नारी उत्पत्ति एवं विकास कैसे हुआ भाग दो

महासुर रक्तबीज (जो ईर्ष्या भरे मद (घमण्ड) का या आजकल के हर क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार एवं अमर्यादित आचरण का प्रतीक या पर्याय है और मेरे विचार से यदि कोई नारी दृढ़ संकल्प ले लेवे तो निश्चित ही इस रक्त बीज को मार सकती है) को सारा खून पीकर मार दिया (अर्थात् नारी को जो ज्यादा सताता है, उसका वह खून भी पी जाती है। कहा भी जाता है कि यह तो सारे दिन मेरा खून पीती है।) निशुम्भ भाई के मरने के बाद शुम्भ द्वारा उलाहना देने पर कि ‘तू औरों के बल के सहारे लड़ कर घमण्ड कर रही है” देवी ने ब्रह्माणी आदि सभी शक्तियों को अपने शरीर में लीन/ आत्मसात् कर लिया ओर ‘अकेली’ होकर लड़ने को ललकारा। आगे चल कर युद्ध में शुम्भ दैत्य ने देवी की छाती में मुक्का मारा तो देवी ने दैत्य की छाती पर थप्पड़ मारा (अर्थात् नारी यदि लड़ाई पर उतर जाती है तो बराबर की मार करती है)। इतना ही नहीं दोनों ही आकाश में जाकर निराधार होकर लड़े – इस बात से मुनि लोग अचम्भे में पड़ गये (अर्थात् नारी बिना आधार के लड़ने माहिर होती है और आदमी से बढ़ चढ़ कर ही करिश्मा दिखाती है) यही कारण रहा कि आखिर देवी ने उसे ऊपर ही ऊपर घुमा कर धरती पर फेंक दिया और अन्त में जान से मार डाला । यहाँ शुम्भ-निशुम्भ काम और क्रोध के प्रतीक हैं जिनको संयम और ज्ञान-बल से महासरस्वती ने खत्म कर दिये ।

इन दुर्दान्त दानवों के दमन से प्रसन्न होकर इन्द्र और अग्नि की अगुवाई में देवताओं ने फिर देवी (नारी) की महिमा के गीत गाये और बहुत ही बड़ाई की। इसे कात्यायनी, जगन्माता, पृथ्वी एवं जलरूपा (घर में रह कर नारी बच्चे पैदा करती है, धरती पर उत्पन्न अन्न शाक आदि पदार्थ, जल आदि तरल पदार्थ (रोटी-पानी) की व्यवस्था करती है, परोसती है, मनुहार करके खिलाती है) संसार की बीज, विष्णु की शक्ति (पत्नी नहीं) अर्थात् विष्णु पालक हैं और नारी पालन पोषण में परम-पटु है, लिखा है :- मात्रा समं नास्ति शरीर पोषणम्” (माँ के बराबर शरीर का पोषण करने वाला कोई नहीं है) सारे संसार को मोहित करने वाली, समस्त विद्याएँ (कुल चौदह विद्याएँ प्रसिद्ध हैं) समस्त कलाएँ (कुल प्रसिद्ध चौंसठ कला हैं), संसार की समस्त स्त्री जातियाँ सभी आपके भेद एवं स्वरूप हैं। समय के अनुसार फल देने वाली, सभी कामों को सिद्ध करने वाली, स्वर्ग तथा मोक्ष देने वाली, शरणागत की रक्षा करने वाली, सभी की पीड़ा हरने वाली, मुण्डमाला पहनने वाली, सभी शक्तियों से सम्पन्न तथा नारायणि कहा गया है। मेरी राय में बार बार देवी (नारी) को नारायणि कह कर इसलिए नमस्कार किया गया है कि नारायण पालन कर्ता हैं और माँ रूप में नारी की ममता मूर्त रूप से पालन पोषण की भावना में रहती है, और बार-बार माँ, माँ चिल्लाने से माता बच्चों पर बरबस विशेष ध्यान देने या स्नेह लुटाने को बाध्य हो जाती है। हाथों की ताकत से ही देवी ने दानवों को मारा। मारपीट के अलावा घरेलू कामों में भी हाथों (भुजाओं) का योगदान रहता है, और देवी के हाथ नारायण के तेज से बने हैं। कहावत है – “जिसकी लाठी उसकी भैंस” अतः ताकत का सारा काम नारायणि शक्ति से हो रहा है। इसीलिये देवी को बार बार नारायणि कहा गया है। मनुस्मृति के अनुसार पानी को ‘नार’ कहते हैं (अन्य मत से ‘नार’ का अर्थ ज्ञान भी होता है) और पानी में शयन करने से विष्णु नारायण कहलाते हैं और इन्हें सुलाने का काम योगमाया करती है। जिसका दूसरा नाम विष्णु माया भी है। रामचरित मानस सुन्दरकाण्ड में भी हरिमाया का उल्लेख है। यह माया यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होने कारण विष्णु (नारायण) की बहिन हैं और भाई नारायण जैसे गुण होने से इन्हें नारायणी कहना बिल्कुल सटीक और सार्थक है।

आगे नारी के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि यह सभी रोगों को नष्ट करती है (बिमार की सेवा शुश्रूषा करने में नारी बहुत चतुरा होती है, इसीलिए नारी नर्स के रूप में रोगी का रोग दूर करने का परचम लहरा रही है।) यदि नारी नाराज हो जाये तो साज की आवाज बदल जाती है अर्थात् खुशी का माहौल गमगीन हो जाता है, बनते कार्य बिगड़ जाते हैं। नारी का सहारा लेने पर विपत्तियाँ घबराकर भाग जाती हैं। इतना ही नहीं इसका सहारा पा कर काई भी व्यक्ति दूसरे को सहारा देने लायक बन जाता है। इस प्रकार यह नारी एक होकर भी अनेक रूपों में दिखाई पड़ रही है। साथ ही यह नारी राक्षसों, विषधर सर्पों, समाज कण्टकों, शत्रुओं, चौरों, आग तथ समुद्र जैसे भयावह तथा दारूण कष्टप्रद स्थानों के बीच अपने आपको स्थिर रखने में समर्थ होती है और यही बात नारी को “साहसं पत्तनानाम्” अर्थात् साहस का नगर सिद्ध करती है। इससे यह निहितार्थ बनता है कि नारी कठिन से कठिन, विषम और संघर्ष भरे वातावरण में भी अपना जुझारू रूप रखने में कामयाब रहती है।

अन्त में कहा है कि देवी (नारी) के आगे जो झुकता है, नर्मी से या शालीनता से पेश आता है, उसके सभी पाप, उत्पात, उपद्रव, महामारी आदि विपत्तियाँ तुरन्त दूर हो जाती हैं और वह नारी से वरदान पाने का अधिकारी बन जाता है ।

अन्य कोई विचारक या मनीषी पुरूष इस बात को माने या न माने परन्तु मेरी राय में यह देवी की उत्पत्ति और स्तुति नारी जाति की नियति को निश्चित स्वरूप देती है तथा भगवान् शङ्कर स्वयं पर्दे के पीछे रह कर अपने अर्धनारीश्वर रूप की विस्तृत एवं विविध दृष्टिकोणों से व्याख्या करने और अपनी अर्धाङ्गिनी की महिमा को गरिमापूर्ण बनाने में संलग्न दिखाई दे रहे हैं। कोई थोड़ा भी शिव तत्त्व का जानकार होगा, वह सहज ही इस बात को गले उतारने में समर्थ होगा, (शिव तत्त्व की विशेष जानकारी के लिए मेरे द्वारा लिखी गई पुस्तक “ईश्वर कौन और क्यों?” अवश्य पढ़ें) कि यह देवी और काई न होकर शिव की अभिन्न शक्ति शिवा अथवा पार्वती ही है। इस सन्दर्भ में यह एक सर्वविदित ध्रुव सत्य है कि शिव की पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, यजमान, सूर्य और चन्द्र नामक आठ मूर्तियाँ हैं । अग्निर्वै रुद्रः, सोमो वै विष्णुः” अग्नि ही रुद्र है, सोम ही विष्णु है और “अग्निषोमात्मकमिदंजगत्” यह संपूर्ण संसार अग्नि और सोम का ही रूप है अर्थात् विष्णु योनि रूप है तो शिव लिङ्ग रूप है। महाभारत अनुशासन पर्व की 14वीं अध्याय में इन्द्र और उपमन्यु सम्वाद में बताया है कि “नर रूप में सर्वत्र स्वयं शिव हैं तो मादा रूप में उमा (पार्वती) हैं, और यह सारा जगत् इन दोनों के शरीर से व्याप्त है । इस विवेचन का यह अभिप्राय है कि इस देवी (नारी) के शरीर निर्माण में अधिकांश अङ्ग शिव के तेज से ही बने हैं और यह देवी शिव पत्नी पार्वती के शरीर में ही निवास करती है तथा शिव के साथ हिमालय पहाड़ पर ही रहती है। जिन नामों से इस नारी (देवी) को सम्बोधन किया गया है, जैसे – शैलपुत्री, चन्द्रघण्टा, ब्रह्मचारिणी (कन्याकुमारी में कन्या रूप में), कुष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनि कालरात्रि, महा गौरी, सिद्धिदा, अम्बिका, कालिका, चण्डिका, शिवा आदि सभी नाम शिव पत्नी पार्वती जी का ही बोध कराते हैं। इसके अलावा यह एक बहुत प्रसिद्ध बात हे कि नारी के आस पास जो रहता है, वही उसे प्रिय होता है और वह उसका ही आश्रय ढूँढती है। यही कारण रहा कि शिव ने ब्रह्माणी आदि शक्तियों से घिरे रहने पर भी चण्डिका को ही असुरों को मारने का आदेश दिया और चण्डिका ने भी इनमें अपनी पूरी आस्था जता कर शिव को दूत बनाया अर्थात् शिव और चण्डिका का एक ही लक्ष्य अथवा उद्देश्य रहा कि सज्जनों की रक्षार्थ दुष्टों, समाज कण्टकों, दानववृत्ति के पुरूषों को नष्ट किया जावे, जिससे संसार में खुशहाली एवं अच्छाइयों का वातावरण बने। स्पष्ट है, शान्त वातावरण से ही चित्त वृत्ति स्वस्थ रहती है और स्वस्थ चित्त वृत्ति में ही अच्छी बुद्धि का विकास होता है और “जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना” का वातावरण बनता है जिससे मानव जीवन का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, रूपी चतुर्वर्ग सहज ही प्राप्त हो जाता है। जो नर या नारी के शरीर रूप में ही प्राप्त होना सम्भव है क्यों कि शरीर ही धर्मादि कार्यों का साधन है ।

दूसरी दृष्टि से देखें तो श्री शिव संहार के देवता हैं। तमोगुण के देवता हैं। काली, चण्डिका, चामुण्डा आदि में तमोगुणी शक्ति है और सभी दानवों का, बुराइयों का नाश करने में लगी हैं। फलस्वरूप दोनों ही संहारक होने से परस्पर तादात्म्य, एकत्त्व और अभिन्नत्त्व के रूप में तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं। इस समालोचना से भी दुर्गा, शताक्षी, शाकम्भरी, भीमा, भ्रामरी, नामक यह देवी शिवा रूप में ही दिखाई पड़ती है।

अब मैं देवगणों के तेज से जिन-जिन देवी (नारी) के अङ्गों की रचना हुई है उनके गूढार्थ ढूँढने का प्रयास कर प्रस्ताव पेश कर रहा हूँ कि नारी अङ्गों की रचना में केवल श्री शिव की ही लगभग पूरी की पूरी भूमिका रही है और आशा करता हूँ कि प्रबुद्ध पाठक रूपी सांसदगण विचार रूपी संसद में बैठ कर ध्वनिमत से इस प्रस्ताव को जरूर पारित कर देंगे।

सबसे पहिले अनोखी बात तो यह है कि इस नारी की रचना पैरों की तरफ से न होकर मुख की तरफ से हुई और यह मुख श्री शिव के तेज से बना। चूँकि शिव के दो रूप हैं, सौम्य और रौद्र । इसीलिये नारी चन्द्रमुखी होकर भी ज्वालामुखी या सूर्यमुखी है और ज्वालामुखी होकर भी चन्द्रमुखी है। (याद रहे, – हिमा. प्रदेश काँगड़ा में माता ज्वालामुखी का सिद्धपीठ है।) इसके अलावा यहाँ ध्यान देने की एक बात और है कि श्री शिव कपूर की तरह गौर हैं। मस्तिष्क पर चन्द्रमा चमक रहा है। गङ्गाजल से मुख स्वच्छ होकर चमकता हुआ तथा आकर्षण भरा है। यही कारण है कि हर युवती के चेहरे पर एक विशेष लावण्य तथा खिंचाव की ताकत होती है । ॐ कारो मन्मुखाज्जज्ञे’ इस शिव पुराण के कथनानुसार ॐ श्री शिव के मुख उत्पन्न हुआ है। ॐ ब्रह्म है, अर्थात् यह परम वाक् शक्ति स्वरूप है। यही बात होने से यदि शिक्षिता नारी हो तो कहना ही क्या? अन्यथा सामान्य निरक्षरा नारी भी बहुत बातूनी होती है तथा कई बार बहुत ही ज्ञान भरी सटीक बातें कहती है। ‘मुख को उत्तम अङ्ग कहा गया है क्यों कि मुख को देख कर ही सामने वाला व्यक्ति प्रभावित होता है। मुख को मानव मन का दर्पण भी कहा गया है। वेताल पञ्चविंशति की कथा के अनुसार किसी राजकुमारी के सामने यह समस्या उत्पन्न हुई थी। दो मित्र थे। उनमें से एक को वह राजकुमारी चाहती थी। संयोगवश दोनों के शिर काट दिये गये और दोनों के शिर बदल कर जीवित कर दिये गये। इस बात को लेकर बेताल ने राजा विक्रम से सही निर्णय देने को कहा कि वह राजकुमारी किसे अपनावे, धड़ वाले व्यक्ति को या सिर वाले को ? इस पर विक्रम ने सिर वाले व्यक्ति को अपनाने का निर्णय दिया अर्थात् इस सारे शरीर में सबसे ज्यादा महत्त्व सिर वाले हिस्से का होता है। मेरा इस कहानी लिखने का मतलब है कि इस नारी का मुख शिव के तेज से बना । फलस्वरूप शिव का महत्त्व ज्यादा रहा, जिसके कारण शिव का इस अम्बिका से जुड़ाव ज्यादा रहा। अस्तु ।

इस नारी के बाल यमराज के तेज से उत्पन्न हुए । यमराज मृत्यु के देवता हैं। और शिव काल के भी काल हैं। अतः यहाँ भी अप्रत्यक्ष रूप से

शिव तेज काम कर रहा है। नारी के घने, चिकने, काले, लम्बे बाल भला किस को नहीं लुभाते और बालों की जुल्फों पर फिदा आदमी दीये की लौ में जाकर झुलसने वाले पतङ्गे की तरह अपने नाश को आमन्त्रित कर लेता है और सहज ही यमराज से साक्षात्कार कर बैठता है।

विष्णु जी के तेज से इस नारी की भुजाओं का निर्माण हुआ है। स्पष्ट है कि विष्णु की भुजाओं में असीमित ताकत रही जिसके कारण हिरण्यकश्यप, रावण, जरासन्ध आदि को शस्त्रास्त्र से युद्ध कर उन्हें मौत के आगोश में भेज दिया तो बकासुर, मल्ल, मुष्टिक, चाणूर, कुवलयापीड हाथी, कंस आदि को से पराजित कर नष्ट किया। यही कारण रहा कि देवी की भुजाएँ भुजबल दानवों का संहार करने में समर्थ रही। इसके अलावा व्यवहार तथा प्रत्यक्ष रूप में देखें तो नारी की चाकी पीसना, कुए पर पानी भरना, पशुओं को चारा खोद कर या काट कर खिलाना, रोटियाँ बनाना, बरतन माँजना, कपड़े धोना, धान कूटना, घर की साफ सफाई करना, बच्चों-बड़े-बूढों के द्वारा चाहे गये कार्य को बार-बार करना, मजूदरी करना आदि सभी बातें नारी भुजाओं की असीम ताकत का शङ्खनाद कर रही हैं। साथ ही हरिहर रूप में शिव ही यहाँ भी विष्णु का प्रतिनिधित्त्व कर रहे हैं। इन हाथों की शक्ति के कारण ही नारी का चहुँमुखी बोलबाला और दबदबा रहता है। बिना हाथ की नारी को कोई पूछता तक नहीं। अष्टभुजा होने से आठों दिशाओं में नारी का दबदबा साफ झलक रहा है। ध्यान दें – दिव्य योनि और मनुष्य योनि में ही हाथ मिले हैं अन्य किसी भी योनि में हाथ नहीं है।

दोनों स्तन चन्द्रमा के तेज से बने । चन्द्रमा स्वयं शिव की अष्टमूर्ति में से एक है। यह ठण्डा है । कोमल है, आनन्द दायक है, जल एवं अमृत तत्त्व से भरा है। इन बिन्दुओं के नजरिये से दखेने पर नारी के स्तन मण्डल की विशेषता सहज ही समझी जा सकती है कि नारी का यह भाग कामोद्दीपक, आल्हादप्रद, कोमल, माँस पिण्ड है, जिसका स्पर्श सुखद अनुभूति देता है और बच्चे को दूध रूपी अमृत पान कराता है। स्तन का अग्रभाग चाँद में लगे धब्बे जैसा लगता है। इस प्रकार, सभी बातें चन्द्र तेज से स्तनों के निर्माण को पुष्ट करती हैं।

नारी का उदर (पेट या मध्य भाग) शरीर का केन्द्र बिन्दु है। पेट नर्म, पैर गर्म, सिर ठण्डा रहना, सही स्वास्थ्य की निशानी है। पेट ठीक रहने पर ही शरीर के, सारे अङ्ग अपने अपने काम को सही सही अञ्जाम देते हैं। पेट राजा है, शरीर का नियामक अथवा कन्ट्रोलर है। शरीर में वात, पित्त  और कफ तीन लोक की तरह दिखाई पड़ते हैं। फलस्वरूप तीनों लोकों अधिपति इन्द्र का तेज यहाँ नारी के मध्य भाग का प्रतिनिधित्त्व कर रहा हैं। शरीर निरोग होने पर संसार स्वर्गतुल्य प्रतीत होता है। यहाँ गहराई  विचार करे तो तैतीस देवता है,(बारह आदित्य , ग्यारह रुद्र पाँच विश्वेदेवा, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश और शक्ति) और ये सारे ही एक ये सारे ही एक प्राण देवता की विभूति है और प्राण देवता शिव हैं । शिव और विष्णु के पास रक्षा और शिव रूप है । इन्द्र डरपोक, शङ्कालु, दानव दुश्मनों से पीड़ित, आशङ्कित शिव रूप है। शिव पुराण में ब्रह्मा विष्णु एवं शिव पाने दौड़ता है-यही हाल कुछ पेट का है-खाने पीने में कुपथ्य एवं अन्य रोगों से परेशान वैद्य (शिव वैद्यनाथ का रूप) और व्यायाम (विष्णु स्वरूप) की मदद लेता है। 

देवी (नारी) की दोनों जाँघे और घुटने वरूण देव (जल के देवता) के तेज से बने हैं। जल गतिशील है – यह कठोर या नर्म कैसी भी जगह हो से बने । सूर्य स्वयं शिव रूप हैं – पूर्व में लिख अपनी जगह बना लेता है और तेजी से फैलता है। यही कारण है कि पैरों की अङ्गलियों को दूसरों के अड़ाने (स्प शैशवास्था में जाँघ एवं घुटनों के बल से बालक चलना सीखता है। गति गर्म (नाराज) हो जाता है। अङ्गलियाँ हाथों पकड़ता है, और धीरे धीरे यह गति तीव्र से तीव्रतर होती जाती है । जल और अग्रगामी होती हैं। सूर्य किरणें भी अग्रग शिव का अभिन्न सम्बन्ध है, निरन्तर गवय शृङ्ग से किया गया जलाभिषेक आकर्षण एवं विकर्षण करती हैं। उसी प्रका शङ्कर जी को अत्यन्त प्रिय है। स्वयं शिव भी जल रूप ही हैं। इस प्रकार नारी जल की तरह सभी जगह अपनी घुसपैठ करने में सफल रहती है ।

पृथ्वी देवी, (जो स्वयं शिव रूपा हैं, देखें- मेरी पुस्तक ईश्वर कौन और क्यों?) के अंश से (तेज से) देवी (नारी) का नितम्ब भाग (गुह्य स्थान) बना। सभी जानते हैं, धरती भोग भूमि है, किये हुए अच्छे या बुरे कर्मों का भोग तो भोगना ही पड़ता है। इसके अलावा विषय-भोग मैथुन, खान-पान आदि का सेवन भी पूरी मस्ती के साथ यहीं किया जाता है। धरती जीव-जगत् का आधार है अर्थात् नितम्बभाग से बैठा जाता है और यह आधार का काम करता है। इसी प्रकार धरती सभी जीव जगत् की योनि (उत्पत्ति स्थल) है। नारी माँ है, जननी है, नारी में भोग प्रतिष्ठित है, नारी सृजन-क्रिया की समस्त देवताओं का निवास श्री प्रमुख भागीदार है। मल मूत्र विसर्जन एवं धारण स्थान धरती ही है। गुह्य वसु-गण धनदायी देवता हैं-हाथों के स्थान मल मूत्र और भोग स्थान है। माता बच्चे के मूत्रादि में खुद सो जाती होता है । अतः धरती के तेज से नारी के गुह्य स्थानों का निर्माण उचित है ।

 

 

ankush

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