आखिर नारी है क्या
गणेशं शारदामम्बां, विधि-विष्णु-महेश्वरान् ।
पितरं वै गुरुं गौरी संस्मृत्याह प्रणम्य च ।। 1 ।।
नारी जात्याः स्वभाव च, स्वरूपं गुण-कर्मजम्
सप्रमाणं सटीकं हि, लिखामि तत्त्वतोमुदा ।। 2।।
अर्थ : श्री गणेश, माँ सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गुरु, पार्वती और माता-पिता को स्मरण एवं प्रणाम करके मैं (श्याम सुन्दर शर्मा उपनाम स्वामी) प्रसन्न मन से नारी-जाति के गुण और कर्मों से उत्पन्न स्वभाव तथा स्वरूप के बारे में वास्तविकता के साथ सप्रमाण और सटीक रूप से लिखने जा रहा हूँ।
2 – यह कौन है ?
1. यह सुलक्षणा, कुलक्षणा, विलक्षणा रूपी त्रिवेणी है?
2. यह विनम्रता, करूणा, ममता, त्याग, शील और तपस्या की मूर्ति है ?
3. यह योगमाया, माया ओर नर काया का साया अर्थात् जाया है?
4. यह कोमलता, कठोरता, क्रूरता, चञ्चलता भयातुरता, विद्रूपता, प्रसन्नता और क्रोध का छलकता जाम है?
5. यह मक्कारी, वफादारी और होशियारी की जीती-जागती तस्वीर है?
6. यह अपवित्रता, मूर्खता एवं सुन्दरता का अनोखा पैमाना है?
7. यह चिपटने, लिपटने और सिमटने का अजीब सम्मिश्रण है?
8. यह संसार का तोल, पोल-खोल और ऊँचा मोल है?
9. यह एक खुली किताब, शुकूनभरा शबाब तो मदहोशी वाला ख्वाब है?
10. यह मतलब परस्ती, वाक्चातुर्य और तरोताजगी का खजाना है?
11. यह मस्खरी भरे नखरे, हँसने, रोने तथा उदास होने की कला में चन्द्रकला है?
12. यह ताल, चाल, जाल, हाल-बेहाल और माल से मालामाल है ?
13. यह संयोग-वियोग का नाचता मोर, देखते ही लोग कहें वन्समोर, कामदेव की सेना की सिरमौर है?
14. यह हास-परिहास, विलास का गुब्बार तथा इकरार भरे प्यार का खुमार है। यह एक मीठा भ्रम, अथक श्रम और चलने वाला क्रम है?
15. यह हँसता सङ्गीत, गुनगुनाता गीत, चहकता मीत, हार या जीत है?
16.गीली एवं गुची-मुची साड़ी, धूल से सने बाल, कर्मठ हाथ, आँखों में हैरानी और दिल में तूफान, कैसी पहचान है? यह इतना ही नहीं, पैदा करे पूत, चाहे जिस के बजवादे जूत, पूरी अवधूत और यमदूत है?
17. यह ठगनी, नटनी, कामिनी और मोहिनी रूपी चारपाई है?
18. यह प्रेमी दिल की कसक, गुणावगुणों की घटक, कलह की नमक है।
19. यह विज्ञापनों की चमक, मॉडलिङ्ग की महक, बॉलीवुड एवं हॉलीवुड की दमक है?
20. नगर कस्बे ढाणी, करे कुणबा घाणी, अच्छे अच्छे को पिलादे पाणी, कभी बावळी, कभी स्याणी, कभी दासी, कभी राणी, आखिर यह क्या बला है ?
21. यह राजयोग, भोग, रोग होकर भी काजू-सी स्वादिष्ट, वीर-बाजू-सी बलिष्ठ, माजूफल-सी क्लिष्ट है ?
22. यह हर गुलिस्ताँ का मूल, फूल में भी शूल, अर्द्धनारीश्वर की धूल है ?
23. यह नर की खान, आन, मान, शान और जहान है? तथा यह शील सङ्कोच, लज्जा, धर्म और कर्म, जैसे समाज-पोषक तत्त्वों को अनुप्राणित किये हुए है?
24. यह यत्र-तत्र – सर्वत्र है, एक छत्र है, पवित्र रूप में कलत्र है? व्वाब है? है?
25. यह अठखेली करती अलबेली, नित-नवेली, सहेली या पहेली है?
26. यह सम-विषम, अमृतमय-विषमय होकर अपने जीवन की समता और विषमता से ओत-प्रोत विचित्र कहानी कह रही है?
27. यह विपत्तियों, विध्वंसों तथ विभीषिकाओं के थपेड़े झेल कर भी सदा सङ्कट मोचक रही है। आँचल की छाँह फैलाती रही है। परिणय-प्रेम का पाठ पढ़ाती रही है। धैर्य, संयम, साहस-सहज भाव, सहनशील स्वभाव एवं शान्त भाव को अपनाती रही है, बनती रही है, सहलाती रही है, उत्साहित करती रही है, सुसंस्कृत तथा अनुशासित करती रही है?
28. यह पुराने जमाने से लेकर आज तक लड़ाइयों का कारण बनी है, जिनमें यह लुटती रही है, सब कुछ खोती रही है, फिर भी देती ही आ रही है, कुछ भी तो नहीं ले रही है?
29. यह घर-आँगन, खेल-खलिहान, नौकरी-व्यवसाय में सूर्योदय के पहले से लेकर रात्रि होने तक मशीन की तरह बराबर काम में लगी हुई जन्मजात श्रम की मूर्ति है? इतना ही नहीं छोटी-सी गृहस्थी में गाँधीवाद, मार्क्सवाद, ज्ञानवाद, अधिकारवाद, और पूँजीवाद के कार्यों को समन्वय और सामञ्जस्य से ठीक करती आ रही है?
30. यह तूफान, भूकम्प, बाढ़, महामारी, ज्वालामुखी, भू-स्खलन, अतिवृष्टि • और अनावृष्टि में दैहिक, बौद्धिक तथा मानसिक शोषण का शिकार अर्थात् बनती आ रही है ? फिर भी नर को विवश कर बन्दर की तरह नचा रही है। अब यह नर की सोच है कि वह नारी (काम) का बन्दर नारद बनना चाहता है या नारायण (राम) का बन्दर बन कर हनुमान् बनना चाहता है।
31. यह नये फैशनों के बाजार में अश्लीलता, नग्नता, निर्लज्जता, कामुकता और हिंसा का ताण्डव-नाच कर रही है?
32. यह आपस की होड़ा होड़ी में आराध्या से अपराधिनी तथा उपास्या से भोग्या बनी हुई है और दीया बनी जल रही है?
33. यह रचनात्मक संसार बनाने के साथ-साथ स्नेह, शान्ति, सरलता, सेवा, दया, ममता का सन्देश, उपदेश एवं आदेश देती आ रही है?
34. यह देवी, रानी, महारानी, श्रीमती, प्राण- प्रिया, प्रेम-पुजारिन आदि नामों के विपरीत कुलटा, वैश्या, रण्डी, चुड़ैल, मूर्खा, कुतिया, परकटी जैसे नामों से सम्बोधित करने को बाध्य कर रही है?
35. यह नीर भरी त्याग की बदली है? परन्तु बहते पानी की तरह नये नये रास्ते ढूँढने एवं बनाने में वीराङ्गना है, विदुषी है?
36. यह कुमुदिनी, कादम्बरी, कमलिनी और कनकलता है?
37. यह ईश्वरीय सौन्दर्य और सृष्टि रचना का अन्तिम शब्द है, किन्तु आज व्यावसायिकता की चपेट में सबसे बढ़कर क्षुब्ध है?
38. यह संसार में मनुष्यों के लिए उत्सव तथा हर्ष की हेतु और सेतु है?
39. यह आज कल कैरियर के चक्कर में सतीत्त्व और मातृत्त्व को उपेक्षित खण्डित तथा प्रताड़ित करने में जी-जान से जुटी हुई है?
40. यह काल के कराल-चक्र में कुछ समय के लिए सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, व्यावसायिक और विधिक रूप से उत्पीड़ित, मर्दित, दलित, त्रस्त, शोषित, सङ्कुचित, अप्रति क्रियात्मक एवं उपेक्षित रहती आई है? (अपवाद छोड़कर)
41. यह जीवन-नौका की केवट बनकर भी राम से दूर सन्देह का अलङ्कार पहने सीता-जैसी लग रही है?
42. यह अपनी आयु, रङ्ग और अङ्गों की कभी देखी तो कभी अनदेखी कर बनाव शृङ्गार के साथ काम पर जाती है। बाहर घूमने जाती है। खुद को नुमाइश का रूप देती है । बिमारी की हालात हो या किसी दुःखद घटना पर किसी के जाना हो, सजने -धजने से परहेज बिल्कुल नहीं करती है।
43. यह अपने सौन्दर्य और अच्छाइयों की वाहवाही दूसरों से चाहती है और यदि कोई अजनबी वाहवाही करने लग जाये, तो इसे परम आनन्द
मिलता है?
44. यह चुप्पी साधे भोली बन कर आमन्त्रण देती है अर्थात् पहल करती है, इस पर रीझ कर (क्योंकि कहा गया है-‘तेरा जलवा जिसने देखा, वह तेरा हो गया), पुरुष आगे बढ़ता है, और कोई नहीं देखता है तो कहती है ‘तू मेरा हो गया, मैं तेरी हो गई” और यदि किसी ने देख लिया तो बदनामी के डर से चीख-पुकार मचा कर सारा दोष पुरुष पर डाल कर, खुद को सती-सावित्री सिद्ध करना चाहती है?
45. यह अपनी अनोखी मन की हालात के कारण कभी किसी को जीत नहीं सकी क्यों कि इसे अनुराग हो या विराग, कोई दुःख हो या दूसरे के प्रति चाह हो, सभी बातों में इसे एक प्रकार से सन्तुष्टि ही अनुभव होती है?
46. यह गुलाब होकर भी काँटा है। कपूर, चन्दन, चाँद और बर्फ जैसी ठण्डी होकर भी बुरे कर्मों की गर्मी से झुलसाती है, खुद भी झुलसती है। मन लुभावनी होकर भी केवल पीड़ा और कुण्ठा भरे दलदल में खुद गिरती है और दूसरों को भी धकेलती है। मादकता के जाम पिलाती-पिलाती, जहर का प्याला परोसती है। सोने का गहना बन कर भी कान छेदती है। छाँह होकर भी धूप की तरह जलाती है?
47. यह एक नदी में उठने वाली लहरों की लड़ी की तरह है जो नदी के दोनों किनारों से कोई जुड़ाव या लगाव नहीं रखना चाहती फिर भी बार-बार दोनों किनारों से मिलने के लिए बैचैन-सी दिखाई पड़ती है, तो कभी धाराओं के बीच में डूबना चाहती है, फिर उठती है और आगे जाती है, इस तरह मर-मिटने और फिर से जी – जाने लगातार खेलती-सी खिलखिलाती-सी लगती है?
48. यह जिन्दगी जीने के कई तरीके जानती है। इसके हिसाब से “आपसी समझौता और एक दूसरे पर भरोसा रखने का नाम ही जिन्दगी है ।” इसके लिए जिन्दगी एक उत्तरदायित्त्व है, कार्य करने का क्षेत्र है, साँसों का पिटारा है, सिर पर ढोने वाला बोझा है, मौज-मस्ती मारने का मौका है, गन्दगी का रूप न होकर बन्दगी का साधन है, और इतना जिन्दगी के प्रति लगाव होने पर भी विचित्र बात यह है कि इसे जिन्दगी के बारे में कुछ भी जाने बिना, सोचे-समझे मनुष्य मानव बिना जीना पड़ रहा है। क्यों कि इसे जिन्दगी को जीना है?
49. यह धर्म-अर्थ-काम मोक्ष नामक चतुर्वर्ग फल की प्राप्ति में लगे का धड़कता अनुभव है तो फड़कता अहसास है, साथ ही प्रत्येक के जीवन में ‘मधुराम्ल – लवण’ कटु कषाय तिक्त भेदात्’ अर्थात् यह किसी के लिए मीठी है, खट्टी है, नमकीन है, कड़वी है, कसैली है, तो किसी के लिए तीखी रसवाली है, और इसी के बल पर मानव रोग, भोग तथा योग वाली जिन्दगी जी रहा है?
50. यह दैवी सम्पदा के रूप में आनन्ददायिनी है तो दानवी सम्पदा के रूप में भयङ्कर कष्टप्रदा है। देव्यथर्वशीर्ष के अनुसार यह आत्मशक्ति है। विश्वमोहिनी है। माँ के रूप में पालन करने वाली है। शोक दूर करने वाली है?
51.यह वही तो है जो मायावाद, कायावाद और मिथ्यावाद से लिपटी धरती की तरह सब कुछ सहती हुई भी कहती है –
“मैं सब कहूँगी, फिर भी हार जाऊँगी।
वो चुप रहेगा और लाजबाब कर देगा।
अर्थात् पुरुष आश्रय में ही यह आनन्द अनुभव करती है।
हाँ, तो प्रबुद्ध पाठकगण सहज भाव से समझ गये होंगे कि “यह कौन है ?” का उत्तर केवल “यह नारी ही है” निकलता है।
मनुष्य का मन जो हवा की तरह चञ्चल है, टिकने का नाम ही नहीं लेता, फिर भी यह समस्त इन्द्रियों का प्रेरक है । वायुदेव और गरूड़ के वेग से भी बढ़कर इसकी उड़ान है। ऐसा गतिशील और क्रियाशील होकर भी यह असीमित और अनन्त जिज्ञासाओं को सहज भाव से बन्दरी के बच्चे की तरह चिपटाये हुए है और शायद इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे प्राचीनतम कवियों, विचारकों, तत्त्व चिन्तकों,
क्या, आदि जिज्ञासा भरे प्रश्नों के माध्यम से किया है, जिसके प्रमाण श्रेष्ठतम ग्रन्थों के रचयिताओं ने अपने अपने ग्रन्थों का प्रारम्भ कौन, वाल्मीकि रामायण, गीताजी, मेघदूत आदि ग्रन्थ हैं। फलस्वरूप इसी मनोवृत्ति या प्रचलित परम्परा का पालन करते हुए स्वान्तः सुखाय और पर हिताय मैंने नारी के बारे में ‘यह कौन है?’ वाक्य से शुरुआत करने का विचार किया है और “कौन” शब्द से नारी के विषय में कुछ कहना अवश्य ही निराला रङ्ग लायेगा क्यों कि साधारण रङ्ग लोगों का इतना आकर्षित नहीं कर पायेगा जितना कि निराला रङ्ग, ।
जिज्ञासा भरे प्रश्न के परिप्रेक्ष्य में कहना चाहूँगा कि “जिज्ञासा वृत्ति में भी मानव-मन को एक अजीब सुखद, आनन्द और सन्तोष की अनुभूति होती है।” इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मन में आये अनेक शीर्षकों, जैसे – “नारी तेरे रूप अनेक” अथवा “नारी की कहानी” अथवा “नारी की महिमा” अथवा “नारी के बढ़ते चरण” अथवा “आखिर नारी है क्या ? में से छाँट कर इस पुस्तक का शीर्षक “आखिर नारी है क्या ?” रखा गया है।
मेरी राय में पाठकों के लिए पुस्तक का यह शीर्षक अवश्य ही मन को गुदगुदाने वाला और पुस्तक पढ़ने के प्रति ललक पैदा करने वाला सिद्ध होगा ।
निष्कर्ष रुप से अन्त में कहना चाहूँगा “नारी उस महाप्रकृति का नाम है, जो पति के लिए चरित्र, सन्तान के लिए ममता और समाज के लिए करुणा की भावना को दिल और दिमाग में सजोये रहती है ।”