शिव का हनुमान रूप
बिना रामरस (नमक) के भोजन का कोई स्वाद नहीं रह जाता वैसे ही बिना इस हनुमान्-रूप की जानकारी के शिव के ईश्वरत्व का वर्णन फीका रह जाता है। थोड़ा विलम्ब जरूर हो गया है परंच कभी-कभी चिरकारिता बहुत अच्छी रहती है। कहा भी है-
रागे दर्पे च माने च, द्रोहे पापे च कर्मणि । अप्रिये चैव कर्त्तव्ये, चिरकारी प्रशस्यते ॥ बन्धूनां सुहृदाञ्चैव, भृत्यानां स्त्रीजनस्य च । अव्यक्तेष्वपराधेषु, चिरकारी प्रशस्यते ॥ चिरं वृद्धानुपासीत, चिरमन्वास्य पूजयेत् । चिरं धर्म निषेवेत, कुर्याच्चान्वेषणं चिरम् ॥ चिरमन्वास्य विदुषश्चिरं शिष्टान्निषेव्य च । चिरं विनीय चात्मानं, चिरं यात्यनवज्ञताम् ॥ चिरेण मित्रं बध्नीयाच्चिरेण च कृतं त्यजेत् । चिरेण हि कृतं मित्रं, चिरं धारणमर्हति ॥ चिरं धारयते रोषं, चिरं कर्म नियच्छति ॥ पश्चाताप-करं कर्म न किञ्चिदुत्पद्यते ॥ (म भा शान्तिपर्व)
अर्थात् उक्त कर्मों में विलम्ब होने से पछताना नहीं पड़ता । कहावत भी है— ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ । श्रीहनुमान् जी की उत्पत्ति को लेकर यथा-तथा-सर्वथा कई कथा प्रचलित हैं। रावण ने 10 सिर चढ़ाकर दस रुद्रों को प्रसन्न किया किन्तु 11 वें रुद्र को नहीं मना पाया और इसी का दण्ड देने हेतु रुद्र भगवान् हनुमान् बने। दूसरे और तीसरे रूप में ‘शंकर सुवन केसरी नन्दन बन कर सभी को आनन्दित करते हैं। तो चौथे रूप में ‘सुमरौं पवन कुमार’ कहाते हैं अञ्जनि माता हैं तथा श्री सूर्यनारायण इनके गुरु हैं। नारद जी को भी गुरु माना है। इनकी महिमा का इतना व्यापक प्रभाव अपनी तरफ से कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान हो श्रीहनुमान-चालीसा, तुलसीकृत रामचरितमानस, कवितावली, हनुमान-बाहुक, बजरंग-बाण, लोक-भजन सभी ढोल पीटकर ‘हनुमान् जी’ का मान बढ़ाने में लगे हैं। ये माता जानकी (शक्ति) के प्रभाव से अष्ट सिद्धि’ और नवनिधि’ के दाता हैं। मेरे मत से यह रूप शङ्कर के हरिहर रूप के आख्यान का विशिष्ट व्याख्यान और समाधान है मानो विष्णु, राम और कृष्ण द्वारा शिव के प्रति जो सहकारिता अपनाई गई समय-समय पर शिव इस बात को ध्यान में रखते रहे और उस सेवा या सहकारिता का प्रतीकार चुकाने हेतु एक मुश्त में एक लुहार की। शिका हनुमान् रूप से सारी किस्तें वापिस कर दीं -कहा भी है-सौ सुनार की
इस दिशा में और आगे बढ़ें तो कहीं इन्हें पंचमुखी तो कहीं एकादश मुखी तक बता कर रुद्र से तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित किया है— कहीं पर दक्षिणमुखी काले हनुमान् का तो कहीं (प्रयाग संगम पर) लेटे हनुमान् का रूप भी प्रसिद्ध है। दीक्षा-प्रकाश से प्राप्त परिचय भी द्रष्टव्य हैं- “ ॐ नमो हनुमते प्रकट पराक्रम आक्रान्त दिङ्मण्डल यशोवितान धवलीकृत जगत्रितय वज्रदेह ‘ ज्वलदग्नि सूर्य कोटि समप्रभ तनुरुह रुद्रावतार लंकापुरी दहनो- दधिलङ्घन दश ग्रीव शिर कृतान्तक सीताश्वासन वायु सुताञ्जनि गर्भ संभूत श्रीराम लक्ष्मणानन्द कर कपि सैन्य प्राकार सुग्रीव सख्य कारण बालिनिबर्हण द्रोणपर्वतोत्पाटनाशोक वन विदारणाक्षकुमार छेदन वन-रक्षाकर सम् ब्रह्मास्त्र ब्रह्म शक्ति ग्रसन लक्ष्मण शक्ति भेद निवारण विशल्यौष
1. अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व (अष्टसिद्धियाँ)
2. पद्म, महापद्म, शङ्ख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील, वर्चस ( नवनिधि)
बालोदित भानुमण्डल ग्रसन्मेघनाद होम विध्वंसन इन्द्रजिद्बध कारण सीता रक्षक राक्षसी संघ विदारण कुम्भकर्णादिवध परायण श्रीरामभक्ति तत्पर समुद्र व्योमद्रुम लङ्घन महासामर्थ्य महातेजःपुञ्ज विराजमान स्वामिवचन संपादितार्जुन संयुग सहाय । ब्रह्मचारिन् । गंभीर शब्दोदय दक्षिणाशा मार्तण्ड मेरुपर्वत पीठिकार्चन सकल मन्त्रागमाचार्य मम सर्व ग्रह विनाशन सर्वज्वरोच्चाटन सर्वविष नाशन सर्वापत्ति निवारण सर्वदुष्ट निबर्हण सर्व व्याघ्रादिभय निवारण सर्वशत्रुच्छेदन मम परस्पर त्रिभुवन पुं स्त्री नपुंसात्मकं सर्वजीव जातं वशय 2 ममाज्ञा कारकं सम्पादय 2 नानानामधेयान्सर्वान् राज्ञः सपरिवान् मम सेवकान् कुरु 2 सर्वशस्त्रास्त्र विषाणि विध्वंसय 2 ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं एह्येहि स्रों ह स ख फ्रें हस्रों ख्फ्रें ह स फ्रें सर्व शत्रून् हन हन पर सैन्यानि पर बलानि क्षोभय 2 मम सर्वकार्य जातं साधय 2 सर्वदुष्ट दुर्जन मुखानिकीलय कीलय घे 3 हा 3 हूँ 3 फट् फट् फट् स्वाहा । भगवान् श्रीराम द्वारा श्री हनुमान् जी के बारे में कहे गये निम्नांकित वचन ‘सुनु कपि जिय जनि मानसि ऊना।’ तैं मम प्रिय लछमन ते दूना। (किष्किन्धा काण्ड)
सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तन धारी ।
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहि । (सुन्दरकाण्ड, मानस)
तुम मम प्रिय भरत सम भाई। (श्री हनुमान चालीसा) श्री हनुमान् जी की महिमा में चार चाँद लगा देते हैं। तथा ‘ओर देवता चित्त न धरई । हनुमत सेई सर्व सुख करई’ का तो कहना ही क्या है ।
अब यहीं आराम लेना ठीक है। क्योंकि— आराम शब्द में राम छिपा जो भवबन्धन को खोता है। आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।” (गोपाल प्रसाद व्यास) इसी के साथ श्री हरिहर का ध्यान बनाये रहें । जय श्रीशिव जय श्रीराम ।
श्रीशिव का शब्द ब्रह्म ॐकार तथा स्वस्तिक रूप
‘ईश्वर कौन’ शीर्षक के अन्तर्गत ॐ स्वरूप जो शब्द ब्रह्म का प्रतीक है, की एक हल्की सी झलकी ही चिलकी जब कि असली मिल्कियत दूर खड़ी मुस्करा कर मोहिनी-रूप के पीछे-पीछे सब कुछ छोड़कर शिव के दौड़ पड़ने की तरह हमें दौड़ाती हुई रेस की घुड़ दौड़ को पछाड़ या मात देती तीव्र गति से परब्रह्म प्रमाण-परम्परा को शब्द-ब्रह्म का नया दिव्य परिधान पहनाने की प्रक्रिया को क्रियान्वित करने जा रही है जिससे वह सभी को बिना किसी बाधा तथा भेदभाव के सहजता से शब्द ब्रह्म का दर्शन दिला सके। अस्तु ।
उपसंहार से पहले पहल के साथ शब्द ब्रह्म ॐ का विस्तृत विश्लेषण विशेष रूप से भाषा – विज्ञान की दृष्टि से विद्वानों तथा शोधकर्त्ताओं ने संस्कृत भाषा (जो वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत रूप से दो भेदों मे नामित है) को भारोपीय परिवार की श्रेष्ठतम सदस्य स्वीकार कर अ इ उ तीन मूल अक्षरों का अस्तित्व बताया है और इन्हीं के आधार पर समस्त वाङ्मय भाषा साहित्य का शाश्वत स्रोत स्रवित हो रहा है एवं ‘रसो वै सः’ सम्मेलन का मिलिन्द मन्द मन्द मुखरित हो रहा है, ऐसा माना है, जबकि भाषा विज्ञान (Philology) वालों ने अंग्रेजी की भी वकालत की है। लेकिन ‘नीड का निर्माण फिर’ नामक अपनी आत्मकथा के खण्ड दो पृष्ठ 210 पर श्री बच्चन लिखते हैं कि, ‘मार्जरी बोल्टन अपने प्रेमी से धोखा खा बैठी और इसका कारण अंग्रेजी का पत्र व्यवहार रहा, अत: Since that day I have lost faith in English Language.’ वे आगे लिखते हैं कि अंग्रेजी औपचारिक शिष्टता पटुता प्रदर्शन और डिसेप्सन यानि धोखाधड़ी की इतनी परिपूर्ण माध्यम हो गई है कि आज अभिव्यक्ति से अधिक यह गोपन और डिस्टर्शन यानि विरूपण की भाषा है। इस प्रकार अँग्रेजी बिना लेश मात्र कृतज्ञता अनुभव किये ‘थैंक यू’ कह सकती है। जब यह ‘सोरी’ कहती है तब अफसोस इसे शायद ही कहीं छूता हो । ‘आई एम एफ्रेड’ से इसका तात्पर्य बिल्कुल यह नहीं होता कि यह जरा भी डरी है और इसकी उक्ति ‘एक्सक्यूज मी’ आपके गालों पर थप्पड़ लगाने की भूमिका भी हो सकती है । फलस्वरूप प्रश्न उठता है कि क्या भाषाएँ विकसित और परिष्कृत होकर अपनी सूक्ष्म अभिव्यञ्जना शक्ति, सच्चाई, सिधाई, गहराई और ईमानदारी खो देती है ? मेरे मत से तो जहाँ संस्कृत भाषा व्याकरणादि दोष-रहिता संस्कार – सहिता भाषा है, वहाँ अँग्रेजी व्याकरणादि-दोष- सहिता संस्कार रहिता भाषा है । जैसे—इसमें उदाहरणार्थ कुछ शब्द ले सकते हैं। Should शुड में O तथा L का उच्चारण ही नहीं है । ऐसे ही Calf तथा Knife में क्रमश: L तथा K ध्वनि मौन है। दूसरे Under = उण्डर को अण्डर, को बट तो Put = पुट क्यों ? कोई उत्तर नहीं है । इस प्रकार हमारी संस्कृत भारतीय भाषा में अँग्रेजी वाली बातें अनादि काल से देखने सुनने एवं पढने में कभी नहीं आईं। इसमें वैज्ञानिकता है। पढ़ने सुनने देखने में एक समान होकर त्रिवेणी संगम के स्नान करने जैसा पुण्य एवं आनन्द देती है । सबसे बड़ी विशेषता तो इस बात में है कि वाक्य में क्रिया, कर्ता, अव्यय, कारक एवं विशेषण आदि शब्द कहीं भी रख दो, अर्थ वही निकलेगा—जबकि विश्व की अन्य किसी भी भाषा में यह चमत्कार नहीं है।
दूसरे, मैं यों भी कह सकता हूँ कि हमारी “जिन्दगी बन्दगी के लिए है न्दगी के लिए नहीं” अथवा “न गन्दगी पसन्द है न बन्दगी पसन्द है, प्यार में घुली एक जिन्दगी पसन्द है । अथवा ‘ना औरत से ना मर्द से हमारा रिश्ता दर्द से है’ । इसीलिए किसी ने कहा है—नेक नेक सब एक हैं एक एक नहीं नेक। वो नेकों में नेक, जिसकी उस पर टेक।” और हमारी सारी टेक ‘ब्रह्म-सूत्रं त्रिवृत्स्वरम् ।’ श्रीमद्भागवत स्कन्ध 12 में ॐ को नारायण का ज्ञोपवीत माना है।
गम्भीरता की गरिमा को महिमा की माया से मोहित करने पर ॐ अक्षर स्वयं ब्रह्म बना अनुशासन, शासन व प्रशासन को प्रशान्त भाव से धारण कर
अक्षर ब्रह्म परमम्।’ (गीता 8/3) ‘गिरामस्म्येकमक्षरम्’ (गीता 10/25) अक्षराणामकारोऽस्मि’। 10/33 तथा ‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्मव्यान् मामनुस्मरन्’ ॥ (गीता 8/13)
श्री कृष्ण (विष्णु) के इस कथन से ताल में ताल मिलाते हुए शिव का यह प्रवचन ‘ॐकारो मन्मुखाज्जज्ञे प्रथमः मत्प्रबोधकः हरिहर रूप को हरित क्रान्ति की ओर ले जा रहा है, वहीं शिव-मृत्यु के देवता है और देह त्यागने के समय (ध्यान दें) ॐ का स्मरण परमगति (मुक्ति) दायक है—शिव के शब्द ब्रह्म भाव को कितना सटीक प्रस्तुत कर रहा है— कहने की आवश्यकता नहीं। शिव आरती में ‘ॐ प्रणवाक्षर मध्ये-ये तीनों एका’ कथन इस बात को बुलन्दी पर बैठा देता है। वाङ्मय-जगत् का उद्गम स्रोत प्रणवाक्षर कैसे है— द्रष्टव्य है— अ उ म् (नाद एवं बिन्दु) का विस्तार अ + अ = आ नाद में राग अलापने पर मुखकण्ठ से ‘इ’ प्रश्लिष्ट होकर शिष्टता से स्वयं समाविष्ट होकर इस क्रम की क्रमबद्धता बनाये रखती है इ + इ = ई, ‘उ’ का अस्तित्त्व है ही अत: उ + उ = ऊ, रेफस्योर्ध्वगमनम्’ सिद्धान्त के अनुसार नाद से ही की हुंकार का आकार ऋ + ऋ = ऋ रूप में साकार हो उठता बाद में बदन बनाने की धुन के पक्के अ +इ = ए, अ + ए = ऐ, अ औ नाद स्वर युक्त अं, नाद बिन्दु युक्त ऊपर उ = ओ, अ + ओ का बिन्दु नहीं नीचे बिन्दु द्विधारूपेण अ: रूप में प्रगट होकर सबको हक्का पक्का कर देते हैं। नाद ही व्यञ्जनध्वनियों कवर्ग चवर्ग टवर्ग तवर्ग पवर्ग शव पञ्चमुख है, शरीर पञ्चमहाभूत-संघात है) को ध्वनित करता हुआ य् र् (शिव ल् व् को अन्तःस्थ से उत्पन्न करता हुआ श् ष् स् ह् ऊष्मा को धारण कर तीव्रगति से उत्पन्न होता है। एक ‘श्’ को तीन बार बोलने से एक रगड़ सी होती है और रगड़ से ऊष्मा स्वतः सिद्ध है— लिखा है- अतिशय रगड़ जो कोई अनल प्रगट चन्दन ते होई ।। (रामचरितमानस) ‘ह’ स्थिरता पूर्वकाल का सूचक है। क्ष त्र ज्ञ तीनों संयुक्ताक्षर हैं, स्पष्ट है। इस समस्त वाङ्मय जगत के ईश्वर ॐ रूपी शब्द-ब्रह्म शिव का गान किसी ने भजन-रूप में गाया है क्योंकि गान से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं हैं— यथा-
जपात्कोटि-गुणं ध्यानं, ध्यानात्कोटि-गुणं लयः ।
लयात्कोटि-गुणं गानं गानात्परतरं न हि ॥
नट राग — “पढो रे ओं नामा सिधंग । (ॐ नमः सिद्धम्)
ओंकार से सब जग सिरजा वाही का सब अंग ।
पूर्ण रूप हर व्यापक सब में विश्व विभूति अभंग ||
नन्ना नाम निरंजन स्वामी निरखत सब को अंग ।
निराकार निर्गुण अविनाशी अज अद्वैत अनंग ।
मम्मा माया कार प्रकास है, सकल चराचर अंग ।
जहाँ प्रबल हरि माया नहिं तहँ विज्ञान उमंग ॥
सस्सा सत्यशील सद्गुरु से पाकर मन संतोष सुढंग ।
शिक्षा पाय गाय हरि के गुण नित रंग भावि के रंग ॥
धध्धा धारण कर हृदय में चढ़े न दूजो रंग ।
आत्मानन्द सदा मन दीजै नारायण के संग ॥
अन्य किसी ने इसको यों गाया-
ॐ ब्रह्म श्री स्वयंभू स्वामी दीनदयाल ।
नैय्या डोले भँवर में दो तुम तुरन्त निकाल ॥
ॐकारः सर्ववेदानां सारस्तत्त्व-प्रकाशकः ।
कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः ॥
(अर्थात् — ‘सा विद्या या विमुक्तये’ व्यंजित/ध्वनित होता है ।)
भज ॐ भज ॐ भज ॐ सततम् ।
यह जीवन है अति अल्पतरम् ॥1॥
यह मंत्र सुदुर्लभ, वेदकृतम् ।
युग चारहु में ऋषि देव धृतम् ॥2॥
सब मंत्र शिरोमणि जाप वरम् ।
मन शुद्ध करं भवभीति हरम् ॥3॥
श्रुति तंत्र पुराण समस्त कहैं।
बिनु ॐ सब मंत्र अशुद्ध रहैं ॥4॥
यह ईश्वर वाचक नाम नरो ।
सब में यह श्रेष्ठ विचार करो ॥5॥
गिरि गह्वर में सरिता तट में।
वन में जन में सब ही घट में (पल में) ॥6॥
ऋषि योगीपति नर कोविद
करते जप ॐ श्रुति पूजित यों । (जो) ॥7॥
अब त्याग करो मन संशय को ।
गहि लेहु सुमंगल ॐ पद को ॥8 ॥
सुख में दुःख में प्रभु (ॐ) को भजियो । न कदापि उसे मन से तजियो ॥ 9 ॥
मुख माड़हु ना करुणा कर से।
प्रिय बान्धव मित्र वही सब से ॥10॥
गति मुक्ति वही धन-धान्य वही ।
पितु मातु वही गुरुदेव वही ॥11॥
प्रभु देहि सुबुद्धि प्रदीप वरम् ।
मन पाप कटै विनसै तिमिरम् ॥12॥
अवलोकि सको महिमा सुखदम् ।
दुःख मोचन मङ्गल शान्ति- प्रदम् ॥13॥
करुणाकर तू हम पापी सदा ।
दृग् पात करो प्रभु हो सुखदा ।।14।।
शरणागत याचत रक्ष विभो ।
जय ॐ जय ॐ जय नाथ प्रभो ॥15॥
शिव शंकर शंकर की शरणम् ।
मनसे सुमिरे दुःख के हरणम् ।।16॥
शब्द-शास्त्र-प्रवर्तक शिव का ‘ननाद ढक्कां नव पञ्चवारम्, माहेश्वर 14 सूत्र प्रसिद्ध ही है जिन पर शब्दशास्त्र के प्रासाद की पूरी नींव रखी हुई है और इन सूत्रों में प्रथम अक्षर अ है जो ॐ का बोधक है।
मनु कथन ध्यातव्य है-
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परं तपः ।
सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते ॥ (2-83)
ॐ कार में सत्त्व रज तम तीनों गुणों का समावेश है। अ’, सत्त्वगुण का अर्थात् आश्रितों का पालक अनाथों का नाथ (विष्णु) उ इससे उत्पत्ति चार प्रकार की जरायुज, उद्भज्ज, अण्डज तथा स्वेदज (ब्रह्मा), नाद म: अर्थात् तमोगुण मरण) मृत्युसूचक बिन्दु लय-संहार ताण्डव का सूचक या विराट् का सूक्ष्म रूप (शिव) है। वर्ष भर में तीन मुख्य ऋतुएँ, चार माह वर्षा के आषाढ़ से आश्विन इसमें नाना प्रकार के जीव-जन्तु उत्पन्न होते हैं, ब्रह्मा है, शीत ऋतु चार मन कार्तिक से माघ पालन कार्य अच्छा खाना अच्छा पहरना, सावधानी सुरक्षा में रहना विष्णु है तथा गर्मी के चार माह फाल्गुन से ज्येष्ठ यह समय तपन मृत्यु दुःख का समय है, ध्यान दें ऋतु-राज वसन्त इसी अवधि में आता है और इसका परम सखा कामदेव जो इस समय प्रबल होता है और तमोगुण शिव अनुपालन से जीवजगत् का जीवन उज्ज्वल हो जाता है
‘असतो मा सद्गमय (ब्रह्मा) तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ (विष्णु)
मृत्योर्मा अमृतं गमय (शिव) ।
ॐ अपने आप में एक पूर्ण मन्त्र है तथा अन्य मन्त्रों को सिद्धिप्रद बनाता है ।
मन्त्र-महिमा में लिखा है— ‘मंत्र परम लघु जासुवस, विधि हरिहर सुरसर्व ॥’
ॐ अक्षर होकर भी शब्द है—अक्षरं ब्रह्म परमं यथा—
व्यत्ययेन च वर्णानां परिवाद – कृतो हि यः ।
स शब्द इति विज्ञेयस्तन्निपातोऽर्थ उच्यते ।
शब्दरूपी ब्रह्म को ‘एकोऽहम् बहु स्याम्’ सिद्धान्त के अनुसार वाक्य (जिसमें कारक, संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, विभक्ति, क्रिया-विशेषण, क्रिया, अव्यय, उपसर्ग, निपात आदि का समावेश रहता है) का आकार प्रकार विकार साकार होकर दो क्रियाओं को कारगर रूप देता है—क्रिया का एक अर्थ होना जैसे जवानी, बुढ़ापा होते हैं, दूसरा अर्थ करना जैसे—खाना, पीना, पढ़ना, खेलना। इस प्रकार ॐकार ने सभी को आत्मसात् कर तीनों संस्कृतियों के (देव-संस्कृति, दानव-संस्कृति, मानव-संस्कृति) धारकों अर्थात् देवताओं, दैत्य-दानवों एवं मानवों को एकाक्षर ‘द’ का उपदेश देकर आत्म-चिन्तन का मार्ग प्रशस्त कर पूर्व में ॐ में जो त्रिगुण बताए हैं वे प्रत्यक्ष में काम (विष्णु) क्रोध (रुद्र) तय लोभ (ब्रह्मा) हैं। ये तीनों ही नरकद्वार एवं नाशक हैं (शिव इसी तम-नाश के देवता हैं। चूँकि देवता ‘भोग विलास, ऐश्वर्य का जीवन जीते हुए काम के जाम में डूबे हैं, अत: इनका पतन न हो एतदर्थ ‘द’ अर्थात् दमन का उपदेश
1. टिप्पणी-अन्य मत से—अ = शिव है, उ विष्णु है तथा नाद बहा चिन्तन) से कल्याण भागी हो ऐसा माना है। इसी प्रकार दैत्य-दानव क्रोधी • हैं फलस्वरूप उनके लिए ‘द’ दया का पालन उचित है और मानव लोभी है तथा ‘लोभ पाप का बाप’ है, इससे बचने के लिए ‘द’ अर्थात् दान करना श्रेष्ठ एवं सद्गतिदायक है— विदुर, वसुदेव, देवकी, नन्द, यशोदा, वासुदेव, बलदेव, रन्तिदेव, दशरथ, दधीचि सभी में ‘द’ है, दानी एवं यशस्वी हैं अतः कहा है- ‘दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।’ अस्तु । ॐ की विशिष्टता / विलक्षणता = विश्व की तीन प्रमुख जाति अथवा धर्मों (हिन्दु, जैन, सिख, बौद्ध, सिन्धी, नेपाली आदि सभी हिन्दू हैं) मुस्लिम तथा ईसाई के ईश्वर क्रमशः ॐ, खुदा व गॉड हैं । ॐ स्वरों का प्रतिनिधित्त्व करता है, स्वरों के बिना व्यंजनों का अस्तित्त्व नकारात्मक है । अतः ॐ नम्बर वन की प्राथमिकता पर है जबकि शेष दोनों दो नम्बर पर आते हैं अर्थात् ॐ शिव है, गॉड ब्रह्मा है व खुदा विष्णु है और इन तीनों की एकरूपता यों देख सकते हैं- खुदा को उर्दू में लिखने पर एक नुक्ता हटा दिया जाये तो जुदा हो जाता है अर्थात् वह दैवी तथा मानवी गुणों से अलग हो जाता है तो ‘गॉड का ग में से चिह्न हटा दें तो गड (गर्त-गढ्ढा) होता है जो खुदा की जुदाई को पकड़ लेता है, इसी प्रकार ओं का बिन्दु हटा दिया जावे तो ओ ओ करके रोते रहो कुछ नहीं मिलने वाला — यही तीनों में विलक्षण समानता है। इसीलिए ‘एकः शब्दः सम्यक् ज्ञातः सुष्ठु प्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुक् भवति ।’ (महाभाष्य) कहा गया है ।
सो अनन्य अस जाहिके मति न टरै हनुमन्त ।
मैं सेवक सचराचर रूप रासि भगवन्त ॥ (किष्किन्धाकाण्ड)
अथवा एक प्रेमिका द्वारा कुरान पढ़ने वाले के प्रति यह कथन—
मैं नर राचि ना लखो तुम कस लख्यो सुजान ।
पढि कुरान वौरा भया राच्यो नहिं रहमान ||
श्रीतुलसी को किसी ने 16 कलावतार कृष्ण का जिक्र किया तो उन्होंने राम को ही प्रधानता दी और कहा कि यह बहुत अच्छी बात है मेरे राम 12 से 16 कला हो गये। (अनन्यभाव) । अनन्यभाव से प्रभु को जो कुछ भी दिया