शब्द रूप ही ‘ईसर’ है और शिव को ही ईश्वर मानती हैं। तीसरे, शिवपुराण के अनुसार इनका नाम निर्वचन भी इसी अर्थ को ध्वनित करता है

सर्वं वशीकृतं यस्मात्तस्माच्छिव इति स्मृतः ।

शिव एव हि सर्वज्ञः परिपूर्णश्च निःस्पृहः ॥

शं नित्यं सुखमानन्दमिकारः पुरुषः स्मृतः ।

वकारः शक्तिरमृतं मेलनं शिवमुच्यते ॥

श्वेताश्वतर उपनिषद् भी कुछ ऐसी ही सफाई पेश करता है :

सर्वानन शिरोग्रीवः सर्वभूत-गुहाशयः ।

सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात् सर्वगतः शिवः ॥

‘नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च’ की व्याख्या करते हुए भाष्यकार उवट लिखते हैं

“शं च आनन्द-रूपश्च । कालदेशानवच्छिन्नं भवनं तच्छक्तिश्च । आनन्द – विज्ञान इत्यर्थः । शिवः शान्तो निर्विकारः । शिवतरस्ततोऽप्यधिको आनन्द-विज्ञान निरतिशय सर्वज्ञ-बीज: ।

‘मेरा पड़ौसी खाये दही मुझसे कैसे जाय सही’ उक्ति को चरितार्थ करते हुए महीधर भाष्यकार भी अपनी टिप्पणी करने से नहीं चूकते – ‘शं सुखं  भवरूपश्च तस्मै । शं लौकिकं सखं करोति शंकरः तस्मै । मयो मोक्ष भवत्यस्मादिति शंभवः’ यद्वा शं सुखरूपश्चासौ भवः संसार रूपश्च मुि करोति मयस्करः तस्मै । शिवः कल्याण रूपो निष्पापः तस्मै । शिवतरो शिवो भक्तानपि निष्पापान् करोति तस्मै ।

परन्तु यह नाम विवेचन ढकोसला मात्र भी हो सकता है क्योंकि जगत् में देखा जाता है कि जिसका नाम तो नैनसुख है किन्तु वह सूरदास से एक कदम आगे है, दूसरे नाम तो लखपति परन्तु पास में फूटी कौड़ी नहीं । भगवान् शङ्कर सबसे मुख्य, पूज्य, प्रथम, विश्वरूप एवं ईश्वर हैं विरोधाभास का आभास भी है, यह बात वक्ष्यमाण, शुक्ल यजुर्वेदीय मत्र स्पष्ट हो जाती है

“ नमो ह्रस्वाय च वामनाय च बृहते च बर्षीयसे च ।

नमो वृद्धाय च सवृधे च नमोऽग्ग्राय च प्रथमाय च।।

 वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड के 45वें सर्ग में समुद्र से उत्पन्न विष है, जै लेकर श्रीविष्णु देवगण के साथ श्रीशिव के पास जाते हैं और उन्हें अग्र स्वीकार करते हैं

“तत्त्वदीयं सुरश्रेष्ठ सुराणामग्रजोऽसि यत् ।

अग्रपूजामिमां मत्वा गृहाणेदं विषं प्रभो ! ॥

सनत्कुमार संहिता के चौथे अध्याय में देवगण श्री ब्रह्माजी से पुरजे निवेदन करते हैं

“ब्रह्मन् ! सर्वाधिको रुद्रः सर्व देवेषु पठ्यते ।

कर्तुं तद्दर्शनं देव ! गच्छामो भवता सह ।।

महाभारत शान्ति पर्व श्रीशिव को सर्वदेवमय सर्वकारण तथा ईश्वर बताता हैं 

ईश्वरश्चेतनः कर्ता पुरुषः कारणं शिवः ।

विष्णु ब्रह्मा शशी सूर्यः शक्रो देवाश्च सान्वयाः ॥ 

सृज्यते ग्रस्यते चैव तमो भूतमिदं जगत् ।

अप्रज्ञातं जगत्सर्वं तदा ह्येको महेश्वरः ॥

“ आसीदिदन्तमो भूतमप्रज्ञात लक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥”

तर्क करने योग्य, अनन्त अन्धकार से घिरा, बिना किसी पहचान चिह्न वाला था। ऐसी स्थिति में वहाँ केवल ब्रह्म ही था ।

‘द्विधा कृत्वात्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत् । अर्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत्प्रभुः ॥

इन सबके साथ-साथ शिवपुराण, लिङ्गपुराण, स्कन्दपुराण, मत्स्त्य पुराण, कूर्मपराण और ब्रह्माण्ड पुराण (सभी शैव परक) तो श्री शिव को सब कुछ मानते ही हैं— जब कि अन्य पुराण भी इस दिशा में मौन तोड़कर श्री शिव के ईश्वर सत्य रूप को स्वीकार करते हैं। शतपथ ब्राह्मण (6/1/3/7-19) शाङ्खायन ब्राह्मण (6-1/1-9) रुद्र की उत्पत्ति का वर्णन मार्कण्डेय पुराण और और विष्णु-पुराण की तरह बताते हैं तो पद्म-पुराण लिङ्ग पूजा पर प्रकाश डालता है। श्रीमद्-भागवत-पुराण (श्रीविष्णु (कृष्ण) परक) वाल्मीकिरामायण (रामपरक) में शिव-तत्त्वचर्चा व आख्यायिकाएँ यत्र तत्र उपलब्ध हैं। जिनसे श्री शिवजी का ईश्वरत्व निर्विवाद सिद्ध होता है। डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी के लेख ‘शिवमहिम्न: स्तोत्र का आगमिक स्वरूप और साधना के अनुसार समस्त वेद तथा वेदान्त का सार एवं परम तत्त्व शिव ही है । आश्वलायन सूत्र की पङ्क्ति है— शिवं प्रस्तुत्य सर्वाणि ह वा एतस्य नामधेयानि तथा रुद्राष्टाध्यायी के ‘नमः स्रुत्याय ‘च’ मन्त्र से सभी वस्तुओं में शिव का सद्भाव कहा है । स्कन्द पुराणानुसार एक महेश्वर ही सभी मूर्तियों में उपास्य हैं— प्रतिपाद्यो महादेवः स्थितः सर्वांस चित्रित होता है— मूर्तिषु । श्रीमद्भागवत 4 स्कन्ध में श्रीब्रह्माजी देवताओं से शिव महिमा अगम्य एवं श्रीशिव को स्वतन्त्र बताते हैं—

नाहं न यज्ञो न च यूयमन्ये, ये देहभाजो मुनयश्च तत्त्वम् । विदुः प्रमाणं बलवीर्ययोर्वा, तस्यात्मतन्त्रस्य कथं विधित्सेत् ? चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद एवं अथर्ववेद) की ऋचाओं, गद्यों एवं मन्त्रों में तथा अथर्वशिर श्वेताश्वतर—कठ, बृहदराण्यक, माण्डूक्य, कैवल्य, रुदहृदय, अथर्वशिख, अमृतबिन्दु, जाबालि, मुक्तिक, नीलरुद्र आदि उपनिषदों में श्रीशिव की महिमा का बखान बखूबी से किया गया है, शायद इसी बात को ध्यान में रखकर पुष्पदन्त को लिखना पड़ा “यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि” । विभिन्न सहस्रनाम, स्तोत्र, व्रतादि कथाएँ एवं तन्त्र मन्त्र यन्त्रादि की निर्माण व सिद्धि की बातें उमामहेश्वर संवाद पर आधारित हैं— गुरु गोरखनाथ का नाथ संप्रदाय – शाबर मन्त्र सभी का श्री शिव ही आधार हैं । जहाँ स्मृति शास्त्रों में श्री शिवोपासना का महत्त्व मिलता है वहाँ धर्म शास्त्रों तथा कर्मकाण्ड पूजा पद्धति के ग्रन्थों में शिवपूजा को नित्यकर्मों में रखा है। ईशान दिशा में शिव का वास है अत: वास्तुशास्त्र के मत से पूजाघर सदा ईशान में रखें इससे पूजा निरापद होती है और सिद्धि तत्काल मिलती है । हमारे यहाँ मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र, जप, तप, व्रत, अनुष्ठान, योग, अध्यात्म, उपासना, साधना, आराधना, ज्योतिष, हस्तसामुद्रिक, वास्तु आदि उच्चतम कोटि की कल्याणपरक बातों के चयन की क्षमता ही वह विज्ञान है जिसे हम सिद्धि कहते हैं और सिद्धिदाता मात्र शिव हैं। अत श्रद्धा और विश्वास से ईश्वर पूजन करें ।

इस तरह समस्त वाङ्मय में शिव महिमा की गरिमा के गीत गाये गये हैं, घुणाक्षर न्याय का यहाँ कोई स्थान नहीं है । अन्त:साक्ष्य के उत्कृष्ट निदर्शन स्वरूप, हम श्रीशिवलीलाविलास का एक अंश त्रिपुर-वध प्रसंग ले सकते हैं पर पहुँचा देता है— जो शिव जी की ईश्वर पद की दावेदारी को मूर्त रूप देकर सातवें आसामान त्रिपुर राक्षसों के अवन्ध्य प्रभाव को नष्ट कर उनको मृत्यु की गोद में भेजने का काम करने के लिए एक ऐसे दिव्य और अद्भुत रथ का निर्माण किया गया जिसमें समस्त सृष्टि के आद्योपान्त (A To Z) चेतना-चेतन अवयव (प्राधान्येन हि व्यपदेशाः भवन्ति’ ध्यातव्य है) रथ के उपकरण बनते हैं जिसमें वेद घोड़े, ब्रह्माजी सारथि, श्रीविष्णु बाण बनकर अपने अपको श्रीशिव की सेवा में सौंप देते हैं- यह क्या ही विचित्र (नभूतो न भावि) शिव चरित्र का चित्र चित्रित होता है— जिसके सामने, (श्रीकृष्ण जिनके बारे में श्रीमद्भागवत में कहा गया है— ‘एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ ध्यान दें यहाँ श्रीकृष्ण को भगवान् कहा है परब्रह्म या ईश्वर नहीं कहा है और भगवान् उसे कहते

जो ‘भग’ से संपन्न हो और भग का अर्थ इस प्रकार है ‘ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः । ज्ञान वैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरिणा’ अर्थात् समग्र रूप से ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य जिसमें समाहित हों, वही— भगवान् है और इस श्रेणी में जहाँ देवता तथा अवतारों के आगे भगवान् जुड़ गया है वहाँ आजकल कुछ लोग भी अपने नाम के आगे भगवान् लगा चुके हैं जिन्हें आज का प्रबुद्ध पाठक अवश्य जानता है)

भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को महाभारत-युद्ध-काल में दिखाया विराट्रूप, दुर्योधन को दिखाया योगरूप, उत्तङ्क को अनावश्यक आतङ्क से दूर कर दिलासा दिलाने वाला दिखाया दिव्यरूप मटमैले एवं धुँधले तैलचित्रों सा धूमिल है अथवा ऐसा लगता है जैसे सौ वाट के बिजली बल्ब के सामने जीरो वाट का बल्ब । अस्तु ।

इस संसार में कामदेव (जिसे मनसिज कहा गया है) का चर-अचर समस्त जीव-जगत् पर बोलबाला है तथा इसी के प्रभाव से शिव का विवाह कराते समय पार्वती जी की पैर के नाखून की छवि से मोहित ब्रह्मा जी का वीर्य स्खलित हो गया (पार्वती ब्रह्माजी की पौत्री थी) इसी प्रकार ब्रह्मा जी काम-वश अपनी पुत्री के पीछे भी दौड़े थे (महिम्न: स्तोत्र एवं श्रीमद्भागवत)। इधर श्रीविष्णु ने जालन्धर की पत्नी वृन्दा का शीलभङ्ग किया—इसी क्रम में आगे बढ़े तो पायेंगे कि साक्षात् धर्म भी इससे पार न पा सका तथा इक्ष्वाकुवंशी राजा अनरण्य की पद्मा नाम की पुत्री जो महर्षि पिप्पलाद की पत्नी थी, का सतीत्व नष्ट करना चाहा, फलस्वरूप धर्म को नष्ट होने का शाप मिला। बाद विनय करने पर क्रमश: हर युग में एक-एक पाद से नष्ट होने और में अनुनय कलियुग में जाकर पूर्ण नष्ट हो जाओगे, ऐसापद्मा ने संशोधन किया था। (शिव पुराण) ऐसी स्थिति में इन्द्र, नारद, विश्वामित्रादि का जिक्र ही क्या करना ? अब हम लोक कल्याणार्थ श्रीशिव ने कुछ क्षण के लिये काम प्रभावित हो जो लीला की, वह श्रीमद्भागवत स्कन्ध 8 में अवलोकन करते हैं। भवानी को साथ लेकर श्री शिव मात्र मोहिनी अवतार को देखने हेतु विष्णु लोक पहुँचते

और कहते हैं कि अब तक आपके सभी अवतार मैं देख चुका हूँ । अब यह मोहिनी रूप भी देखना चाहता हूँ-लीला प्रारम्भ हुई— श्री शिव ने मोहिनी के कटि की सूक्ष्मता, अधरों की मधुरता एवं गेंद से अठखेली करती मुस्कान भरी मादकता, स्तनों की उत्तुङ्गता, नेत्रों की वक्रता और नितम्बों की विस्तृतता . देखी, साथ ही वायु ने झीना वस्त्र उड़ाया तो ‘भवान्या अपि पश्यन्त्या गतहीस्तत्पदं ययौ’ अर्थात् निर्लज्ज होकर भवानी के देखते-देखते मोहिनी के पीछे दौड़े, आलिङ्गन किया, वीर्य स्खलित हुआ और फलस्वरूप पारद सुवर्ण . रजत आदि धातुएँ उत्पन्न हुई। तुरन्त श्री शिव को बोध हुआ जिससे श्री विष्ण को कहना पड़ा—’को नु मेऽतितरेन्मायां विषक्तस्त्वदृते पुमान् ।’ 8/12/39 ध्यान दें यहाँ श्री शिव ने किसी की इज्जत लूटने का प्रयास / कार्य नहीं किया जब कि अन्य तथा कथित ने ऐसा किया। अन्ततः यह स्पष्ट है कि शिव ने कामदेव को नियामक तत्त्व होने से नष्ट किया, जो ईश्वर ही कर सकता है।

श्री कालिदास ‘कुमार-सम्भवम्’ महाकाव्य में लिखते हैं-

क्रोधं प्रभो ! संहर संहरेति यावद्गिरः खे मरुतां चरन्ति । तावत्स वह्निर्भव-नेत्रजन्मा भस्मावशेषं मदनं चकार ॥

श्री शिव की ईश्वरता को सिद्ध करने वाली कुछ पुराण कथाएँ द्रष्टव्य एवं ध्यातव्य हैं—

  1. श्री विष्णु जी ने प्रह्लाद- रक्षार्थ जब नृसिंहावतार लिया तथा हिरण्यकशिपु को मारने के बाद भी उनका क्रोध किसी भी तरह शान्त नहीं हुआ तो भगवान् श्रीशिव ने ‘शरभ’ नामक (आठ पैर वाला जन्तु) पक्षिराज का अवतार धारण कर इनका मान-मर्दन किया । ब्रह्माण्ड-पुराण के उत्तर भाग में लिखित श्रीललितासहस्रनाम पर श्रीभास्कर राय द्वारा की गई सौभाग्य भास्कर भाष्य टीका के फलश्रुति भाग (श्लोक 267 की टीका) में लिखा है—

“शरभेश्वरस्तदाख्यः शिवस्यावतारः नृसिंहावतारस्य विष्णुरपनयनायेति लैङ्गे कालिका पुराणे च प्रसिद्धम् ॥

  1. शिव पुराणानुसार एक बार ब्रह्मा और विष्णु में विवाद हो गया और दोनों अपने आपको एक दूसरे से बड़ा बताने लगे तभी स्वयम्भू स्थाणुरूप शिव ज्योतिर्लिङ्ग प्रकट हुआ और आकाश वाणी हुई कि तुम दोनों में जो मेरे इस स्थाणु रूप ज्योतिर्लिङ्ग का आदि या अन्त जान लेगा, वही बड़ा माना जायेगा । ऐसा सुनकर दोनों पुनः यहीं मिलेंगे निश्चित कर आदि का पता लगाने शूकर रूप से श्रीविष्णु पाताल तक पहुँचे और सभी जगह ज्योतिर्लिङ्ग को पूजित होते देखा और वहाँ स्थाणु के अदृश्य होने पर निश्चित स्थान पर लौट आये – इधर ब्रह्मा ने सत्यलोक तक जाकर स्थाणु को देखा, पुन: स्थाणु के अदृश्य होने पर सुरभि कामधेनु तथा केवड़े के वृक्ष को साक्षी बनाकर अपने मध्यस्थ पञ्चम मुख से मैंने इस स्थाणु का अन्त देखा है और तभी भयङ्कर ध्वनि हुई और भैरव अवतार हुआ तथा ब्रह्मा के असत्यभाषी शिर को काट दिया और आकाशवाणी ने कहा कि असत्य भाषण करने से तुम्हारी पूजा केवल एक जगह (पुष्कर में) होगी और झूठी गवाही देने से गौ को कलियुग में विष्ठाभक्षण तथा अनादृत होने का केवड़े को पूजा में शिव पर न चढ़ाये जाने का शाप दिया। साथ ही विष्णु को सर्वत्र प्रशंसित पूजित होने का वरदान दिया और इसी कारण से विष्णु का प्रभुत्व सर्वतोमुखी हो गया ।

ankush

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